कड़वी बात : प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारिता पर मंडराता ‘भोजन और गिफ्ट कल्चर’ का साया
“हम प्रेस को बुलाते हैं या भोजन प्रेमियों को?” : एक आयोजक सोशल मीडिया पर
जब पत्रकार की नजर खबर से हटाकर गिफ्ट और दावत पर होगी , तो पत्रकारिता जनता की आवाज़ नहीं, भोजनालय की मेज बन जाएगी।
आयोजकों को डिसाइड करना होगा कि वह क्वालिटी के लोग चाहते हैं या फिर क्वांटिटी में लोग चाहते हैं !
पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारिता की साख पर एक नई परत चढ़ती जा रही है—‘भोजन और गिफ्ट संस्कृति’। ज्यादातर आयोजकों की प्रेस कॉन्फ्रेंस अब खबरों से ज़्यादा खानपान और तोहफों की चर्चा के लिए जानी जाने लगी हैं। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि ज्यादातर प्रेस कॉन्फ्रेंस के निमंत्रण पत्रों में बाकायदा लिखा जाता है — “भोजन की व्यवस्था रहेगी” — जैसे कि खबर नहीं, खाने का आयोजन हो।
यह सवाल अब पूरे मीडिया जगत के सामने है — क्या पत्रकारों को खबरों से ज़्यादा भोजन की परवाह रह गई है?
‘निमंत्रण में भोजन की बात, पर खबरों में सन्नाटा’
दरअसल, आयोजक सिर्फ वही लिखते हैं जो उन्हें अनुभव से समझ आता है। कई बार ऐसा देखा गया है कि जिन प्रेस कॉन्फ्रेंस में भोजन या गिफ्ट का जिक्र होता है, वहां पत्रकारों की भीड़ उमड़ पड़ती है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि उतनी ही संख्या में खबरें अखबारों, टीवी चैनलों या सोशल मीडिया पर दिखाई नहीं देतीं।
ऐसे आयोजक अब खुद कहने लगे हैं — “हम प्रेस को बुलाते हैं या भोजन प्रेमियों को?”
‘गिफ्ट है क्या?’— सबसे पहले यही सवाल
कई आयोजकों का कहना है कि जैसे ही प्रेस कॉन्फ्रेंस शुरू होती है, कुछ पत्रकार अपने साथियों को फोन कर पर कर लेते हैं कि — “कुछ गिफ्ट-विफ्ट है क्या?” अगर जवाब हां में हो तो कॉन्फ्रेंस खत्म होते-होते भीड़ अचानक बढ़ जाती है। ये वे चेहरे होते हैं जिन्हें खबरों की नहीं, गिफ्ट लेने की फिक्र रहती है , उनको इस बात की चिंता रहती हैं कि कहीं वह लेते ना हो जाए और गिफ्ट खत्म ना हो जाए , और आयोजन स्थल पर पहुंचने के बाद बातें इतनी लंबी चौड़ी करेंगे की शायद मुख्यमंत्री का रोजाना वह इंटरव्यू करते हो । दरअसल ऐसी बातें वह लोग इसलिए करते हैं ताकि आयोजक उन्हें पहचान लें और अगली बार प्रेस कांफ्रेंस करने के पहले उनको निमंत्रण देना ना भूल जाएं । और ऐसे लोग प्रेस कॉन्फ्रेंस में आयोजन का नंबर लेना कभी नहीं भूलते ।
ऐसे पत्रकार कॉन्फ्रेंस में पहुँचकर अपनी ऐसी ऐसी ‘सीनियर’ छवि गढ़ने की कोशिश करते हैं, बातें बड़ी-बड़ी करते हैं, लेकिन उनके अखबारों में या फिर किसी भी सोशल मीडिया या टीवी चैनल पर अगले दिन खबर का कोई अता-पता नहीं होता। पता हो भी कैसे क्योंकि ना तो किसी अखबार से जुड़े होते हैं ना ही किसी डिजिटल मीडिया चैनल से । हां दिखावे के लिए ऐसे लोगों ने सोशल मीडिया पर अपना एक चैनल जरूर बनाया होता है इस पर दिखावे के लिए कुछ ना कुछ व्यूज आ जाते हैं । यह अलग बात है कि यह व्यूज भी नकली होते हैं क्योंकि वह जहां बैठे वहीं पर अपनी खबर को खोलकर लाइक कर दिया करते हैं । बात बहुत कड़वी है पर यही सच है ।
‘पहली बार आयोजन करने वालों के लिए सीख’
जो आयोजक पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं, उन्हें यह सच्चाई कड़वी लगती है। उन्हें एहसास तब होता है जब दो-तीन दिन बीत जाने के बाद भी उन्हें खबरें नहीं मिलतीं, जबकि प्रेस कॉन्फ्रेंस के समय मीडिया कर्मियों की संख्या गिनने लायक नहीं रहती।
एक वरिष्ठ संपादक ने इस प्रवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए कहा
“समस्या आयोजकों की नहीं, हमारी है। जब पत्रकार अपनी प्राथमिकता खबर से हटाकर गिफ्ट और दावत पर रखेंगे, तो पत्रकारिता जनता की आवाज़ नहीं, भोजनालय की मेज बन जाएगी।”
‘आयोजकों को भी करनी होगी पहचान’
अब यह जिम्मेदारी आयोजकों की भी है कि वे समझें कौन पत्रकार है और कौन दिखावे का चेहरा। पहली बार प्रेस कांफ्रेंस करने वाले आयोजक को इस संबंध में परेशानी हो सकती है , पर अब वक्त आ गया है कि लगातार प्रेस कांफ्रेंस करने वाले आयोजकों को इस बात की पहचान करनी होगी कि वाकई में पत्रकार कौन है या फिर वह सिर्फ अपने आयोजन को पत्रकारों की जगह दिखावे की भीड़ का आयोजन बनाना चाहते हैं ।
अक्सर प्रेस कांफ्रेंस करने वाले आयोजकों के लिए कई संपादक सलाह भी देते हैं कि चाहे आपकी प्रेस कॉन्फ्रेंस में लोग काम आएंगे पर जो लोग आएंगे वह क्वालिटी के लोग होंगे । अब यह आयोजकों को डिसाइड करना है कि वह क्वालिटी के लोग चाहते हैं या फिर क्वांटिटी में लोग चाहते हैं !
तो आइए प्रेस कॉन्फ्रेंस को ‘इवेंट मैनेजमेंट’ न बनाकर सूचना के आदान-प्रदान का मंच बनाया जाए। वहीं मीडिया संस्थानों को अपने प्रतिनिधियों की जवाबदेही तय करनी होगी — कि वे खबर के लिए जाएं, न कि निमंत्रण कार्ड पर लिखे “भोजन की व्यवस्था रहेगी” के लिए।
पत्रकारिता कभी समाज का आईना कही जाती थी, पर अब वह खुद ‘भोजन संस्कृति’ के प्रतिबिंब में धुंधली पड़ती जा रही है। सवाल अब सीधा है —
“क्या हमें खबरें लिखने की भूख बची है, या सिर्फ खाने की?”
यह विचार वरिष्ठ पत्रकार रीतेश माहेश्वरी के हैं जरूर नहीं कि आप इस विचार से सहमत हो ।
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