बीएसएनएल के बाद अब सरकारी स्कूलों की बारी
डॉ. प्रियंका सौरभ
जब भी कोई सरकार राष्ट्रहित की बातें करती है, तो नागरिकों को यह समझना चाहिए कि इन कथित राष्ट्रहितों से वास्तव में लाभ किसका हो रहा है। आज का भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ जनसेवाओं को योजनाबद्ध ढंग से निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। जिसे हम सुधार कह रहे हैं, वह दरअसल एक सुनियोजित विनिवेश है — जिसमें जनता के अधिकारों को धीरे-धीरे छीनकर बाजार की वस्तुओं में तब्दील किया जा रहा है। इस पूरी प्रक्रिया का सबसे बड़ा उदाहरण भारत संचार निगम लिमिटेड यानी बीएसएनएल है, और अब यही प्रयोग भारत के सरकारी स्कूलों पर किया जा रहा है।
बीएसएनएल कभी देश के कोने-कोने तक पहुंचने वाली संचार प्रणाली थी। पहाड़ों, सीमावर्ती क्षेत्रों और ग्रामीण इलाकों तक जहाँ कोई निजी कंपनी नहीं पहुंच पाती थी, वहाँ भी बीएसएनएल की सेवाएं थीं। लेकिन सरकारों ने धीरे-धीरे उसकी गति को रोकना शुरू किया। नई तकनीकें लाने से उसे रोका गया, 4जी सेवा देने में टालमटोल की गई, कर्मचारियों की संख्या घटाई गई, और वित्तीय सहायता सीमित कर दी गई। नतीजा यह हुआ कि देश की एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक कंपनी धीरे-धीरे कमजोर होती गई। इसके समानांतर जिओ जैसी निजी कंपनियों को हर स्तर पर प्रोत्साहन दिया गया। उन्हें स्पेक्ट्रम भी सस्ते में मिला, नियमों में ढील भी दी गई और प्रशासनिक मदद भी। अंततः बीएसएनएल को कमजोर कर दिया गया और निजी कंपनियां बाजार पर छा गईं।
यही परिदृश्य अब शिक्षा के क्षेत्र में दोहराया जा रहा है। सरकारी स्कूलों को योजनाबद्ध तरीके से बदनाम किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि वहाँ पढ़ाई का स्तर खराब है, छात्र कम हैं, परिणाम अच्छे नहीं आते। लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि इन स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या कितनी है, कितने वर्षों से स्थायी नियुक्तियाँ रुकी हुई हैं, स्कूल भवन कितने जर्जर हैं, पुस्तकालय और प्रयोगशालाएँ कहाँ हैं। बच्चों को स्कूल तक पहुँचाने के लिए परिवहन की क्या व्यवस्था है? यह सब कुछ जानबूझकर उपेक्षित किया गया है, ताकि एक छवि बनाई जा सके कि सरकारी स्कूल असफल हैं।
जब सरकारी स्कूल कमजोर दिखेंगे तो समाज का भरोसा स्वतः कम होगा। फिर अभिभावक मजबूरीवश अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने लगेंगे, भले ही उनकी आर्थिक स्थिति इसकी अनुमति न देती हो। यह एक बहुत ही गहरी और खतरनाक रणनीति है। पहले सेवाओं को कमजोर करो, फिर जनता को विकल्पहीन बनाओ, और अंततः निजी सेवाओं की ओर धकेलो।
आज जितने भी बड़े निजी स्कूल हैं, उनके पीछे कोई न कोई राजनीतिक या प्रशासनिक व्यक्ति खड़ा है। किसी मंत्री की पत्नी का ट्रस्ट, किसी पूर्व सांसद का चैरिटेबल फाउंडेशन, किसी नौकरशाह का एनजीओ — यही वो नाम हैं जो प्राइवेट स्कूलों की चकाचौंध के पीछे हैं। ऐसे में जब शिक्षा नीति बनाई जाती है, तो लाभ इन्हीं को पहुँचता है। सरकार खुद नीति बनाती है, और उन्हीं नीतियों से उनके अपने स्कूलों को फायदा होता है।
अब स्थिति यह हो गई है कि गरीब और मध्यम वर्गीय परिवार भी भारी शुल्क भरकर अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। स्कूलों में प्रवेश शुल्क, मासिक शुल्क, वार्षिक शुल्क, यूनिफॉर्म, किताबें, स्मार्ट क्लास, ट्रांसपोर्ट — हर चीज़ पर पैसा लिया जाता है और शिक्षा को उत्पाद बनाकर बेचा जाता है। यदि कोई माता-पिता फीस देने में देरी करें तो बच्चे को अपमानित किया जाता है या स्कूल से निकालने की धमकी दी जाती है। क्या यही शिक्षा का उद्देश्य है?
इसी बीच सरकारी स्कूलों को ‘मर्ज’ करने की नीति लाई जाती है। जहाँ बच्चों की संख्या कम हो, उन्हें पास के स्कूल में मिलाने का सुझाव आता है। लेकिन यह नहीं देखा जाता कि क्या दूरी ज़्यादा है? क्या वहाँ पर्याप्त शिक्षक हैं? क्या छात्राओं की सुरक्षा का ध्यान रखा गया है? नीतियाँ केवल आंकड़ों में अच्छी दिखती हैं, ज़मीन पर नहीं।
आज शिक्षा का अधिकार कानून भी केवल एक कागज़ी दस्तावेज़ बन कर रह गया है। विद्यालय प्रबंधन समितियाँ केवल नाम की हैं। सरकारें अपने बजट में शिक्षा को प्राथमिकता नहीं देतीं। खर्चों में कटौती की जाती है, शिक्षकों की भर्ती वर्षों तक नहीं होती, और जो शिक्षक हैं, उन्हें गैर-शैक्षणिक कार्यों में लगा दिया जाता है। कभी चुनाव की ड्यूटी, कभी जनगणना, कभी टीकाकरण अभियान — शिक्षकों से हर काम करवाया जाता है सिवाय पढ़ाने के।
इन सबके बीच अंग्रेज़ी भाषा को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है जैसे बिना अंग्रेज़ी बोले जीवन असंभव है। निजी स्कूलों ने अंग्रेज़ी माध्यम को श्रेष्ठता का पर्याय बना दिया है। बच्चे यदि अंग्रेज़ी में दो वाक्य बोल लें तो उन्हें स्मार्ट और सफल मान लिया जाता है, भले ही उनके पास विषय की समझ न हो। वहीं सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाला बच्चा चाहे जितना बुद्धिमान हो, पर यदि वह हिंदी में बात करता है, तो उसे पिछड़ा समझा जाता है। यह मानसिक गुलामी की पराकाष्ठा है।
सरकारी स्कूल केवल भवन नहीं हैं, ये समाज के सबसे पिछड़े और वंचित वर्गों के लिए शिक्षा की आशा हैं। ये बच्चे जिनके माता-पिता खेतों में मजदूरी करते हैं, रिक्शा चलाते हैं या घरेलू कामगार हैं, उनके लिए शिक्षा का एकमात्र जरिया सरकारी स्कूल ही हैं। यदि इन स्कूलों को खत्म किया गया, तो यह शिक्षा का नहीं, सामाजिक न्याय का अपमान होगा।
यहाँ सवाल केवल सुविधाओं का नहीं, बल्कि नीयत का है। सरकार चाहे तो सरकारी स्कूलों को मॉडल स्कूल बना सकती है। शिक्षक, पुस्तकालय, लैब, स्मार्ट क्लास, खेल सामग्री और परिवहन जैसी सुविधाएँ देकर इन्हें निजी स्कूलों से बेहतर बनाया जा सकता है। लेकिन ऐसा करना सत्ताधारी लोगों के निजी स्वार्थों के खिलाफ जाएगा, इसलिए यह नहीं होता।
समस्या यह है कि हमने शिक्षा को मुनाफे का साधन मान लिया है। अब यह अधिकार नहीं, सेवा हो गई है — और सेवा भी ऐसी, जो केवल पैसे वालों के लिए उपलब्ध है। यह समाज को दो भागों में बाँट रही है — एक वो जो अंग्रेज़ी में महंगी शिक्षा लेकर शहरी नौकरी करेगा, और दूसरा वो जो टूटी छतों के नीचे हिंदी में पढ़ाई कर गाँव में ही मजदूरी करेगा।
अब वक्त आ गया है कि हम चुप न रहें। यदि हमने अभी आवाज़ नहीं उठाई, तो आने वाली पीढ़ियाँ केवल एक वर्ग विशेष के हाथों की कठपुतली बनकर रह जाएँगी। हमें मांग करनी होगी कि सरकारी स्कूलों को बंद करने के बजाय उन्हें सशक्त किया जाए। हर गाँव, हर कस्बे में शिक्षा के स्तंभ को मजबूत किया जाए। शिक्षकों की भर्ती समय पर हो, उन्हें केवल पढ़ाने का काम दिया जाए और विद्यालयों को संसाधन संपन्न बनाया जाए।
हमें यह समझना होगा कि शिक्षा का निजीकरण केवल आर्थिक नहीं, वैचारिक गुलामी का रास्ता है। जब एक वर्ग को सोचने, सवाल करने, और अपने अधिकार पहचानने की शिक्षा नहीं मिलेगी, तब लोकतंत्र केवल वोट की मशीन बनकर रह जाएगा।
बीएसएनएल के साथ जो हुआ वह एक आर्थिक खेल था, लेकिन सरकारी स्कूलों को समाप्त करना एक सामाजिक और वैचारिक अपराध होगा। यदि हम चाहते हैं कि देश की अगली पीढ़ी स्वतंत्र, सशक्त और समतामूलक सोच रखे, तो हमें आज सरकारी शिक्षा व्यवस्था को बचाना ही होगा।
डॉ. प्रियंका सौरभ
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