आखिर बाढ़ क्यों आती है ? क्या सरकार के पास ऐसी कोई योजना नहीं जो बाढ़ को रोक सके?
भारत के कई हिस्सों में फैला बाढ़ का कहर…
खबरी प्रशाद दिल्ली केशव भुरारिया
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल, बिहार, महाराष्ट्र सहित देश के अलग-अलग राज्यों में बाढ़ ने आफत मचाई हुई है। पिछले साल भी हिमाचल में बरसात ने जनजीवन अस्त व्यस्त कर दिया था। पहाड़ी राज्यों हिमाचल और उत्तराखंड में हर साल बरसात आम जीवन पर कहर बनकर उतरती है। उत्तर प्रदेश की नदियों में पानी का स्तर लगातार बढ़ता ही जा रहा है। मौसम विभाग ने उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में भारी बारिश का अनुमान जताते हुए अलर्ट भी जारी किया है। पर यहां सवाल इस बात का नहीं है कि भारी बारिश का अलर्ट जारी किया गया है सवाल इस बात का है कि हर साल आने वाली बरसात से सरकार अपने नागरिकों को बचाने के लिए कोई योजना क्यों नहीं लाती ? हर साल बरसात से कई राज्यों में अरबो रुपए का नुकसान होता है उससे बेहतर है कि एक बार सरकार कोई ऐसा प्रोजेक्ट बनाए जिसमें नदियों को एक दूसरी नदियों से जोड़ा जा सके ताकि एक नदी में अगर बारिश का पानी बढ़ जाए तो उसे दूसरी नदी से होते हुए तीसरी या फिर चौथी , पांचवी नदी में पानी को भेजा जा सके। क्या ऐसा होना संभव है?
नदी से नदी जोड़ो योजना
ऐसा माना जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की सरकार के शासन के दौरान केंद्र सरकार ने बाढ़ से निपटने के लिए सबसे पहले एक योजना बनाई थी। पर ऐसा कहना पूरी तरीके से सही नहीं होगा कि अटल बिहारी वाजपेई ही वह व्यक्ति नहीं थे । जिनकी सरकार ने नदियों से नदियों को जोड़ने के लिए योजना तैयार की थी। भारत में सबसे पहले एक अंग्रेज इंजीनियर ने 1858 में नदियों को जोड़ने की बात कही थी। हालांकि तत्कालीन केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने एक बयान दिया था उसके बाद नदी से नदी जोड़ो योजना चर्चा में आई और अटल बिहारी वाजपेई की सरकार ने इस पर काम करना शुरू किया। अगर वह योजना पूरी तरीके से सिरे चढ़ जाती तो देश भर की नदियों को आपस में जोड़कर हर साल आने वाली बाढ़ की तबाही से कुछ हद तक रोक लगाई जा सकती थी। और देश के कई इलाकों में सिंचाई से लेकर बाढ़ की समस्या से देश को कुछ हद तक छुटकारा मिल जाता। आज भी देश के कई हिस्से कभी सूखे से तो कभी बाढ़ की समस्या से ग्रसित है।
नदी से नदी जोड़ो योजना में सभी राज्यों के सहयोग की जरूरत
नदी से नदी जोड़ो योजना का विचार वैसे तो 1858 में ब्रिटिश सैन्य इंजीनियर आर्थर थॉमस कॉटन का था। दरअसल भारत में जब ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था तो अंग्रेजों को बंदरगाहों की सुविधा हो सके और सामान की ढुलाई एक से जगह दूसरी जगह पर आराम से लेकर जाया जा सके, इस विचार से नदी से नदी जोड़ो का विचार सामने प्रस्तुत किया गया था।
परंतु अटल बिहारी वाजपेई की सरकार बनने के बाद केंद्रीय जल शक्ति मंत्री ने एक बयान दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि देश में अगर सभी राज्य सहयोग करें तो नदी से नदी जोड़ो योजना लाकर बाढ़ और सूखे के हालात से निपटा जा सकता है। परंतु इस योजना में सभी राज्यों को आपसी सहयोग करने की जरूरत है। तब की केंद्र ( अटल बिहारी सरकार ) सरकार ने देश की 31 नदियों को आपस में जोड़ने के लिए एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी और शेखावत का मानना था कि अगर सभी राज्य सहयोग करते तो योजना शुरू होने के लगभग 5 साल के अंदर योजना धरातल पर उतर जाती।
योजना पर मोहर भी लग चुकी थी बस संसद में पास होना था बाकी पर……
नदी से नदी जोड़ो योजना पर बनाई गई कमेटी की भी मुहर लग चुकी थी बस योजना को संसद में पास ही होना था कि तभी बखेड़ा खड़ा हो गया और योजना अटक गई। पर फिर भी 2014 में आई नरेंद्र मोदी सरकार ने इसे मंजूर किया, और इस योजना में केन- बेतवा आपस में जुड़ने वालीं पहली नदी हैं।
दरअसल उस समय योजना का मकसद था कि देश की 31 नदियों को आपस में जोड़ दिया जाए ताकि बाढ़ के साथ-साथ सूखे की समस्या से भी निजात मिले। परंतु अटल सरकार की इस योजना को सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रकृति से खिलवाड़ बताया था।
योजना से क्या होते फायदे ?
देश में बड़ी संख्या में नदियां हैं। खासकर मानसून के दौरान बाढ़ का पानी बड़ी मात्रा में बेकार चला जाता है। इस योजना से बाढ़ के पानी का इस्तेमाल किया जा सकता था। नदियों को जोड़ने से पीने की पानी की समस्या खत्म हो जाती, यहां तक की सूखे और बाढ़ की समस्या का हल निकलता, आर्थिक समृद्धि का रास्ता भी खुलता, नहरों का विकास होता, इस योजना से सिंचाई करने वाली भूमि भी तकरीबन 15 फीसदी तक बढ़ जाती।
वाजपेई की सरकार जाने के बाद यूपीए सरकार ने नहीं दी इस पर तवज्जो
2004 में वाजपेई की सरकार के चले जाने के बाद मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इस योजना पर कोई तवज्जो नहीं दी । 2009 में दोबारा से मनमोहन सिंह की सरकार यानी यूपीए 2 सरकार ने भी इस योजना पर कोई तवज्जो नहीं दी। यूपीए सरकार में पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश ने तो इस परियोजना को ही घातक बताया था। 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के पहले ही अप्रैल 2014 में मोदी ने बिहार की एक चुनावी रैली के दौरान सोशल मीडिया पर ट्वीट कर लिखा था नदियों को जोड़ने का अटल जी का सपना हमारा भी सपना है, और यह हमारे मेहनती किसानों को ताकत दे सकता है।
वही इस योजना के खिलाफ कुछ लोग कोर्ट की शरण में भी गए थे, जिसका फैसला फरवरी 2012 में आया था। इस फैसले में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एचएस कपाड़िया और स्वतंत्र कुमार की सुप्रीम कोर्ट खंडपीठ ने कहा था यह कार्यक्रम (नदी से नदी जोड़ो) राष्ट्र हित में है। उन्होंने अपने फैसले में इसके लिए एक विशेष कमेटी बनाने का आदेश भी दिया था।
मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली परियोजना के तौर पर मध्य प्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व के भीतर स्थित धोदन के पास के नदी से सालाना 108 करोड़ घन मीटर पानी निकालकर उत्तर प्रदेश में 221 किलोमीटर दक्षिण में स्थित बेतवा नदी तक पहुंचाने का प्लान बना था।
भूजल स्तर बढ़ाने के लिए नदियों को जोड़ने के बजाय अन्य छोटे विकल्प अपनाने चाहिए विशेषज्ञ
जल पुरुष के नाम से पहचाने जाने वाले डॉक्टर राजेंद्र सिंह का इस मामले पर कहना है की नदी से नदी जोड़ो योजना इसलिए कारगर नहीं हो पा रही है क्योंकि भारत में पानी तीन अधिकारों में बटता है। नदियों में बहने वाले जल पर केंद्र सरकार का हक है तो राज्य में बरसने वाले जल पर राज्य सरकार का हक है और तीसरा हक नगर निगम और पंचायत का है इसलिए नदियों को आपस में जोड़ना लड़ाई करने जैसा है। उनका मानना है की नदियों को आपस में जोड़ने से एक बड़ा पर्यावरण संकट पैदा हो सकता है। डॉक्टर सिंह कहते हैं लिंकिंग ऑफ रिवर की जगह लिंकिंग ऑफ हार्ट की जरूरत है। नदियों को जोड़ने से ना तो सुखा रुकेगा और ना ही बाढ़ से निजात दिलाई जा सकेगी।
वही पर्यावरण विद् चंडी प्रसाद भट्ट का मानना था की नदियों को आपस में जोड़ना अंतिम विकल्प होना चाहिए क्योंकि हर नदी का एक परिस्थितिक तंत्र होता है। ऐसे में नदी के साथ प्रयोग करना उस पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। नदियों से अनेक जीव जंतु स्थानीय लोगों का जीवन यापन चल रहा है इसलिए नदियों को जोड़ने से पहले उससे होने वाले आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक बदलाव पर गहन चिंतन होना चाहिए। वह कहते हैं की नदियों को जोड़ने के बजाय गांव शहर में छोटे-छोटे पानी को इकट्ठा करने के उपाय किए जाने चाहिए। नदियों के आसपास पेड़ पौधे लगाए जाए जिससे बारिश का और तबाही ना मचा सके फिर पौधे ना होने से पानी रुकता नहीं और तबाही मचाता है। उनका मानना है कि हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं इसको रोकना बहुत जरूरी है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो कुछ समय में हिमालय से बहने वाली नदियां खत्म हो जाएगी।
वही मशहूर पर्यावरण विद और नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर का मानना है की नदियों को आपस में जोड़ना पूरी तरीके से अव्यवहारिक है। हर नदी का एक सिस्टम होता है। ऐसे में अगर नदी के पानी को जबरदस्ती कहीं मोड़ा जाएगा तो इससे उसके इकोसिस्टम पर इसका असर होगा। मेघा कहती है 2002 में यह योजना 5 लाख 60 हज़ार करोड रुपए की थी जो 2019 तक आते-आते 10 लाख करोड रुपए से ऊपर की हो चुकी थी। अगर इस तरह से योजना को आगे बढ़ाया गया तो इसमें निजी कंपनियां निवेश करेंगी और पानी पर भी निजी कंपनियों का हक हो जाएगा। वह कहती है कि सरकार का गंगा के पानी को सिर्फ 20 फ़ीसदी रोकने का प्लान है। मगर सिर्फ 20 फ़ीसदी रोकने से बाढ़ कैसे रुक जाएगी।
नदी जोड़ो योजना के नुकसान क्या है?
हर एक योजना के जितने फायदे होते हैं उतने ही नुकसान भी होते हैं। योजना के लाभ के साथ उसके दुष्प्रभाव को भी ध्यान में रखना जरूरी होता है। नदिया शुरू से हमारे प्रक्रति का अभिन्न अंग मानी गई है, ऐसे में यह योजना एक सवाल को खड़ा कर देती है कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ कितना सही और कितना गलत है? उदाहरण के लिए जैसे गंगा के पानी को विंध्य के उपर उठाकर कावेरी की और ले जाने में काफी ज्यादा लागत आएगी और इसके लिए बड़े-बड़े डीजल पम्पों का इस्तेमाल करना होगा, 4.5 लाख लोगों को लगभग अपनी जगह छोड़नी पड़ती। यहां तक की 79,292 जंगल भी पानी में डूब जाते। नदी जोड़ो परियोजना को पूरा करने के लिए कई बड़े बाँध, नहरें और जलाशय बनाने पड़ते जिससे आस पास की भूमि दलदली हो जाती और कृषि योग्य नहीं रह जाती। जिससे खाद्यान उत्पादन में भी कमी आ सकती थी।
नदी जोड़ो योजना है घातक
मेनका गांधी ने एक समय पर नदी जोड़ो योजना को घातक बताया था। उन्होंने यह तक कहा था कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई को इस योजना पर काम करने के लिए उन्होंने खुद ही रोका था। प्रियंका गांधी का कहना है कि “नदियों को जोड़ने का कोई सवाल ही नहीं है। दुनिया में इससे खराब कोई योजना नहीं हो सकती। हर नदी का अपना पारिस्थितिकी तंत्र, अपनी मछलियाँ, अपना पीएच मान होता है। अगर आप एक नदी को दूसरी नदी से जोड़ेंगे तो दोनों ही खत्म हो जाएँगी। किसी गलतफहमी में न रहें।”
उन्होंने यह भी कहा कि “आपको 10-15 लाख एकड़ जमीन की जरूरत होगी जो बर्बाद हो जाएगी। इतनी जमीन कौन देगा?”
सरकार जहां हर साल बाढ़ आने के बाद मानव जीवन को बचाने के लिए अरबों रुपए खर्च कर देती है, तो सवाल यह है कि सरकार ऐसी कोई योजना क्यों नहीं लाती जिससे मानसून के सीजन में रोड पर पानी ना भरे और बाढ़ का खतरा लोगों पर ना मंडराए। हर साल बरसात के समय लोगों को कई सारी मुसीबत का सामना करना पड़ता है। कई लोगों की तो जान तक चली जाती है, अब सवाल यह उठता है कि मुसीबत आने से पहले ही उसका समाधान क्यों ना करा जाए? समाधान भी ऐसा हो जिससे ज्यादातर लोगों का हित बैठता हो तो हर व्यक्ति या राज्य सहयोग करने को राजी हो जाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी सरकार पार्ट 3 में ऐसी कोई योजना बनेगी जिस तरीके से मोदी सरकार ने पार्ट 2 में कई कड़े फैसले लिए उसी तरीके से पार्ट 3 में भी कोई ऐसा फैसला लिया जाएगा जो आम जनमानस के लिए फायदेमंद साबित होगा।
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