समय के साथ बदलता होली का स्वरूप
14 मार्च 2025 को होली है। रंगों का त्योहार होली की बात ही कुछ निराली है।होली के दिन जहां एक ओर रंग उड़ते हैं, तो वहीं दिल से दिल भी मिलते हैं। इस दिन लोग आपसी गिले-शिकवे भुलाकर एक-दूसरे को गालों पर रंग(गुलाल-अबीर) लगाते हैं और ये रंग दिलों में मिठास घोलने का काम करतें हैं। हंसी-ठिठोली, हुड़दंग बाजी, उल्लास और खुशियों से सरोबार करने वाला बहुत ही पावन और पवित्र त्योहार है होली। रंगों बिना जीवन हमेशा फीका होता है, इसलिए जीवन में भी रंगों का होना बहुत ही जरूरी है। वास्तव में देखा जाए तो होली ‘राग’ का त्योहार है, ‘रंगों’ का त्योहार है। ‘राग’ का तात्पर्य होता है-‘अनुराग’ या ‘प्रेम’। जहां ‘अनुराग’ और ‘रंग’ है, वहां होली है और जहां ‘होली’ है वहां हंसी है,खुशी है, पवित्रता है, स्नेह है, आपसी सद्भाव है, प्यार है, प्रेम है, बंधुत्व की भावना है। द्वेष और वैर-भाव से परे है होली। होली तो दिलों को मिलाने का मौसम है, आपसी दूरियां सभी मिटाने का मौसम है, होली का त्योहार ही ऐसा है, रंगों में डूब जाने का मौसम है। प्रकृति भी अपने पावन रंगों में होती है, जब होली के त्योहार का आगमन होता है। कहना चाहूंगा कि
राग-रंग से परे होकर रंग जाना ही तो होली है। वास्तव में फाल्गुन के महीने(फाग महीना) में ही जीवन और प्रकृति में उल्लास छाने लगता है, जो होली पर अपने चरम पर होता है। सच तो यह है कि होली न सिर्फ बाहर से बल्कि भीतर से भी रंग जाने की सीख देती है। होली नेह की ज्योति को जगमग करता है। यह रोमांच और प्रेम-आह्वान का त्योहार है।जब होली आती है तो प्रकृति के मनोहारी व लुभावने रूप को निहार कर हर जीव के भीतर राग हिलोरें लेने लगता है। ये भीतर की हिलोरें, जब बाहर प्रकट होती हैं तो उत्सव का रूप ले लेती हैं और रंगों का पर्व होली मनाया जाता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि होली शीत ऋतु की विदाई और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का सांकेतिक पर्व है।यह वह समय होता है जब पलाश के फूल खिलते हैं और आम्र की मंजरिया महक-महक सी उठतीं हैं। हवाएं, फिजाएं अपना बासंती रंग प्रकृति के कण-कण में उड़ेलती नजर आतीं हैं। ढ़ोलक की थाप, स्वांग निकालना, चंग-डफ, बांसुरी मन को जैसे मोह लेते हैं।जगह-जगह पर धमाल की धमक हृदय को सुकून और असीम आनंद की अनूभूति प्रदान करती है। होली में रंग हैं और रंग ही जीवन हैं। बिना रंगों के जीवन कुछ भी नहीं है। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि रंगों में तीन रंग सबसे प्रमुख माने गए हैं- लाल, हरा और नीला। इस जगत में मौजूद बाकी सारे रंग इन्हीं तीन रंगों से पैदा किए जा सकते हैं। जो रंग सबसे ज्यादा हमारा ध्यान अपनी ओर खींचता है- वह है लाल रंग, क्योंकि सबसे ज्यादा चमकीला लाल रंग ही है। मानवीय चेतना में अधिकतम कंपन लाल रंग ही पैदा करता है। जोश और उल्लास का रंग लाल ही है। लाल रंग उत्साह, सौभाग्य, उमंग, साहस और नवजीवन व जोश का प्रतीक है। होली में भी यही है। होली में उत्साह होता है, सौभाग्य का प्रतीक है होली। होली हमें नवजीवन का संदेश देती है, यह होली ही जो हमारी रगो में स्फूर्ति और आनंद का संचालन करती है। देवी (चैतन्य का नारी स्वरूप) इसी जोश और उल्लास का प्रतीक है। वास्तव में, उनकी ऊर्जा में भरपूर कंपन और उल्लास होता है। देवी से संबंधित कुछ खास किस्म की साधना करने के लिए लाल रंग की जरूरत होती है। महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी भी अपनी एक कविता में “लाल गुलाल’ की बात करते हैं। वे कहते हैं -‘केशर की, कलि की पिचकारी पात-पात की गात संवारी। राग-पराग-कपोल किए हैं, लाल-गुलाल अमोल लिए हैं तरू-तरू के तन खोल दिए हैं, आरती जोत-उदोत उतारी-गन्ध-पवन की धूप धवारी। गाए खग-कुल-कण्ठ गीत शत, संग मृदंग तरंग-तीर-हत भजन-मनोरंजन-रत अविरत, राग-राग को फलित किया री विकल-अंग कल गगन विहारी।’ वहीं हरा रंग विश्वास, उर्वरता, खुशहाली, समृद्धि और प्रगति का प्रतीक है। उर्वरता का तात्पर्य यहां विचारों की उर्वरता से है। हमारे विचार, हमारा मन द्वेष से परे होता है।हरा रंग समृद्धि से जुड़ा है, हमारा जीवन हर प्रकार से समृद्ध हो, यही होली का संदेश है। वैसे भी दर्शन शास्त्र के अनुसार, हरे रंग को उत्सव के माहौल से भी जोड़ा जाता है। इसलिए होली खेलने में इस रंग (हरे रंग का) महत्व विशेष हो जाता है। प्रकृति से जुड़ा यह रंग हमारे विचारों में हरियाली का आविर्भाव करता है। वहीं पर नीला रंग सबको समाहित करके चलने का रंग है।आकाश नीला होता है, समुद्र भी नीला ही दिखता है। नीला रंग शांति और स्थिरता का प्रतीक है।आप देखिए कि इस जगत में जो कोई भी चीज बेहद विशाल और हमारी समझ से परे है, उसका रंग आमतौर पर नीला है। आकाश और समुद्र इन विशाल चीजों में से एक हैं। वास्तव में नीला रंग शुद्धता, सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक भी माना जाता है। वास्तु शास्त्र के अनुसार अगर हम किसी दिन स्वयं को बहुत उदास महसूस करते हैं, तो हम नीले रंग की किसी चीज को ध्यान से देखते रहें, इससे हमें थोड़ी राहत महसूस होगी।नीले रंग को एकाग्रता, शांत और चिंतनशील होने से जोड़कर देखा जाता है।जिस प्रकार पानी बहता रहता है और उसकी तरलता किसी भी चीज को साफ कर देती है, उसी तरह पानी भी किसी के नकारात्मक विचारों को साफ करके किसी व्यक्ति को अच्छी चीजों को देखने का नजरिया देता है। पानी जिस तरह बहता रहता है, उसे निकलने के लिए एक छोटी-सी जगह चाहिए होती है, उसी तरह नीला रंग भी रंगों के बीच में अपनी अलग जगह बना ही लेता है। नीला रंग विशुद्ध चक्र (थ्रोट चक्र) को संतुलित रखने में हमारी मदद करता है। विशुद्ध चक्र संचार और अभिव्यक्ति से जुड़ा होता है। समय के साथ होली के रंग व स्वरूप बदलने लगे हैं। कुछ दशकों पहले व अब की होली में काफी अंतर आया है। आज डिजिटल होली खेली जाने लगी है।पहले के दौर में होली सिर्फ रंगों का खेल नहीं, बल्कि यह त्योहार एक सामूहिक उत्सव के रूप में मनाया जाता था।लोग समूह में, टोलियों में एक-दूसरे के घर जाकर होली खेलते थे। बड़े-बुजूर्गों का आशीर्वाद लेने की परंपरा थी।समय के साथ इसमें कमी आयी है। पलाश के फूल, हल्दी, मुल्तानी मिट्टी व प्राकृतिक रंगों की होली खेली जाती थी। पाठकों को बताता चलूं कि हमारे वेदों और महाकाव्यों में रंगों का उल्लेख मिलता है, जिसमें इनका धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व था। उस समय रंग प्राकृतिक तत्वों से बनाए जाते थे – जैसे हल्दी से पीला, चुकंदर से लाल, फूलों से गुलाबी और नीम के पत्तों से हरा रंग। इन रंगों का उपयोग न केवल सौंदर्य के लिए, बल्कि त्वचा के उपचार के लिए भी किया जाता था। हल्दी का पीला रंग त्वचा को सुरक्षा प्रदान करता था, जबकि चुकंदर से बना लाल रंग रक्त को शुद्ध करने में मदद करता था। इन रंगों का एक और फायदा था कि ये त्वचा के लिए भी सुरक्षित होते थे और शरीर के लिए लाभकारी थे।रासायनिक और अप्राकृतिक रंगों को उतना स्थान नहीं था, जितना कि अब है। अप्राकृतिक व रासायनिक रंग हमारी त्वचा, आंखों के साथ हमारे स्वास्थ्य पर बुरा असर छोड़ते हैं। आज रंगों में सल्फर, असबाब, और भारी धातुओं का इस्तेमाल किया जाने लगा है,पहले लोग गुलाल-अबीर से होली मनाते थे।रासायनिक रंगों के प्रयोग से जलन, रैशेज, आंखों में जलन, और एलर्जी जैसी समस्याएं उत्पन्न होने लगी हैं। साथ ही, पर्यावरण पर भी इन रंगों का बुरा असर पड़ने लगा है। पानी, हवा और मिट्टी को प्रदूषित करने के कारण ये रंग अब एक समस्या बन गए हैं।होली गीतों ,फाग गीतों में कोई भी अश्लीलता नहीं होती थी। अलग-अलग मंडली बना कर ढोल -नगाडा, गीत, रंग-अबीर के साथ होली का पर्व खेला जाता था। स्वांग, हंसी-ठिठोली, हुड़दंग होता था। नशे के सेवन पर काफी हद तक नियंत्रण था। अब तो डीजे संस्कृति आ गई है, सेल्फी का दौर है।पहले अमीर-गरीब बिना किसी भेदभाव के एक साथ होली मनाते थे। तीन-चार दशकों के पहले की होली की बात ही कुछ निराली थी। गाय के गोबर के बड़कूले बनाए जाते थे,अब बड़कूले गायब से हो गये हैं।पहले हमारे गांवों की होली शहर की होली से अलग थी। महीने भर पहले भी डफ, ढ़ोल,चंग, बांसुरी गूंजने लगते थे।होली के आगमन के सप्ताह भर पहले से ही इसकी खूब तैयारी होती थी।खोखले बांस से पिचकारी बनायी जाती थी।होली का त्योहार भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है, जो उल्लास, खुशी और रंगों के पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह दिन न केवल रंगों के खेल के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यह एक-दूसरे से गले मिलने, बुरा-भला भूलने और प्रेम तथा भाईचारे का संदेश देने का अवसर भी है। पहले की तरह आज आत्मीयता- भाईचारा कम दिखाई देता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हानिकारक केमिकल रंगों-गुलालों का व्यवहार बढ़ा है। इतना ही नहीं,अब बड़ों से आशीर्वाद लेने की परंपरा भी लुप्त हो रही है। तीन-चार दशक पहले बसंत के आगमन के साथ होली का पर्व शुरू होता था। रंग-अबीर उड़ने लगते थे।महीने भर के उमंग के बाद फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन होलिका दहन होता था। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि होली का त्योहार भी आदमी की आत्मा, उसके मन-मस्तिष्क में जगह बनाता है, वह नकारात्मक ऊर्जा, नकारात्मक विचारों को साफ करने का काम करता है। होली है तो द्वेष और नकारात्मक ऊर्जा रह ही नहीं सकती है। इसलिए आइए ! इस होली हम अपने जीवन में लाल, हरे व नीले रंगों को भरें और जीवन को उल्लासित, खुशियों से सरोबार करते हुए, द्वेष,आपसी कटुता और वैर-भाव से परे मदमस्त होकर होली की पावन और सनातन संस्कृति को भरपूर जीएं। अंत में यही कहूंगा कि -‘रंगों में घुली मिठास है,हर चेहरे पर उल्लास है,दिल से दिल की हो पहचान,खुशियों से भर जाए हर अरमान।’ होली पर्व की हार्दिक बधाई, मंगलकामनाएं।
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड।
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