महाकुंभ और मोनालिसा : मनके या मन-के
मैं बेचना चाहती हूँ,
बस माला के मनके ,
पर यहाँ आये हैं ,
सब लोग अलग-अलग मन के ,
इन्हें कहाँ खरीदने हैं ,
मेरी माला के मनके ,
ये निहारना चाहते हैं ,
मेरे नयनों के मनके ,
कोई बस मेरी ,
तस्वीर लेना चाहता है ,
कोई मुझ से अपनी ,
दिल की बातें कहना चाहता है ,
पर जो मैं बेच रही हूँ ,
उसके ख़रीददार कम हैं ,
अब इस दुनियां में ,
इज्जतदार कम हैं !
मोती माला मनका लेकर,
मिली कुंभ में अबकी बार ।
अपने तीखे नैन-नक्स से,
वायरल है सरे बाजार ।।
जादू है नैनन में जिसकी,
रूप सजीली पाई नार ।
घूम-घूम कर माला बेचे,
शौक नहीं वो है लाचार ।।
पीछे-पीछे मिडिया घूमे,
फैंस यहां इसके भरमार ।
अधनंगे जो रील बनाते,
कुछ तो सीखो इनसे यार ।।
गरीब यहाँ मेहनत करती,
मुफ्त नहीं खाती बेकार ।
तुम भी जरा मेहनत कर लो,
कर्मों पर तुम करो विचार ।।
रीतेश माहेश्वरी
Leave a Reply
Want to join the discussion?Feel free to contribute!