खरी-खरी वक्त ने वक्त को बेवक्त कर दिया
(फिल्म शोले के इस डायलॉग के चक्रव्यूह में फंसे दिख रहे हैं संघ और भाजपा बता तो कितने आदमी थे – – सरदार दो – – अब तेरा क्या होगा कालिया)
अपनी स्थापना 27 सितम्बर 1925 के बाद जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपनी पैदाइश की 100 वीं वर्षगांठ मनाने के आउटर पर खड़ा है तो उसे पहली बार अपने प्रमुख (सरसंघचालक) के अस्तित्व (साख) को बचाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। और यह चुनौती कहीं बाहर से नहीं मिल रही है। चुनौती मिल रही है उसके ही अपने राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी को अपनी मुट्ठी में कैद कर चुके गुजरात लाबी की जोड़ी से ! आरएसएस सरसंघचालक रह चुके केशव बलीराम हेडगेवार (1925-30, 1931-40), लक्ष्मण वासुदेव परांजपे (1930-31), माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (1940-73), मधुकर दत्तात्रेय देवरस (1973-94), राजेन्द्र सिंह रज्जू भैया (1994-2000), कृपाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन (2000-09) तक किसी की भी न तो राजनैतिक महत्वाकांक्षा दिखाई दी, न तो किसी ने भी अपने स्वयंसेवकों को छोड़ कर किसी सरकारी सुरक्षा ऐजेंसी स्वीकार की एवं न ही किसी के भी बयानों को राजनीतिक तौर पर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा लेकिन जबसे (21 मार्च 2009) सरसंघचालक की कुर्सी मोहनराव मधुकरराव भागवत ने सम्हाली है तबसे लगातार सरसंघचालक पद की गरिमा कम होती चली जा रही है । इसका सबसे बड़ा कारण है मोहन भागवत के साथ ही कुछ अन्यों द्वारा बीजेपी के सत्ता का सुख भोगना, सत्ता की मलाई चाटना । जिससे प्रतीत होता है कि संघ वैचारिक रूप से आंतरिक तौर पर अलग – अलग धड़ों में विभाजित हो चुका है।
संघ की साल में एक बार होने वाली सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बैठक होती है अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा । जिसमें देशभर से संघ के तकरीबन 34 संगठनों के राष्ट्रीय अध्यक्ष, संघ से डेपुटेशन पर भेजे गए राष्ट्रीय संगठन मंत्री सहित लगभग 1480 मेम्बर शामिल होते हैं। यह बैठक संघ के सरसंघचालक की अध्यक्षता में होती है। जिसमें सभी संगठनों के जिम्मेदार प्रतिनिधियों को बीतते हुए साल का लेखा-जोखा देने के साथ ही आने वाले एक साल के रोडमैप का विवरण भी देना होता है। इस बार की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक कर्नाटक राज्य के बेंगलुरु शहर में आगामी 21-22-23 मार्च 2025 (3 दिन) को होने जा रही है । जिसकी विधिवत घोषणा संघ द्वारा करके आमंत्रितों को न्यौता भेज दिया गया है । वैसे संघ की अ. भा. प्र. स. की पिछली बैठकों की तिथियों को देखें तो 2022 में ये तीन दिवसीय बैठक 11 मार्च से 13 मार्च तक कर्णावती में हुई थी। 2023 में 12 मार्च से 14 मार्च तक सोनीपत में तथा 2024 में 15 मार्च से 17 मार्च तक नागपुर में हुई थी। तो इस हिसाब से 2025 की बैठक जो बेंगलुरु में होने जा रही है उसे 18 मार्च से 20 मार्च तक होनी चाहिए थी मगर बैठक की तारीख बढा कर 21 मार्च से 23 मार्च कर दिया गया है। जिसके पीछे बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुना जाना बताया जा रहा है।
बीजेपी अपने नये राष्ट्रीय अध्यक्ष को चुनने के लिए लम्बे समय से संघ के साथ तारीख पर तारीख का माइंड गेम खेल रही है जिससे संघ अपनी अ. भा. प्र. स. की बैठक की तारीखों को अंतिम रूप नहीं दे पा रहा था। जब बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा का कार्यकाल जनवरी 2023 में खत्म हो गया तो संघ ने बीजेपी को नये अध्यक्ष का चुनाव करने के लिए कहा, चूंकि 15 महीने के भीतर लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं और नये अध्यक्ष के आने से चुनाव में व्यवहारिक कठिनाईयां आ सकती है इसलिए संघ प्रमुख की सहमति से नड्डा के कार्यकाल को 30 जून 2024 तक बढ़ा दिया गया। 01 जुलाई 2024 से नये राष्ट्रीय अध्यक्ष को बीजेपी का कार्यभार सम्हाल लेना चाहिए था मगर बीजेपी को अपनी मुठ्ठी में कैद कर चुकी गुजरात लाबी राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव कराने के लिए तरह तरह के बहाने बनाकर संघ के कहे को धत्ता बताती चली आ रही है। कहा जाता है कि बीजेपी ने संघ को होली के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष को चुन लिए जाने का भरोसा दिया था मगर हाल ही में मीडिया के माध्यम से खबर दी गई कि अध्यक्ष के चुनाव में अभी एक माह से अधिक समय लग सकता है जिससे संघ के सब्र का बाँध टूट गया और उसने अपनी अ. भा. प्र. स. की बैठक की तारीख तय करते हुए बीजेपी को अल्टीमेटम दे दिया कि वह हरहाल में 20 मार्च तक नया अध्यक्ष चुन कर उसे बैठक में भेजे जबकि बीजेपी की गुजरात लाबी अपने यसमैन अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा को ही बैठक में भेजना चाहती है मगर संघ ने नड्डा की नो एंट्री घोषित कर रखी है।
देखा जाय तो जयप्रकाश नड्डा का पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के बावजूद गुजरात लाबी के सामने कोई वजूद नहीं है वे हमेशा गुजरात लाबी के सामने पार्टी के हितों को लेकर घुटनाटेक नजर आये हैं। भले ही नड्डा बेबजूद हैं लेकिन अध्यक्ष की कुर्सी का बजूद है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चयन के लिए जो मापदंड निर्धारित किये हैं उससे गुजरात लाबी रक्तचाप ऊपर नीचे हो रहा है। खबर है कि संघ की ओर से से बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को चार शर्तों पर खरा उतरना होगा – पहली शर्त है कि “राष्ट्रीय अध्यक्ष को जेपी नड्डा की तरह गुजरात लाबी का यसमैन नहीं होना चाहिए” । दूसरी शर्त है कि “अध्यक्ष पूरी तरह से गुजरात लाबी के प्रभाव से मुक्त होना चाहिए” । तीसरी शर्त है कि “अध्यक्ष को दिल्ली की राष्ट्रीय राजनीति में बहुत ज्यादा एक्टिव (सक्रिय) नहीं होना चाहिए”। चौथी शर्त है कि “अध्यक्ष संघ की पसंद का होने के साथ ही मिलनसार होना चाहिए, पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ मेल मुलाकात करने वाला होना चाहिए तथा उसमें इतना साहस होना चाहिए कि वह पार्टी को सरकार से ऊपर रखकर सरकार के मुखिया से आंख से आंख मिलाकर बातचीत कर सके”।
जो जेपी नड्डा अपने पूरे कार्यकाल में एकबार भी नहीं कर सके । वर्तमान बीजेपी का पोस्टमार्टम करके देखा जाए तो एक भी आदमी ऐसा दिखाई नहीं दे रहा जिसमें गुजरात लाबी से आंख मिलाकर बात करना तो दूर उसके सामने ठीक से खड़ा भी हो सके। कहावत है कि जहर का इलाज जहर से ही किया जा सकता है इसलिए गुजरात के ही केवल दो आदमी ऐसे नजर आते हैं जो गुजरात लाबी का सामना कर सकते हैं पहला संजय जोशी दूसरा प्रवीण तोगड़िया। सवाल यह है कि पार्टी पर पूरी तरह से कब्जा कर चुकी गुजरात लाबी की दुकडी क्या ऐसे लोगों को बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर चुनेगी। आधे से ज्यादा दशक बीत गया सरकार के मुखिया ने संघ मुख्यालय में जाकर संघ प्रमुख से मुलाकात नहीं की होगी न ही संघ के प्रति अपनी निष्ठा का इजहार किया होगा । उल्टे संघ प्रमुख को सरकारी सुरक्षा देकर उनकी हर गतिविधियों की जानकारी रखने के लिए उन्हें अपने घेरे में ले लिया है । जेपी नड्डा ने तो खुलेआम यह कहकर संघ को उसकी हैसियत का अह्सास करा ही दिया है कि अब बीजेपी को संघ की कोई जरूरत नहीं है पार्टी अपने आप में सक्षम हो चुकी है और संघ को सांप सूंघ गया था।
संघ प्रमुख मोहन भागवत और पीएम नरेन्द्र मोदी दोनों हम उम्र हैं, दोनों 75 साल आयु कम्प्लीट करने जा रहे हैं तो कह सकते हैं कि संघ की अ. भा. प्र. स. की बैठक मोहन भागवत की अध्यक्षता में होने वाली आखिरी बैठक हो। इसलिए बतौर संघ प्रमुख अपनी अंतिम पारी खेल रहे मोहन भागवत विदाई से पहले अपनी साख, अपनी इज्जत की खातिर बीजेपी खासतौर पर गुजरात लाबी को अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं। साथ ही गुजरात लाबी के सामने भी अपनी अभी तक की तानाशाही प्रवृत्ति को बरकरार रखने की चुनौती है। तो सवाल उठना लाजिमी है कि दोनों में से झुकेगा कौन ? गुजरात लाबी और संघ प्रमुख की तुलना की जाय तो हमेशा संघ प्रमुख ही गुजरात लाबी के सामने नतमस्तक होते हुए दिखाई दिए हैं तो इस बार भी अगर संघ गुजरात लाबी के सामने सरेंडर करता है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। संघ द्वारा डेपुटेशन पर बीजेपी में भेजे गए बतौर राष्ट्रीय महासचिव राममाधव को जिस अपमानजनक तरीके से बाहर का रास्ता दिखाया गया तबसे संघ ने किसी को भी डेपुटेशन पर बीजेपी में भेजने की हिम्मत नहीं दिखाई।
जेपी नड्डा के बयान के बाद बीजेपी और संघ के भीतर अच्छी खासी दखल रखने वाले एक व्यक्ति ने आफ द रिकार्ड चंद पत्रकारों से चर्चा के दौरान कहा था कि हो सकता है आने वाले समय में बीजेपी की तरफ से डेपुटेशन पर संघ प्रमुख भेजा जाय। और अब जब अपनी अ. भा. प. स. की बैठक में शामिल होने के लिए बीजेपी को नये राष्ट्रीय अध्यक्ष को चुनने की अंतिम समय सीमा संघ द्वारा तय कर दी है और अगर बीजेपी ने उस समय सीमा के अंदर अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं चुना वह भी संघ द्वारा निर्धारित की गई शर्तों के मुताबिक तो फिर यह तय मानकर चलिए कि 2026 में जो भी सरसंघचालक होगा वह बीजेपी द्वारा डेपुटेशन पर गुजरात लाबी द्वारा भेजा गया गुजरात का ही होगा।
वैसे देखा जाए तो बीजेपी में कुशाभाऊ ठाकरे अकेले ऐसे राष्ट्रीय अध्यक्ष हुए हैं जिन्होंने पार्टी को सत्ता से ऊपर रखा है और कभी भी सत्ता के सामने माथा नहीं टेका यही कारण था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी उन्हें हजम नहीं कर पाए तथा विवाद में कई लोगों को मध्यस्थता करनी पड़ थी। मगर आज तो एक भी ऐसा नेता दूर – दूर तक नजर नहीं आता है जो नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को संगठन की ताकत बता सके, इन दोनों से आंखें मिलाना तो दूर आंखें बंद करके भी सवाल पूछ सके। प्रदेशों के भाजपाई मुख्यमंत्रियों की हालत तो इतनी दयनीय है कि मोदी शाह से हाथ मिलाने में भी उनके हाथ कांपते हैं। मोदी शाह के सामने ठीक से खड़े तक नहीं हो पाते हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जब 2009 में सरसंघचालक की कुर्सी सम्हाली तो उन्होंने चूहे को शेर बनाकर तत्कालीन शेरों (भाजपा की तीन धरोहर – अटल, आडवाणी, मुरली मनोहर) को उनकी राजनीतिक हैसियत बता दी थी। मगर अब जब भागवत की ही चलाचली का समय है तो शेर बना चूहा उन्हें ही उनकी हैसियत बता रहा है। लगता है मोहन विदाई के पहले पुन: मूसका भव: की ताक़त दिखा कर जाना चाहते हैं जिससे स्वयंसेवक आने वाले वर्षों में यह तो न कह सकें कि मोहन भागवत ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बीजेपी के चरणों में नतमस्तक करा दिया था।
हमेशा परदे के पीछे रह कर लड़ाई लड़ने वाले संघ ने पहली बार बीजेपी को अपने कब्जे में ले चुके दो गुजरातियों को 20 मार्च तक हरहाल में पार्टी अध्यक्ष चुनकर बताने का जो अल्टीमेटम दिया है वही संघ के गले की फांस बनता हुआ भी दिखाई दे रहा है। अपने अस्तित्व की इस लड़ाई में संघ डर भी रहा है कि अगर कहीं दो गुजरातियों से उसे हार का मुंह देखना पड़ा तो फिर संघ का क्या महत्व रह जायेगा और संभव है कि आने वाले वक्त में संघ के मुखिया का नाम भी दो गुजरातियों द्वारा भेजी गई पर्ची से ही निकले। संघ ऐसे दोराहे पर आकर खड़ा हो गया है जहां यह भी तय हो जायेगा कि बेंगलुरु में 21 मार्च से 23 मार्च 2025 को होने जा रही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में गुजरात लाबी के साथ ही संघ प्रमुख के अस्तित्व की भी नई इबारत लिखी जायेगी।
(क्यों नहीं संघ अपनी शक्ति को जाग्रत कर पर्ची वाली भूमिका में आकर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का नाम डिक्लेयर करता जैसे बीजेपी के दो लोगों का सिंडिकेट राज्यों में पर्ची सीएम घोषित करता है – सांप भी मर जायेगा लाठी भी नहीं टूटेगी)
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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