खरी-खरी : स्ट्रीम मीडिया का गुलाम होना बन गई है समानांतर मीडिया की मौत की वजह
भारत में अब पत्रकारिता करना जोखिम भरा पेशा हो गया है। दुनिया के दूसरे देशों में पत्रकार की शहादत अपना उत्तरदायित्व निभाते हुए लडाईयों, गृह युद्ध, आतंकवाद आदि की खबरें कव्हर करते हुए होती है लेकिन भारत में उनकी हत्या पूंजीपतियों, कारोबारियों के अवैधानिक कामों को उजागर करने के कारण होती है। कारोबारियों का राजनेताओं खास कर सत्ता पक्ष के साथ गठजोड़ को लेकर किये जाने वाले खुलासे को अपने और व्यवसायिक हितों के विपरीत मान कर पत्रकारों पर जानलेवा हमले किए जाते हैं। हाल के सालों में देखने में आया है कि व्यवसायियों और नेताओं के बीच बनी हुई अघोषित संधि के तहत दोनों एक-दूसरे के हितों को संरक्षित करते हैं। ऐसा नहीं है कि केवल सत्ता पक्ष के नेताओं का ही व्यवसायियों से गठजोड़ है विपक्षी पार्टी के नेताओं का भी गठबंधन होता है। छत्तीसगढ़ के बीजापुर में पत्रकार मुकेश चंद्राकर की नृशंस हत्या इसका जीता-जागता सबूत है। माना जाता है कि ठेकेदार सुरेश चंद्राकर द्वारा मिरतूर-गंगालूर की बनाई जा रही सड़क में किये जा रहे भृष्टाचार की खबरें चलाना ही मुकेश की हत्या का कारण बनी है।
2014 के बाद से तो सत्तापक्ष और अखबारनवीसी के रिश्तों ने नया रूप ले लिया है। बीजेपी ने तो मीडिया को सत्तापक्ष का सक्रिय सहयोगी भर नहीं बनाया बल्कि उसने मीडिया पर पूर्णतः अधिकार सा कर लिया है तभी तो मीडिया भी बीजेपी की भाषा बोलने लगा है। इतना भर नहीं सरकार से नजदीकी रखने वाले व्यवसायिक समूह मीडिया मालिक बन बैठे हैं। यही कारण है कि अब सरकार और कारोबारियों के अनैतिक, असंवैधानिक क्रिया-कलापों की खबरें नदारत सी हो गई हैं। मुख्य धारा का मीडिया तो दो ही ऐजेंडे पर काम करता हुआ दिखाई देता है। पहला – सरकार व सत्तापक्ष के राजनीतिक ऐजेंडे का प्रचार-प्रसार और दूसरा – कारोबारियों के व्यवसायिक हितों को संरक्षित और संवर्धित करना।
दुनिया के दूसरे देशों की तरह भारत में भी समानांतर मीडिया खड़ा हो गया है लेकिन उसे स्वतंत्र चेतना और विवेक के साथ खबरें चलाने के लिए जूझना पड़ रहा है। सुदूर इलाकों से लेकर ग्रामीण – आदिवासी इलाके, कस्बे और महानगर तक पत्रकारिता करना दुरुह हो गया है। भृष्टतंत्र द्वारा की गई घेराबंदी के कारण भृष्टाचारी अधिकारियों, कारोबारियों के साथ ही सरकार के खिलाफ़ खबरें लिखने – दिखाने में पहरा लगा है। हालिया दौर में ऐसी अनेक शर्मनाक घटनाएं हुईं हैं जो लोकतांत्रिक देश को शर्मसार करने के लिए पर्याप्त हैं। मध्याह्न भोजन के भृष्टाचार की खबर छापने पर पत्रकार को जेल भेज दिया जाता है। जनता की मूलभूत समस्याओं पर सवाल पूछने पर पत्रकार की सरेआम बेइज्जती की जाती है। 2014 के बाद तो न जाने कितने बेकसूर पत्रकारों को जेल में ठूंस दिया गया है। सरकार खुद प्रेस की बुनियादी स्वतंत्रता को कुचल रही है।
चुनाव के दौरान जब शिख से लेकर नख तक स्तर के नेताओं द्वारा लोकतंत्र को सरेराह नंगा किया जाता है तथा चुनाव आयोग अंध – मूक – बधिर की भूमिका में रहता है और उसकी निंदा करने के बजाय स्ट्रीम मीडिया भाटगिरी करने पर उतर आता है तभी तो आम आदमी द्वारा कहा जाता है कि पत्रकार शराब की एक बोतल में बिक जाता है। धन्नासेठ थोड़ी ज्यादा कीमत देकर खरीद लेता है। पुलिस मुखबिर बनाकर इस्तेमाल करती है। सत्तापक्ष अपनी देहरी पर चौकीदारी करवाता है। यही कारण है कि प्रेस की आजादी के मामले में विश्व रैंकिंग में भारत निचले पायदान पर है।
राजनीतिक पार्टियों खासकर सत्तापार्टी की कोशिश होती है कि नये नये नारे गढ़कर लगवाये जावें जिससे जनता से जुड़े हुए मुद्दे चर्चा में नहीं आने पायें और नारों की शक्ल में राजनैतिक फैसले हों। नारे लगाने की सोच लोगों को मुद्दों से अलग कर देती है। देश के भीतर तकरीबन 20 करोड़ से ज्यादा संख्या है रजिस्टर्ड बेरोजगारों की लेकिन वह चुनावी मुद्दा नहीं बन पाता। बीते दस बरस में पब्लिक सेक्टर के भीतर लगभग 2 करोड़ से अधिक नौकरियां खत्म हो गई हैं लेकिन वह भी चुनावी मुद्दे से कोसों दूर है। परमानेंट नौकरी की जगह ठेके पर नौकरी देने का काम शुरू किया गया है। जिसमें कोई सोशल सिक्योरिटी नहीं है। सरकार पेंशन को बोझ मान चुकी है इसलिए पेंशन का कोई प्रावधान नहीं है। यानि सवाल केवल अग्निवीरों भर का नहीं है, सवाल तो देश के पूरे सिस्टम के अग्निवीरों का है। इसे भी चुनावी मुद्दा बनने नहीं दिया जाता है। पक्ष हो या विपक्ष सभी एक ही ताल पर ता – था – थैया करते नजर आते हैं क्योंकि अगर मुद्दे जाग गये तो देश की सियासत पलट जायेगी और उसे पलटने देना नहीं है।
जन मुद्दों से हटकर साम्प्रदायिक नारों और घटिया बयानों पर चुनी जायेगी दिल्ली सरकार
फरवरी में होने जा रहे दिल्ली के विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक पारा चढ़ने लगा है। बीजेपी चुनाव को कितने घटिया स्तर तक ले जायेगी इसकी झलक पीएम नरेन्द्र मोदी के भाषणों और उनके चेलों के बयानों में दिखाई देने लगी है। गुरुजी ने तमाम चुनावी सभाओं में महिलाओं के सम्मान में जिन अमर्यादित – अशोभनीय शब्दों का उपयोग किया है मसलन 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड, जर्सी गाय, कांग्रेस की विधवा, सूर्पनखा, दीदी ओ दीदी आदि से प्रेरित होकर कालका जी विधानसभा से उम्मीदवार बनाये गये चेले रमेश विधूड़ी ने कांग्रेस महासचिव और सांसद श्रीमती प्रियंका गांधी वाड्रा तथा दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी पर जिस तरह से अमर्यादित, अशोभनीय टिप्पणी की है उसने साफ संकेत दे दिया है कि भाजपा चुनाव को एक बार फिर “रामजादे, हरामजादे, गोली मारो सालों को” के स्तर पर ले जायेगी। भाजपा के जरखरीद गुलामों द्वारा सांसद श्रीमती हेमामालिनी पर लालू प्रसाद यादव द्वारा की गई घटिया टिप्पणी की आड़ लेकर अपनी गलती को सही करने का असफल प्रयास किया जा रहा है। बीजेपी में रमेश विधूड़ी जैसे वाहियात बड़भैया – छुटभैया नेताओं (मेल-फीमेल) का जखीरा भरा पड़ा है तथा दूसरे दल भी अछूते नहीं हैं।
इसके पहले भी सांसद रहते रमेश विधूड़ी ने लोकसभा के भीतर एक विपक्षी सांसद को अश्लील गालियां दी थीं और लोकसभा अध्यक्ष, नेता सदन (प्रधानमंत्री) और पार्टी अध्यक्ष ने कोई कार्रवाई नहीं की थी। जिससे दुनिया भर में भारत की संसदीय लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा धूल धूसरित हुई थी। यह कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा अंदरखाने इस तरह के लुच्चे लफंगों को पालती पोसती है और बाहर लोक निंदा से डरने की नौटंकी करती है। सवाल यह है कि क्या महिलाओं की अस्मिता को दांव पर लगाकर नितीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू, चिराग पासवान, एकनाथ शिंदे, अनुप्रिया पटेल एवं अन्य एनडीए के घटक दल के नेता मोदी भाजपा का समर्थन करेंगे ? चाहे डॉ अम्बेडकर का अपमान हो या फिर महिलाओं का, सब अपना – अपना हिसाब किताब लगायेंगे। मोदी और विधूड़ी के बयानों पर अभी तक स्ट्रीम मीडिया चाटुकारिता से बाहर नहीं आ पाया है और पत्रकारिता को शर्मसार कर रहा है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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