खरी-अखरी: मोदी की खामोशी कहीं देश को अमेरिकी चक्रव्यूह में फ़साना तो नहीं !
कार्पोरेट बिजनेस देखता है, बिजनेस करेंसी देखती है और करेंसी किसी सीमा को नहीं देखती
नरेन्द्र मोदी को सत्ता में बनाये रखने की ताकत जिन कारपोरेट्स के पास है वे सभी कारपोरेट्स अमेरिका के चक्रव्यूह में फंस चुके हैं और नरेन्द्र मोदी की हालत सांप-छछूंदर की बन गई है। देश नरेन्द्र मोदी से पहलगाम घटना में मौत के घाट उतार दिए गए सैलानियों को लेकर सवाल पर सवाल पूछ रहा है और वो खामोश हैं, दूसरी तरफ अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प हैं जिनकी जुबां पर भारत का नाम बार-बार पहले क्रम पर आ रहा है चाहे वह टेरिफ का जिक्र हो या आतंकवाद का या फिर पाकिस्तान का ही क्यों ना हो। साउथ एशिया सामरिक संघर्ष हो या अन्तरराष्ट्रीय कूटनीति में चीन की समुद्री ताकत को चुनौती देने का जिक्र हो तब भी भारत का ही नाम लेते हैं ट्रम्प। ट्रम्प की सारी तोता रटंत टेरिफ और व्यापार को लेकर है, जिसकी डेडलाइन 9 जुलाई 2025 है।
भारत को लेकर अमेरिका के भीतर उठ रहे सवाल हों या ट्रम्प की जुंवा पर भारत का नाम यह उस लडाई की ओर इंगित करता है जो कल तक भारत की सत्ता को ताकत देती थी वही आज उसकी कमजोरी बन गई है। कारपोरेट्स को भी समझ नहीं आ रहा है कि वह किस ओर जाए, एक तरफ कुआं है तो दूसरी तरफ खाई। अमेरिका भारतीय कारपोरेट्स को अपने चक्रव्यूह से बाहर निकालने के लिए जो मांग रहा है भारत उसे दे पाने की स्थिति में है या नहीं है ये दिल्ली सल्तनत के सुल्तान को करना है । भारत से अमेरिका को चाहिए जीएम प्रोडक्ट्स के लिए खुला रास्ता जबकि इस पाबंदी लगी हुई है। 9 जुलाई यानी नया टेरिफ लागू होने से पहले स्टार लिंक की शुरुआत भारत में हो जानी चाहिए। अमेरिकी इलेक्ट्रिक कार पर लगाया जा रहा टेरिफ पूरी तरह से समाप्त किया जाय। भारत ने अभी तक जिस क्रिप्टो करेंसी के लिए अपने दरवाज़े अभी तक बंद रखे हुए है उस दरवाज़े को खोला जाय।
जिस तरह से अमेरिका पाकिस्तान को शह दे रहा है उससे भारत की कूटनीति, विदेश नीति तथा अन्तरराष्ट्रीय संबंधों की पूरी फेहरिस्त डगमगाने लगी है। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर जहां भी जाते हैं वहां उनसे इंटरव्यू के दौरान यह जरूर पूछा जाता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जो कह रहे हैं वो सही है या नहीं, आप उसे मानते हैं या नहीं और विडंबना यह है कि अमेरिका को लेकर एस जयशंकर कुछ कह नहीं पाते हैं। बीते 10 सालों में भारत के कारपोरेट्स और भारत की इकोनॉमी पूरी तरह से अमेरिका परस्त हो गई है। भारत के कारपोरेट्स अमेरिका और दूसरे देशों के बैंकों से पैसा लेकर व्यापार कर रहे हैं उन्हें अंदरूनी तौर पर अमेरिका द्वारा कहा जा रहा है कि जिन-जिन क्षेत्रों में हम चाहते हैं उन क्षेत्रों में आप रेड कार्पेट बिछाने का काम करें। । जिन विदेशी बैंकों से भारतीय कारपोरेट्स ने पैसे लेकर द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों को बड़ा किया है तो क्या उन्हीं कारपोरेट्स को उन्हीं बैंकौ के जरिए चेताया जा रहा है, कि अगर भारत ने हमारी मर्जी से हमारे लिए अपने दरवाजे नहीं खोले तो फिर अमेरिका फर्स्ट के तहत टेरिफ लगाया जायेगा। जो दिखाया और सुनाया जा रहा है उस पर ज्यादा नुक्ताचीनी नहीं है। मगर परदे के पीछे जिसे फिलहाल खुलकर सामने नहीं लाया जा रहा है वह है विट क्वाइन यानी क्रिप्टो करेंसी जिसके तहत अमेरिका अपना सिक्का भारत में चलाना चाहता है।
हाल फिलहाल में भारत के वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल की अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि मंडल और अमेरिकी वाणिज्य सचिव के साथ जो बैठक हुई उसमें शुरुआती दौर में ही यह बात सामने आई कि बीते 4-5 बरस में भारत के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा दुगना हो गया है। 2020-21 व्यापार घाटा तकरीबन 22.73 बिलियन डालर था जो बढ़ते हुए 2024-25 में 41.18 बिलियन डॉलर हो गया है। शायद इसीलिए अमेरिका हरहाल में 8 जुलाई के पहले अपनी चाहतों का ऐलान भारत के मद्देनजर करना चाहता है। जहां अमेरिका की लिस्ट में डिजिटल से जुड़े प्रोडक्ट, सर्विस सेक्टर से जुड़े हुए प्रोडक्ट, इंडस्ट्रियल प्रोडक्ट, इलेक्ट्रिक कार, मेट्रो प्रोडक्ट, जीएम प्रोडक्ट, एग्रीकल्चर प्रोडक्ट, स्टार लिंक, क्रिप्टो करेंसी आदि शामिल हैं वहीं भारत की फेहरिस्त में कपड़ा, रत्न, आभूषण, परिधान, प्लास्टिक, चमड़ा, रसायन, झींगा मछली, केला, अंगूर, तिलहन आदि के प्रोडक्ट शामिल हैं। यूरोपीय यूनियन भी आटोमोबाइल सेक्टर में भारत से दरवाज़ा खुलवाना चाहती है वह भी 2 फीसदी टेरिफ पर लाकर।
भारत की सत्ता के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि कल तक जो कारपोरेट्स उसके साथ खड़े थे अब वही कारपोरेट्स अमेरिका को लेकर उस पर दबाव तो नहीं बनायेंगे ! भारत का एक सच यह भी है कि भारत अभी तक तकरीबन 18 लाख करोड़ रुपये माफ कर चुका है जिसमें से लगभग 11.5 करोड़ रुपये बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट और बड़े कारपोरेट्स हाउस से जुड़े हुए हैं। अगर इसमें पब्लिक सेक्टर के कामर्शियल बैंकों द्वारा दी गई कर्ज माफी को जोड़ दिया जाय तो यह आंकड़ा 25 लाख करोड़ से अधिक हो जायेगा। लेकिन भारत के 20 टापमोस्ट कारपोरेट्स ने अन्तरराष्ट्रीय बैंकों से कर्ज लिया गया है वह तकरीबन 27 लाख करोड़ से ऊपर है और इस कर्जे में कहीं न कहीं भारतीय सत्ता कारपोरेट्स के साथ खड़ी है। सवाल यह है कि क्या अन्तरराष्ट्रीय बैंकों से लिए गए कर्जे की चाबी अमेरिका के पास है ? अगर अमेरिका ने उस चाबी को कस दिया तो क्या कारपोरेट्स तड़पते हुए नजर आयेंगे ? इनका जबाब तो अमेरिका की कार्रवाई देगी। लेकिन एक बात तो तय है कि कतर में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से जब अंबानी ने मुलाकात की थी तो दिल दिमाग में अन्तरराष्ट्रीय धंधा (इंटरनेशनल बिजनेस) रेंग रहा था। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अंबानी (रिलायंस) की पहचान अमेरिका के भीतर गैसोआइन (पेट्रोल) बेचने की है। अंबानी के जितने भी मामले अमेरिका के भीतर फंसे हुए हैं क्या उसकी चाबी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के हाथ में है ?
पाकिस्तान की सरपरस्ती केवल चीन ही नहीं कर रहा है अब तो अमेरिका भी कर रहा है और इसका खुलासा डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका में बैठे – बैठे सीज फायर का ऐलान करते ही कर दिया था। मगर अमेरिका पाकिस्तान को शह देने की परिस्थिति में भी नजरें भारत पर लगाये हुए है। क्योंकि मौजूदा स्थिति में भारत का बड़ा बाजार है, भारत की आर्थिक स्थिति है, पीएम नरेन्द्र मोदी से भारत में क्रिप्टो करेंसी की एंट्री करवाना है। भारत यह मान कर चल रहा था कि इंटरनेट हमारा होगा, डिजिटल इकोनॉमी हमारी होगी, डिजिटल प्रोसेस हमारा होगा, मेक इन इंडिया होगा लेकिन सब कुछ एक झटके में डगमगा गया है। मेक इन इंडिया और डिजिटल इकोनॉमी का नारा फिसल कर अमेरिका की हथेली पर रेंगने लगा है। इसीलिए सबसे बड़ा सवाल कारपोरेट्स को लेकर उस चाबी का है जिससे भारत के भीतर बैठे कारपोरेट्स जो कल तक सत्ता की ताकत थे अब सत्ता के गले की फांस बन रहे हैं। अगर मोदी सत्ता कारपोरेट्स को लेकर अमेरिका से समझौता नहीं करती है तो क्या वाकई भारत के लिए मुश्किल होगी क्योंकि रिपब्लिकन के आने से अमेरिका की राजनीति और व्यापार का तरीका दोनों बदल गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अभी भी मोदी को भले ही माई बेस्ट फ्रेंड कहते हैं लेकिन जुबां पर भारत के साथ आर्थिक समझौता होता है।
क्या स्टार लिंक के जरिए पूरे इंटरनेट का पूरा सिस्टम और भारत के भीतर जो भी जानकारी है (खासतौर पर बैंक एवं सेना से जुड़ी हुई) वो सारी की सारी एक झटके में अमेरिका के पास चली जायेगी और उसके बाद अमेरिका कहीं ज्यादा बड़े सौदेबाजी और बार्गेनिंग की स्थिति में आ जायेगा। वह भी तब जब हम क्वाड में शामिल हैं, जी – 20 में शामिल हैं, ब्रिक्स को लेकर अमेरिका के डालर को बचाने की पहल हमने की, रूस – यूक्रेन युद्ध में हम किसी के साथ खड़े नहीं हुए, हम अमेरिका की नीतियों के साथ खड़े रहे मगर जब हम पर संकट आया तो, आतंकवादी हमला हुआ, पाकिस्तान से दो-दो हाथ हुए और सीधे तौर पर आमने सामने युद्ध की परिस्थिति बनी तो अमेरिका ने अपने हाथ खींच लिए इतना ही नहीं उसने हमें अन्तरराष्ट्रीय मंच पर इस परिस्थिति में लाकर खड़ा कर दिया कि हमें दुनिया भर में अपने डेलीगेट्स भेज कर टेररिज्म पर चर्चा करने भेजना पड़ा। क्या यही कारण तो नहीं है कि दुनिया भर में पीएम के घूमने के बाद भी एक भी देश भारत के साथ खड़ा नहीं हुआ।
कहाँ कहा जा रहा था कि भारत अपनी इकोनॉमी के आसरे विकसित देशों के सामने चुनौती पेश कर सकता है और अब अमेरिका को भारत के भीतर का पूरा डाटा चाहिए। वह भारत के भीतर की करेंसी की पहचान को भी उस डिजिटल इकोनॉमी के सहारे बनाना चाहता है जिसे क्रिप्टो करेंसी कहा जाता है। अमेरिका भारत को अपने ईशारे पर चीन के समानांतर खड़ा होने वाला देश बनाना चाहता है वह भी तब जब भारत के सभी पडोसी देश श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, यहां तक कि अफगानिस्तान भी चीन के साथ खड़े हैं तो क्या हमारी बेबसी हर वक्त अमेरिका को देखेगी। तो क्या इसीलिए अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की जुंवा पर हरदम भारत का नाम उस सौदेबाजी और बार्गेनिंग के दायरे में जहां सामरिक तौर पर पाकिस्तान अमेरिका का बेहतरीन प्यादा बन जाय और भारत उस चुनौती को खत्म करने के लिए बार बार अमेरिका की तरफ देखे। भारत के कारपोरेट्स जो अन्तरराष्ट्रीय बैंकों से कर्जा लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं वो अमेरिकी चाबी के बिना नहीं बढ़ पायेंगे। भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे मंहगा लोकतंत्र है, सत्ता की ताकत है करेंसी। अगर करेंसी की ताकत ही निकल कर क्रिप्टो करेंसी में समा गई तो फिर भारत में किसकी सत्ता होगी, वह कैसे काम करेगी, कौन सी नीतियां बनायेगी, वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ यहां तक कि यूनाइटेड नेशन तक में अमेरिका की ही पालिसी होगी और भारत का विरोध कोई मायने नहीं रखेगा तो फिर दुनिया भर में भेजे गए डेलीगेट्स का औचित्य क्या रह जाएगा। हकीकत यह है कि कार्पोरेट बिजनेस देखता है, बिजनेस करेंसी देखती है और करेंसी कभी भी किसी भी देश की सीमा को नहीं देखती है । सीमा को नागरिक देखते हैं, उसकी सम्प्रभुता नागरिकों पर टिकी होती है कार्पोरेट, बिजनेस और करेंसी पर नहीं । टकराव भी इसी बात का है तभी तो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प कह रहे हैं कि एप्पल भारत में आई फोन बनाना बंद करे। भारत में हो रहा डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट पहली बार 10 बिलियन डॉलर से कम होकर 353 मिलियन डॉलर पर आ गया है। कम्पनियां अमेरिका की हैं, कम्पनियां उसकी इकोनॉमी से प्रभावित हैं और अगर ये पैसा शेयर बाजार से निकल गया या शेयर बाजार में नहीं आया तो फिर आर्थिक गुलामी तो तय है। यानी अमेरिका तय करेगा भारत का भविष्य एक पखवाडे़ के भीतर !
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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