खरी-अखरी : अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की गिरती साख; विदेश नीति या मोदी नीति?
डोनाल्ड ट्रम्प और अमेरिका किसी का दोस्त नहीं है, वह केवल और केवल अपना फायदा देखता है यानी अमेरिका वो बंदरिया है जो पानी नाक में जाने पर अपने बच्चे को पैरौं तले कुचलकर निकल जाती है।
किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति राष्ट्र निष्ठ होने के बजाय जब व्यक्ति निष्ठ हो जाए और बनियों के माफिक जहां से लाभ मिलेगा तो उसी तरफ जीभ लपलपाने लगेगी तथा उस राष्ट्र की जनता उस व्यक्ति और उसकी पार्टी को चुनती चली जाय तो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर राष्ट्र को शर्मिंदगी झेलनी ही पडे़गी और वर्तमान में यही कुछ झेलना पड़ रहा है भारत को। भारत की विदेश नीति भारत का हित और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का मान सम्मान बनाये रखने वाली एक राष्ट्रवादी नीति रही है। भारत की विदेश नीति किसी भी देश का पिछलग्गू बनकर रहने की नहीं रही है। भारत की विदेश नीति और कूटनीति अंतरराष्ट्रीय तौर पर अपनी ताकत के बलबूते दुनिया को ये संदेश देने वाली रही है कि अपनी कूटनीति के आसरे और सामरिक युद्धों के बीच उसने दुनिया के भीतर संबंध बनाये हैं उससे कोई भी देश भारत को अनदेखा नहीं कर सकता है।
मगर 2014 के बाद से जब से भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी के जरिए देश की सत्ता सम्हाली है भारत की विदेश नीति मोदी नीति में तब्दील कर दी गई है। पीएम, विदेश मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने भारत की विदेश नीति को उस ओर मोड़ दिया है कि भारत को जहां से लाभ मिलेगा वह उस लाभ की दिशा में मुड जायेगा यानी न तो कोई आत्म सम्मान मायने रखेगा न ही कोई राष्ट्रीय सिद्धांत मायने रखेगा। रूस पर अमेरिका द्वारा प्रतिबंध लगाने, अमेरिका, पश्चिमी देशों द्वारा विरोध करने के बाद भी भारत ने अमेरिका से तेल खरीदा, तेल को रिफाइन करके यूरोपीय बाजार में बेचा। चीन से तमाम विवादों के बाद यहां तक कि अमेरिका और चीन के बीच चली तनातनी के बाद भी न केवल चीन से व्यापारिक रिश्ते बने हुए हैं बल्कि आर्थिक तौर पर प्रगाढ़ता भी हुई है। फ़िलीस्तीन और गाजा को लेकर यहां तक कि ईरान से चले युद्ध के दौरान भारत इजराइल के साथ खड़ा रहा। इस समय ब्रिक्स में शामिल तमाम देशों में भारत ही अकेला ऐसा देश है जो अमेरिका परस्त है।
ब्रिक्स के भीतर ईरान के ऊपर इजराइल और अमेरिका द्वारा किये गये हमले का खुलकर जिक्र करते हुए इजराइल के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित किया गया मगर भारतीय प्रधानमंत्री ने या तो चुप्पी बरती या फिर सांकेतिक भाषा का उपयोग किया। इजराइल के खिलाफ जो निंदा प्रस्ताव पारित किया गया उस प्रस्ताव पर भारत के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के मद्देनजर पहलगाम और पाकिस्तान का कहीं कोई जिक्र नहीं किया गया केवल जम्मू-कश्मीर का नाम लिया गया और भारत ने उस पर हस्ताक्षर भी किये जबकि एक पखवाड़ा पहले चीन में हुई एससीओ की बैठक के अंत में जो संयुक्त बयान जारी किया गया था उसमें पहलगाम का जिक्र नहीं किये जाने पर बैठक में शामिल भारतीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने हस्ताक्षर नहीं किया था। लगता तो ऐसा ही है कि वर्तमान दौर में कूटनीति के तहत मोदी की विदेश नीति सिर्फ और सिर्फ अमेरिका के भरोसे चल रही है और अमेरिका ट्रेड डील के रास्ते भारत को ले जाकर कहां खड़ा करेगा कोई नहीं जानता है। देखने में आता है कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत अलग-थलग सा पड़ गया है क्योंकि मोदी की विदेश नीति ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अलग – अलग तरीके से कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
क्वाड की बैठक में जब भारत शामिल होता है तो वह चाइना और रशिया को रास नहीं आता। एससीओ की बैठक में शामिल होना भारत को ही अच्छा नहीं लगता है। चीन अमेरिका का विरोध करते हुए पाकिस्तान का समर्थन करता है तथा खुद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प खुले तौर पर भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को अंतरराष्ट्रीय तौर पर एक साथ खड़ा करते हैं, पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष के साथ एक टेबिल पर बैठ कर लंच करते हुए तारीफों के पुल बांधते हैं तो फिर सवाल तो यही उठता है कि भारत की कूटनीति और मोदी की विदेश नीति का इतना पतन कैसे हो गया कि पाकिस्तान अमेरिका का इतना ज्यादा दुलारा हो गया है। तो फिर भारत की कौन सी विदेश नीति, कौन सी आर्थिक नीति और कौन सी ट्रेड डील भारत के हित में होगी। ब्रिक्स समिट के बाद तैयार की गई 31 पन्नों की रिपोर्ट में कहा गया है कि इजराइल ने ईरान पर जो हमला किया वह गलत था, अमरिका ने ईरान पर जिस तरह का हवाई हमला किया गया वह पूरी तरह से अनुचित था। जिस तरह से अमेरिका टेरिफ को लेकर दुनिया को बंधक बनाना चाहता है या फिर दुनिया को अपने अनुकूल करना चाहता है, ब्रिक्स इसका विरोध करता है । ब्रिक्स ने अपने बैंक यानी न्यू डवलपमेंट बैंक के जरिए मैसेज दिया कि आने वाले समय में ब्रिक्स देशों के बीच होने वाले व्यापारिक लेनी-देनी का हिसाब आपसी करेंसी में डिजिटल तरीके से कोडवर्ड के आसरे होगा। जिसका विरोध अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प लगातार कर रहे हैं। ब्रिक्स का फाउंडर मेम्बर होने के बावजूद जब भारत ब्रिक्स में शामिल देशों के साथ खड़ा होने के बजाय ब्रिक्स देशों के खिलाफ दमनात्मक कार्रवाई करने वाले देशों के साथ खड़ा होता है तो स्वाभाविक है कि ब्रिक्स में शामिल देशों को बुरा लगेगा।
चीन के प्रधानमंत्री ली क्वांग (Li Qiang) ने कहा कि अब ग्लोबल आर्डर में सुधार की जरूरत है। एक बेहतर दुनिया निर्माण के लिए वैश्विक शासन में सुधार की दिशा में ब्रिक्स को अग्रसर होना होगा। ब्रिक्स का पूर्ण सदस्य बने इंडोनेशिया ने भी यही बात कही। इसके अलावा बेलारूस, वियतनाम, उज्बेकिस्तान, बोलीविया, इजिप्ट, इथोपिया, क्यूबा, ईरान, थाईलैंड, मलेशिया, नाइजीरिया, यूगांडा सहित सभी ने इजराइल की खुलकर निंदा की। मेजबान ब्राजील के शासनाध्यक्ष लुला सिल्वा ने खुले तौर पर ऐलान किया कि दरअसल अमेरिका खुद को महाराजाधिराज की तरह रखना चाहता है। वह भूल गया है कि दुनिया में अब सम्प्रभु देश हैं। अमेरिका ट्रेड डील के जरिए जो खेल खेल रहा है वह पूरे तरीके से अमानवीय और गैरजिम्मेदाराना है। Vespon sible or serious for the President of a country as big as the United States to be threatening the world through the interest. It’s not right. He needs to understand that the world has changed. We don’t want an emperor. We are sovereign nations. इसका साफ-साफ मतलब है कि ब्रिक्स के तमाम देशों के साथ ही मेजबान ब्राजील भी अमेरिका पर निशाना साध रहा है। लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने या तो खामोशी बरती या फिर सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल किया। एससीओ, क्वाड, ब्रिक्स यहां तक कि जी-7 जो कुछ भी भारत के साथ हुआ उसने इस सवाल को तो खड़ा कर ही दिया है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की जो भूमिका, उसकी महत्ता या जरूरत पहले रहा करती थी मोदी दौर में बिल्कुल नहीं रह गई है। जापान और आस्ट्रेलिया जिस तरीके से अमेरिका के साथ खड़े थे उनके साथ भी अमेरिका ने ट्रेड डील में कोई मुरउअत नहीं बरती। भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने अंतर्विरोध में आकर फंस चुका है। ब्रिक्स को लेकर ब्राजील में ही जब पहले बैठक हुई थी तो ब्राजील में भारत की इकोनॉमी को लेकर तारीफ की गई थी लेकिन इस दौर में जब भारत इजराइल के जाकर खड़ा हो गया है तो भारत की आलोचना होने लगी है। ब्रिक्स बैंक यानी न्यू डवलपमेंट बैंक में वाइस प्रेसीडेंसी रह चुके, ब्राजील के जाने-माने इकोनामिस्ट प्रोफेसर पाउलो ( PAULO NOGUEIRA BATISTA JR. Formar Vice President, New Development Bank) ने ब्रिक्स समिट के दौरान ही एक इंटरव्यू में कहा कि भारत ब्रिक्स के भीतर सबसे बड़ी समस्या है। वे सवाल करते हुए कहते हैं कि मोदी इजराइल और बेंजामिन नेतन्याहू का समर्थन कैसे कर सकते हैं? नेतन्याहू के साथ मोदी के संबंध किस प्रकार अच्छे हो सकते हैं? भारत के प्रधानमंत्री जब इजराइल द्वारा गाजा में किये जा रहे नरसंहार का समर्थन करते हैं तो वहां की जनता मोदी के बारे में क्या कुछ सोचती होगी? भारत ईरान के न्यूज रूम में इजराइली हमले का समर्थन कैसे कर सकता है? भारत को चीन कि डर है और इसी वजह से अमेरिका से नजदीकी रखता है। और ब्रिक्स के भीतर यही सबसे बड़ी कमजोरी है। कई लोग तो भारत को ब्रिक्स के भीतर ट्रोजन हार्स मानते हैं। (ट्रोजन हार्स का मतलब होता है – एक समय एक पक्ष अपने प्रतिद्वंद्वी के यहां लकड़ी के बने घोड़े उसकी छावनी में भिजवाता था जिसके भीतर सैनिक टुकड़ियां भरी रहती थी जिसका पता प्रतिद्वंद्वी को भी नहीं होता था और मौका मिलते ही घोड़े में छिपे सैनिक हमला कर देते थे) तो क्या प्रोफेसर पाउलो भारत को ब्रिक्स के भीतर ट्रोजन हार्स जैसा देख रहे हैं ?
सवाल यह भी है कि क्या डोनाल्ड ट्रम्प अपने दूसरे कार्यकाल में भारत को वह अहमियत देगा जिसकी शुरुआत 20-25 बरस पहले हुई थी और बिना नागा जो बाइडेन के काल तक मिलती रही है। क्योंकि अब अमेरिका पाकिस्तान को गोद में लिटाकर लोरी सुना रहा है। इजराइली पीएम नेतन्याहू को गले लगा रहा है और बदले में पाकिस्तान और इजराइल डोनाल्ड ट्रम्प को शांति का नोबेल पुरस्कार देने के लिए साथ खड़े हो रहे हैं। अमेरिका तो भारत को उसकी पीठ थपथपा कर एक मोहरे की तरह इस्तेमाल कर रहा है। वह भारत के साथ इस बिना पर खड़ा होता है कि भारत के जरिए वह इस्लामिक आतंकवाद और चीन की बढ़ती हुई आर्थिक ताकत को रोक सके। रूस भारत का पारंपरिक सहयोगी रहा है वह कोल्डवार के दौर से लेकर कोल्डवार के बाद तक, 1971 के युद्ध को भी याद किया जा सकता है। मोदी की विदेश नीति के चलते अब अमेरिका भारत को हडका रहा है कि रशिया से तेल और हथियार लेना बंद करे और जो भी खरीददारी करनी है वह अमेरिका से की जाय। यह भी हकीकत है कि यदि कभी भी भारत पाकिस्तान या किसी भी देश के साथ सामरिक युद्ध में फंसता है तो अमेरिका कभी भी भारत के साथ खड़ा नहीं होगा। वैसे भी भारत की अपने किसी भी पडोसी देश के साथ तिरेसठ (६३) का आंकड़ा नहीं है।
जिस तरह से ब्रिक्स की बैठक में चाइना, रशिया और ईरान के राष्ट्राध्यक्षों की गैरमौजूदगी रही है तो सवाल यही है कि अगले बरस भारत में होने वाली ब्रिक्स की बैठक में इन देशों की मौजूदगी रहेगी क्या ? भारत ने पहली बार पहलगाम हमले के बाद चलाये गए आपरेशन सिंदूर और पाकिस्तान की हकीकत बताने के लिए दुनिया के चुनिंदा देशों में जो प्रतिनिधि मंडल भेजा था उनमें से एक भी देश ने खुले तौर पर भारत के साथ खड़े होने की जहमत नहीं उठाई । यह भी पहली बार हुआ कि दुनिया के तीनों ताकतवर देश अमेरिका, चाइना और रशिया भारत के साथ नहीं है। और यह पूरी तरह से भारत की कूटनीति और मोदी की विदेश नीति का फेलुअर है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अंतरराष्ट्रीय यात्राओं के आसरे बीजेपी अब तक जिस अंदरूनी राजनीति को प्रभावित कर रही थी अब वही बीजेपी संकटों के बीच अंतरराष्ट्रीय मंचों पर देश की भीतरी राजनीति का यही मैसेज दे रही है कि भले ही अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमें न पूछा जाए लेकिन 140 करोड़ का देश हमें बार-बार चुनता है और यही हमारी ताकत है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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