खरी-अखरी: अपनी गलतियों पर पर्दा डालने की नाटकीयता है माक ड्रिल
सत्ता अपने पापों को छुपाने के लिए तरह – तरह से पापड़ बेलती है। 22वीं सदी में भी 19वीं – 20वीं सदी की झांकी दिखाकर जनता को भरमाने से नहीं चूकती। सरकार के तीन मंत्रालयों गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय की गंभीर चूक से पहलगाम में हुए आतंकी हमले में असमय कालकलवित हुए नागरिकों से भारत और पाकिस्तान के बीच उपजे तनाव और युद्ध की परिस्थितियां निर्मित होने पर भारत सरकार ने सभी राज्यों को एकदिनी सायरन – ब्लैक आउट माक ड्रिल करने की एडवाइजरी जारी की और राज्य सरकारों ने भी चुनिंदा शहरों में सायरन – ब्लैक आउट की रस्म अदायगी भी जंगल में मोर नाचा किसने देखा के तर्ज पर की। शायद सरकार ये भूल गई कि देश अब प्राद्योगिकी युग में जी रहा है न कि पाषाण युग में। सायरन बजेगा, बत्ती गुल होगी, अंधेरा होगा और दुश्मन चकमा खा जायेगा। ये तमाम रणनीति 1939-1945 के विश्व युद्ध और 1962, 1965, 1971 में हुए भारत – चाइना, भारत – पाकिस्तान युद्ध में कारगर रही हैं क्योंकि उस जमाने में पायलट दुश्मन देशों में बमबाजी करने के लिए नगर गावों की रोशनी देखते थे। तब न जीपीएस था न ही सैटेलाइट थी बस आंखों का खेल था। तभी तो बत्ती गुल हुई और दुश्मन ने चकमा खाया। आज का युग प्राद्योगिकी युग है आज का युद्ध आधुनिक सैन्य मिसाइलों, फाइटर विमानों, जेट्स से लड़े जा रहे हैं जो अपना टार्गेट सैटेलाइट, इंफ्रारेड, एआई से ढूंढते हैं। इन्हें रोशनी की जरूरत नहीं है। वही लोकेशन जो आम लोगों को भी मोबाईल, वाईफाई राउटर, मोबाईल टावर के जरिए मिल जाती है। बत्ती जले या बंद रहे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
सायरन का मतलब होता है आम आदमी को अर्लट कर सुरक्षित जगहों पर यानी बंकरों में भेजना। सीमावर्ती क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो देश के बाकी क्षेत्रों में बंकर तो दूर ढंग की सुरक्षित जगह तक नहीं है। जब बंकर ही नहीं है तो सायरन बजाने का क्या औचित्य है। इसे तो ऐसा भी कहा जा सकता है कि बिना छत के घर में बारिश का अलार्म। सरकार अगर वास्तव में देश के आवाम के जानमाल को लेकर गंभीर है तो युध्द से पहले बंकरों का निर्माण कराये। उसमें बुनियादी जरूरतें मसलन खाना, पानी, दवा, हवा की व्यवस्था करे। वरना ये तो वही हुआ कि सैट बिना स्क्रिप्ट। सरकार के इस कदम को वैज्ञानिक अज्ञानता कहना उचित नहीं है। हाँ यह जानबूझकर कर की गई नाटकीयता है। देश की भीतरी हकीकत तो यह है कि गांव और शहर में गरीब और मजदूर वर्ग तो रोज ही ब्लैक आउट के साये में अपनी झोपड़ी में दम तोड़ता है। कहा जा सकता है कि गांव की जीवन शैली ही ब्लैक आउट के आसरे चल रही है। जिन्हें युद्ध ड्रिल की नहीं मंहगाई, बेरोजगारी, माइक्रेड फाइनेंस कंपनियों के कर्ज के मकड़जाल और उनके कर्ज तले दबे दबकर आत्महत्या के युद्ध ड्रिल की जरूरत है। उनका असली युद्ध तो कर्ज, सूखा, आत्महत्या से नित हो रहा है। उनको तो मिसाइलों से ज्यादा खतरा बैंकों के ऋण चक्रव्यूह से है।
शासक वर्ग को तो इमर्जेंसी जनरेटर, प्राइवेट बंकर, सुरक्षा गार्ड सब कुछ उपलब्ध है। युध्द का खेल तो इनके लिए एकमात्र मनोरंजन है। यह वर्ग तो दुश्मन के नाम पर हथियारों के व्यापार में मुनाफा कमा रहा है। शासक वर्ग आम आदमी को डर का खेल खिला रहा है। सबको एक लाइन में खड़ा करके छद्म देशभक्ति की घूंटी भी पिला रहा है। जिससे लोग बिजली का बिल, पेट्रोल डीजल की कीमत, चिकित्सा, शिक्षा, मंहगाई, बेरोजगारी, कालाबाजारी, मिलावटखोरी, जमाखोरी आदि ज्वलंत मुद्दों पर सवाल ना पूछे और अंधेरा कायम रहे। अगर किसी ने सवाल पूंछ लिया तो उसे देशद्रोही कहकर सलाखों के पीछे डाल दो। अपनी सत्ता कायम रखने के लिए डर का बीज बोओ, युद्ध का नशा मिलाओ, असली मुद्दों पर पर्दा डालो जब बेरोजगारी, गरीबी, बदहाली छाए तो दुश्मन का भूत दिखाकर भटकाओ। पीएम जब रडार – बादल का खेल दिखाते हुए कह रहे थे कि रडार बादलों से चकमा खा गया तो दुनिया अपना माथा पीट रही थी मगर अंध भक्त रोम जल रहा था और नीरो बंशी बजा रहा था कि तर्ज पर भांगड़ा कर रहे थे। ब्लैक आउट ड्रिल सिर्फ बत्ती गुल नहीं करती वह समाज में अमीरी – गरीबी की खाई को भी चौड़ा करती है। जब तक अमीर की चिंता मुनाफा और आपदा में अवसर है तथा गरीब की चिंता रोटी है तब तक ब्लैक आउट, सायरन ड्रिल सिर्फ अंधेरा फैलायेगी।
साठ साल बनाम ग्यारह साल
भारत ने फिरंगियों की तकरीबन 300 साल की गुलामी भोगी है । 1947 में स्वतंत्र भारत के हिस्से कूड़ा कचरा आया था । एक पिन बनाने के संसाधन नहीं थे। 20 गावों में बिजली, 20 शासकों (राजाओं) के पास टेलिफ़ोन, 10 छोटे बांध थे। सीमित सैन्य कर्मी, 4 विमान, 20 टैंक, चारों ओर से खुली सीमा थी । खाद, चारा, पानी के साधनों का अभाव था । भुखमरी का आलम था । गिनती के अस्पताल, शैक्षणिक संस्थान थे। खजाना खाली था । 60 साल की यात्रा में भारत विश्व की सबसे बड़ी सेना में से एक, हजारों युद्धक विमान, टैंक, हजारों औद्योगिक संस्थान, सैकडों विद्युत स्टेशन, लाखों किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग, ओवरब्रिज, नई रेल परियोजनाएं, स्टेडियम, सुपर स्पेशलिटी हास्पिटल, एम्स, बैंक, टेलीविजन, मोबाईल, आईआईटी, आईआईएम, परमाणु हथियार, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, कम्प्यूटरीकरण हुआ है । 2014 तक भारत दुनिया की दस शीर्ष अर्थव्यवस्था में एक, जीएसएलवी, मंगलयान, मोनोरेल, मेट्रो रेल, अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डे, पृथ्वी, अग्नि, नाग, परमाणु पनडुब्बियां, तो थे ही।
2014 के बाद देश के विकास को पंख लगे और शुरू हुआ नाम बदलने, मूर्ति स्थापित करने का सिलसिला। गौ की राजनीति, हिन्दू – मुस्लिम, हिन्दू – ईसाई, हिन्दू – दलित, हिन्दू – अल्पसंख्यक के बीच दरार पैदा करने की नफरती राजनीत का घिनौना खेल। असफल नोटबंदी, खराब क्रियान्वित जीएसटी, जिस एफडीआई का विरोध उसी का समर्थन (थूक कर चाटना), मंहगा पेट्रोल, डीजल, एलपीजी, बैंक में मिनिमम बैलेंस नहीं होने पर जुर्माना, किसी के बेटे का विकास तो किसी का शौर्य तो किसी को प्रायोजित करने की मशक्त। गंगा सफाई पर तीन हजार करोड़ रूपये खर्च किये गए फिर भी राम तेरी गंगा मैली की मैली ही है । ये है 60 साल बनाम 11 साल। फिर भी हर मंच पर खड़े होकर अपना गिरेबां झाकने के बजाय दूसरे का बाथरूम ताकना अशोभनीय नहीं निंदनीय भी है।
पहलगाम हमले के बाद तत्काल देश वापसी, घटना स्थल का दौरा करने के बजाय बिहार जाकर चुनावी बिसात बिछाना, एक तरफ चीत्कार दूसरी तरफ हंसी ठिठोली। सभी राजनीतिक दलों के समर्थन के बावजूद सर्व दलीय बैठक से पलायन वो भी लगातार दूसरी बार। आखिर किसका है डर – खौफ़, क्यों है शर्मिंदगी ?
बेलगाम (गोदी) मीडिया
देश की सेना पडोसी दुश्मन से भारत और भारतीयों की अस्मिता के लिए लडाई लड रही है और सत्ता का पालित पोषित मीडिया (गोदी) बेलगाम अनाप-शनाप, झूठी, भ्रामक खबरों को उन्मादित तरीके से परोस रहा है, वह भी तब जब सरकार एडवाइजरी जारी कर चुकी है कि मीडिया उन्हीं खबरों को प्रसारित करे जो सरकार या सेना वैधानिक तरीके से जारी करे। सत्ता के रहमोकरम पर पल रहे मीडिया चैनलों पर होड़ लगी है फेंक न्यूज चलाने की देखें कौन सत्ता का चश्म-ए-नूर बनता है। कुछ चैनल तो आटा उड़ा रहे हैं जी न्यूज ने तो चक्की ही उड़ा दी है। मगर मीडिया सरकारी एडवाइजरी को पैरों तले रौंदते हुए मनगढ़ंत खबरें फैलाकर देश के माहौल में जहर घोल रही है और सरकार खामोश है। सोशल मीडिया न्यूज चैनलों को इसलिए बंद किया जा रहा है कि वह सवाल उठाते हुए सच परोस रही है। इसका मतलब तो यही हुआ कि सरकार सच से डर रही है और गोदी में बैठ कर अंगूठा चूस रहे गोदी मीडिया से भयभीत है कि कहीं यह भी सच उजागर न करने लग जाए। इतनी डरपोक और कायर सत्ता तो हिन्दुस्तान में कभी नहीं रही है।
साफ दिख रहा संस्कार का अंतर
1965 वाली विचारधारा जो आज सत्ता में है और 2025 की विचारधारा जो आज विपक्ष में है दोनों की विचारधारा के बीच का फर्क साफ नजर आ रहा है। 1965 में युद्ध विराम दे बाद जिस विचारधारा ने अपने कर्मों से तब के प्रधानमंत्री को कालकलवित कर दिया था मगर आज 2025 में युद्ध के दौरान दूसरी विचारधारा सिद्दत के साथ प्रधानमंत्री के खड़ी है वरना वह भी अपने प्रधानमंत्री से लड़ रही होती। यही फर्क होता है संस्कारों के बीच।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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