राजनीति में नैतिकता का दिन प्रतिदिन हो रहा पतन
आजकल भारतीय राजनीति में असामान्य घटनाएं इतनी आम हो गई हैं कि इन पर कोई चौंकता नहीं। हालांकि, राजनीति में अजीब घटनाओं का इतिहास नया नहीं है। हम पहले भी देख चुके हैं कि कम सांसदों के बावजूद चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने, या फिर झारखंड में निर्दलीय नेता मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बने। बिहार में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता नीतीश कुमार अगले साल मुख्यमंत्री के रूप में अपना पांचवां साल पूरा करेंगे। राजनीति के शास्त्र का अध्ययन करने वाले विद्यार्थी इस असमानता को देखकर भ्रमित हो सकते हैं, क्योंकि अब तक यही माना जाता था कि बहुमत प्राप्त करने वाली सबसे बड़ी पार्टी का नेता ही मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनता है।
हालांकि, यह अजूबा सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव परिणाम आए हुए एक सप्ताह से ज्यादा समय हो चुका है, लेकिन अब तक नई सरकार का गठन नहीं हो पाया है। राज्य में कामकाज कार्यवाहक मुख्यमंत्री के भरोसे चल रहा है। यह परिपाटी आमतौर पर यह रही है कि समय पर सरकार न बन पाने की स्थिति में राज्यपाल शासन लागू होता है, लेकिन इस पर कोई चर्चा नहीं हो रही है।
झारखंड में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने शपथ तो ली, लेकिन मंत्रिमंडल गठन में देरी हो रही है। उनका मंत्रिमंडल अब तक आकार नहीं ले सका है, और इस मुद्दे पर कोई ठोस निर्णय नहीं लिया जा सका है। इंडी ब्लॉक की चार पार्टियों में से सीपीआई (एमएल) ने मंत्रिमंडल में शामिल होने से मना कर दिया है, जबकि आरजेडी कोटे से मंत्री किसे बनाया जाएगा, यह भी अस्पष्ट है। कांग्रेस, जो इंडी ब्लॉक में दूसरे नंबर की पार्टी है, अभी तक अपने संभावित मंत्रियों के नामों पर विचार कर रही है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का उदाहरण भी सामने है, जहां उन्होंने जेल में रहते हुए भी अपनी सरकार चलाई। उनके मंत्रियों ने कई महीने जेल में रहने के बाद इस्तीफा दिया। वहीं, कर्नाटका के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने इस्तीफा देने से इंकार कर दिया, भले ही उनके खिलाफ मामला चल रहा हो। कानूनी रूप से वे इस्तीफा देने के लिए बाध्य नहीं हैं, लेकिन राजनीति में नैतिकता की परंपरा रही है कि ऐसी स्थिति में नेता नैतिक आधार पर इस्तीफा देते रहे हैं।
अब ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय राजनीति में नैतिकता का न तो कोई सम्मान बचा है और न ही उसकी कोई आवश्यकता महसूस की जा रही है।
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