रेवड़ी संस्कृति की होड़ में कमजोर होती राज्यों की अर्थव्यवस्था
देश में राजनीति अब विकास के बजाय वादों की दौड़ में फंसती जा रही है। PRS Legislative Research की हालिया रिपोर्ट ने कई राज्यों की वित्तीय स्थिति की गंभीर तस्वीर पेश की है। रिपोर्ट के अनुसार, कुछ राज्य अपनी कुल आय का 70% तक हिस्सा लोकलुभावन योजनाओं — यानी “रेवड़ियों” — पर खर्च कर रहे हैं। यह स्थिति न केवल वित्तीय अनुशासन के लिए खतरा है, बल्कि आने वाले वर्षों में राज्यों की आर्थिक स्थिरता पर भी गहरा संकट खड़ा कर सकती है।
इन तथाकथित “फ्रीबी योजनाओं” के चलते कई राज्यों का खजाना खाली हो रहा है। कुछ राज्यों की हालत तो इतनी बिगड़ चुकी है कि यदि केंद्र सरकार से अनुदान या कर्ज न मिले, तो वे अगले महीने की वेतन देने की स्थिति में भी नहीं रहेंगे। यह स्थिति उस समय और चिंताजनक हो जाती है जब यही राज्य कर्ज के बोझ से पहले ही दबे हुए हैं।
यह सही है कि जनता को राहत देने वाली योजनाएं किसी भी सरकार का दायित्व होती हैं, लेकिन जब यह योजनाएं राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और चुनावी लाभ के लिए चलाई जाती हैं, तो वे विकास की बजाय विनाश का कारण बन जाती हैं। सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य और उद्योग जैसे मूलभूत क्षेत्रों में निवेश घट रहा है, जबकि “मुफ्त वितरण” की संस्कृति ने दीर्घकालिक विकास की दिशा से ध्यान भटका दिया है।
वित्तीय अनुशासन से समझौता कर के “जनप्रियता” हासिल करना आसान है, लेकिन उसकी कीमत आने वाली पीढ़ियों को चुकानी पड़ती है। रेवड़ी बांटने से कुछ समय के लिए तालियां जरूर बजती हैं, पर इससे न तो रोजगार बनता है, न ही आर्थिक आत्मनिर्भरता आती है।
जरूरत है कि केंद्र और राज्य दोनों सरकारें मिलकर ऐसी नीतिगत सीमा तय करें, जिससे जनता की जरूरतें पूरी हों, लेकिन वित्तीय संतुलन भी बना रहे। लोकतंत्र में लोकलुभावन राजनीति की सीमा वहीं तक होनी चाहिए, जहाँ से वित्तीय जिम्मेदारी शुरू होती है। अन्यथा, रेवड़ियों की इस दौड़ में हम आने वाले समय में अपनी आर्थिक स्वतंत्रता भी गंवा बैठेंगे।



Leave a Reply
Want to join the discussion?Feel free to contribute!