नक्सलवाद पर निर्णायक प्रहार : लोकतंत्र की जीत का समय
-सुनील कुमार महला
हाल ही में ओडिशा के कंधमाल में मुठभेड़ के दौरान 6 और नक्सली मारे गए। उपलब्ध जानकारी के अनुसार नक्सली कमांडर व एक करोड़ का इनामी गणेश उइके,जो सैंट्रल कमेटी मेंबर था, भी इस मुठभेड़ में मारा गया। वास्तव में, गणेश उइके को कंधमाल जिले में खास खुफिया सूचनाओं के आधार पर चलाए गए नक्सल विरोधी अभियान के दौरान मारा गया है और इस संबंध में स्वयं हमारे देश के केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक्स पर इसकी जानकारी दी है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार सेंट्रल कमेटी का सदस्य उइके तीन दशक तक छत्तीसगढ़, आंध्र, तेलंगाना के साथ ही ओडिशा में सक्रिय रहा था तथा उस पर 1.10 करोड़ का बड़ा इनाम था। कहना ग़लत नहीं होगा कि उसकी मौत नक्सलियों के खिलाफ अभियान में एक बहुत ही बड़ी सफलता है।
माओवादी हिंसक तंत्र की कमर टूटी:-
वास्तव में, सच तो यह है कि हाल में एक और खूंखार व इनामी माओवादी नेता की मौत के साथ ही ओडिशा में माओवादी हिंसक तंत्र की कमर टूट गई है। पाठकों को बताता चलूं कि कंधमाल जिले के चाकपाड़ थाना क्षेत्र में 25 दिसंबर 2025 गुरुवार तड़के सुरक्षा बलों के साथ हुई गोलीबारी में गणेश उइके के अलावा एक महिला कैडर सहित तीन नक्सली को ढेर कर दिया गया। उल्लेखनीय है कि उइके की गिनती बर्बर नक्सलियों में होती थी और सरकार द्वारा बार-बार चेतावनी व सलाह के बावजूद उसने अराजकता,हिंसा का रास्ता नहीं छोड़ा था। अगर वह समर्पण कर देता तो उसकी जान बच सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और मारा गया। हाल के समय में जिस नक्सली को सुरक्षा बलों ने मार गिराया, वह अत्यंत खतरनाक था और देश की सुरक्षा, लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा आम नागरिकों के लिए गंभीर खतरा बना हुआ था। ऐसे व्यक्ति का अंत होना संविधान की दृष्टि से भी उचित है, क्योंकि राज्य का यह कर्तव्य है कि वह कानून-व्यवस्था बनाए रखे और नागरिकों के जीवन व अधिकारों की रक्षा करे।साथ ही, समाज के नजरिए से भी यह कार्रवाई सही ठहराई जा रही है, क्योंकि इससे हिंसा, आतंक और भय के माहौल पर रोक लगती है तथा शांति और स्थिरता स्थापित करने में मदद मिलती है।सरल शब्दों में कहें तो ऐसे खतरनाक नक्सली का मारा जाना कानून और सामाजिक हित दोनों के लिहाज से सही है।
नक्सलवाद से निपटने हेतु सरकार की बहुआयामी नीतियां:-
यहां पाठकों को बताता चलूं कि सरकार नक्सल समस्या के समाधान के लिए केवल सुरक्षा बलों की कार्रवाई तक सीमित नहीं है, बल्कि नक्सलियों को आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित करने हेतु बहुआयामी रणनीति अपना रही है। केंद्र और राज्य सरकारों ने नक्सलियों के आत्मसमर्पण एवं पुनर्वास हेतु विभिन्न नीतियां लागू की हैं, जिनके तहत हथियार डालने वाले नक्सलियों को आर्थिक सहायता, आवास, रोजगार, विभिन्न कौशल प्रशिक्षण, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी अनेक तरह की सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। कई मामलों में कानूनी सहायता और लंबित मामलों में राहत तक भी दी जाती है, ताकि वे बिना भय के समाज की मुख्यधारा में लौट सकें और सामान्य व अच्छा जीवन जी सकें। इसके साथ ही प्रशासन, पुलिस और जनप्रतिनिधियों द्वारा संवाद, जनअपील और परिवारजनों के माध्यम से नक्सलियों तक विश्वास का संदेश पहुंचाया जाता है। आज नक्सल प्रभावित इलाकों में विभिन्न बुनियादी सुविधाएं जैसे कि सड़क, बिजली, पानी, स्कूल(इंफ्रास्ट्रक्चर ) अस्पताल और रोजगार योजनाओं के जरिए विकास को गति दी जा रही है, जिससे स्थानीय लोगों की नाराजगी कम हो और उग्रवाद की जमीन कमजोर पड़े। ‘सुरक्षा, विकास और विश्वास’ की नीति के तहत आत्मसमर्पण करने वालों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है और उन्हें समाज में सम्मानजनक जीवन देने का प्रयास किया जाता है। इन प्रयासों का सकारात्मक परिणाम यह है कि हाल के वर्षों में कई क्षेत्रों में नक्सल हिंसा में अभूतपूर्व रूप से कमी आई है और बड़ी संख्या में नक्सलियों ने हिंसा छोड़कर आत्मसमर्पण किया है।
सिमटी नक्सल संगठन की संख्या:-
बहरहाल, मीडिया में उपलब्ध जानकारी के अनुसार बीते दो दिनों में छह नक्सली वहां ढेर हो चुके हैं। उल्लेखनीय है कि तेलंगाना के नलगोंडा जिले के चेंदूर मंडल के पुल्लेमाला गांव का रहने वाला गणेश उइके 7 नामों पक्का हनुमंत, रूपा, राजेश तिवारी, चमरू दादा, गजराला रवि और सोमरू के नाम से भी जाना जाता था। कितनी बड़ी बात है कि वह 69 साल की उम्र में भी लाल आतंक(नक्सलवाद) का झंडा उठाए हुए था। यहां पर यह भी गौरतलब है कि साल 2025 में नक्सल संगठन में 22 सेंट्रल कमेटी मेंबर थे तथा साल के अंत तक यह संख्या 3 पर आकर सिमट चुकी है। उइके के मारे जाने के बाद अब संगठन (नक्सलियों का शीर्ष नेतृत्व) बिखर चुका है। मई 2025 में अबूझमाड़ में सेंट्रल कमेटी के महासचिव बसव राजू के मारे जाने के बाद फोर्स को लगातार सफलता मिलती रही तथा बड़ी संख्या में सेंट्रल कमेटी के सदस्य इस दौरान मारे गए। यहां पर यह भी ध्यान देने की बात है, अभी 23 दिसंबर 2025 को ही 22 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया था, लेकिन 69 साल की उम्र हो जाने के बावजूद उइके बंदूक रखने को तैयार नहीं हुआ और यही वजह है कि वह अपने अंजाम को प्राप्त हुआ।
केन्द्र सरकार की माओवाद के संबंध में स्पष्ट नीतियां:-
वास्तव में केंद्र सरकार की नीति और रणनीति माओवादी हिंसा को लेकर बहुत स्पष्ट है। दरअसल,हमारे देश में माओवादी (या नक्सली) हिंसा के खिलाफ सरकार की नीतियाँ बहुमुखी रणनीति, जैसा कि ऊपर भी इस आलेख में चर्चा कर चुका हूं, पर आधारित हैं, जिसमें सुरक्षा-कदम, विकास-कार्य, आत्मसमर्पण-और-पुनर्वास कार्यक्रम और सामाजिक सहभागिता शामिल हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि पिछले कुछ समय से सरकार ने माओवादी हिंसा के खिलाफ ‘जीरो टॉलरेंस'(शून्य सहनशीलता) की नीति अपनाई है, जिसका लक्ष्य माओवादी उपस्थित क्षेत्रों में हिंसा को समाप्त करना है।इस नीति के तहत आज शीर्ष माओवादी कमांडरों और कैडरों को निष्क्रिय/हत्या/गिरफ्तार किया जा रहा है, माओवादी संपत्ति और वित्तीय सहायता को जब्त किया जा रहा है तथा सुरक्षा बलों का समन्वित अभियान चलाकर हिंसात्मक गतिविधियों को रोकने का प्रयास किया जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप माओवादी हिंसा में कमी दर्ज की गई है और प्रभावित ज़िलों की संख्या लगातार घट रही है।माओवादी प्रभावित क्षेत्रों में विकास-कार्यों( जैसे कि सड़क, पुल, मोबाइल एवं इंटरनेट कनेक्टिविटी तथा स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं का विस्तार)पर जोर दिया गया है ताकि अधारभूत सेवाओं और सरकारी उपस्थिति को मजबूत किया जा सके। आज सरकार और प्रभावित राज्य सरकारें मिलकर माओवादी कैडरों को हथियार छोड़कर समाज की मुख्यधारा में लौटने के लिए उन्हें आत्मसमर्पण-और-पुनर्वास के लिए प्रोत्साहित कर रही है। इतना ही नहीं,सरकार ने कुछ क्षेत्रों में समुदाय-पुलिस सहयोग, स्वास्थ्य शिविर, खेल और कौशल कार्यशालाओं जैसे कदम उठाएं हैं ताकि स्थानीय जनता का विश्वास जीता जा सके और हिंसा के समर्थन को कम किया जा सके। सरकार द्वारा आज माओवादी संगठन बैन्ड/अवैध घोषित किए गए हैं और उनके सहयोग/प्रचार को दंडनीय बनाया गया है।राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) जैसे संस्थानों को वित्तीय नेटवर्क व उग्र गतिविधियों की निगरानी के लिए सुदृढ़ किया गया है। वास्तव में सरकार का दीर्घकालिक माओवादी हिंसा को न केवल काबू में करना है, बल्कि इसे मार्च 2026 तक पूरी तरह समाप्त करना है। अंत में यही कहूंगा कि बीतते वर्ष में यानी कि वर्ष 2025 में माओवाद के खिलाफ सरकार और सुरक्षा बलों को बड़ी सफलता मिली है। माओवादियों का एक शीर्ष नेता बसवराजू मई-2025 में मारा गया, उसके बाद हिडमा और अब उइके के मारे जाने से नक्सली संगठन की रीढ़ लगभग टूट चुकी है। जो बचे हुए नेता/कैडर हैं, उनके लिए भी अब ज्यादा समय नहीं बचा है, जैसा कि केंद्र सरकार ने यह साफ संकल्प लें लिया है कि अगले साल यानी कि वर्ष 2026 के मार्च तक माओवाद को देश से पूरी तरह खत्म कर दिया जाएगा। कहना ग़लत नहीं होगा कि सरकार की इसी दृढ़ता(दृढ़ संकल्प और निश्चय) के कारण ही नक्सल प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बलों की मौजूदगी और सक्रियता पहले की तुलना में काफी हद तक बढ़ी है। ओडिशा में चलाए गए अभियान से यह साफ दिखता है कि सरकार किसी भी तरह की चूक नहीं चाहती। एसओजी, सीआरपीएफ और स्थानीय पुलिस की कई टीमें जंगलों में तैनात हैं, ताकि जवानों को कम से कम नुकसान हो और माओवादियों को कड़े से कड़ा जवाब दिया जा सके। ऐसे में बचे हुए माओवादियों के लिए सबसे बेहतर रास्ता यही है कि वे हिंसा छोड़कर आत्मसमर्पण करें, क्यों कि समाज सुधार और संघर्ष के और भी शांतिपूर्ण रास्ते हो सकते हैं। पिछले चार-पांच दशकों की हिंसा से उन्हें और समाज को आखिर क्या मिला, इस पर भी विचार करना चाहिए।सच तो यह है कि बिना हिंसा पर काबू पाए विकास संभव नहीं है।
आज 126 जिलों से रह गये मात्र 11 :-
यह भी एक बड़ी सच्चाई है कि 2014 में जहां 126 जिले नक्सल प्रभावित थे, आज उनकी संख्या घटकर केवल 11 रह गई है। सबसे ज्यादा प्रभावित जिले 36 से घटकर सिर्फ तीन बचे हैं। वास्तव में, आज देश से नक्सली हिंसा का डर काफी हद तक कम हुआ है। बीते साल में 317 से ज्यादा नक्सली मारे गए, 800 से अधिक गिरफ्तार हुए और करीब 2,000 ने आत्मसमर्पण किया। यह सफलता दिखाती है कि माओवाद के अंत की दिशा में देश एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुका है। निष्कर्ष के तौर पर यह बात कही जा सकती है कि नक्सलवाद एक ऐसी हिंसक और विध्वंसक विचारधारा है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था, संवैधानिक मूल्यों और विकास की प्रक्रिया को नुकसान पहुँचाती है। यह न केवल निर्दोष नागरिकों और सुरक्षा बलों की जान लेता है, बल्कि जिन इलाकों में इसका प्रभाव रहता है, वहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, उद्योग और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं के विस्तार में भी बाधा बनता है।जब तक नक्सलवाद जैसे सशस्त्र आंदोलन मौजूद रहते हैं, तब तक देश और समाज में न तो शांति स्थापित हो सकती है और न ही समावेशी विकास संभव है। इसलिए इसे केवल कानून-व्यवस्था की समस्या मानकर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक न्याय और विकास से जुड़ा मुद्दा मानते हुए समाप्त करना आवश्यक है।हालाँकि, इसका समाधान सिर्फ सैन्य कार्रवाई तक सीमित नहीं होना चाहिए। नक्सलवाद की जड़ों में मौजूद गरीबी, पिछड़ापन, प्रशासनिक उपेक्षा और असंतोष को भी दूर करना उतना ही जरूरी है। सख्त कार्रवाई के साथ संवाद, विकास और विश्वास-इन तीनों के संतुलन से ही देश स्थायी रूप से प्रगति और उन्नयन के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है।
सुनील कुमार महला,
फ्रीलांस राइटर, कॉलमिस्ट व युवा साहित्यकार,
उत्तराखंड।





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