खरी खरी : हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें भी ले डूबेंगे !
भाजपा की तीन धरोहर अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर को साइड में लगाकर बीजेपी को अपनी उंगलियों पर नचा रही गुजराती जोड़ी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने हाल ही में जो चाल चली है वही चाल पहली बार गुजराती जोड़ी की सांसें फुला रही है। अभी तक जो मुस्लिम शब्द भारत की राजनीति में राजनीतिक मुद्दा बनकर भाजपा को लाभ पहुंचाता रहा है वही मुद्दा पहली बार भाजपा के लिए उल्टे दांव की तरह पड़ चुका है। इतना ही नहीं बीजेपी की गुजराती जोड़ी ने उसी मुद्दे को अपने सहयोगी दलों की गर्दन पर फांसी के फंदे की तरह कस दिया है। बीजेपी जोड़ी का चाहे जो हस्त्र हो मगर सहयोगी दलों और उनके क्षत्रपों की राजनीतिक जमीन मटियामेट करने के लिए बीजेपी की गुजराती जोड़ी द्वारा सोची समझी साजिश के तहत मुस्लिम समाज को लेकर वक्फ़ बिल के नाम पर किया गया संभवतः ये आखिरी राजनीतिक प्रयोग है बीजेपी का। जिसका रिजल्ट बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव बतायेंगे।
जो तीर बीजेपी के तुणीर से निकल चुका है उसे साधने के लिए युगल जोड़ी ने अभी से आदतानुसार दोहरी राजनीति का खेल खेलना शुरू कर दिया है। अब वह मुस्लिमों को कोसने-गरियाने की जगह वह एक बार फिर से विपक्षी सत्ता के दौरान हुई गड़बड़ियों के गड़े मुर्दे उखाड़ने, उनके समय हुए स्कैम पर चर्चा करने लगी है जिससे जनता का ध्यान बीजेपी सरकारों द्वारा किए गए और किये जा रहे स्कैमों, डवलपमेंट के नाम पर की जा रही बंदरबांट और विष वमन से हो रहे सामाजिक सांस्कृतिक नुकसान से ध्यान भटकाया जा सके। भारत की राजनीति में बीजेपी हमेशा से मुस्लिमों को एक राजनीतिक मुद्दा बनाकर यह कहते हुए हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण करती आई है कि उसे मुसलमानों के वोट नहीं चाहिए और आगे चलकर झूठ को सौ बार बोलने से सच लगने लगता है की तर्ज पर उसका फायदा भी बीजेपी को मिला है इसमें कोई दो राय नहीं है। भले ही बीजेपी ने संख्याबल के आसरे वक्फ़ बिल को कानून की शक्ल दे दी है, मगर बीजेपी जिस बिसात को बिछा रही है अब वह बीजेपी को ही डरा रहा है क्योंकि इस मामले में उसके साथ खुले तौर पर ना तो उसका पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और ना ही एनडीए के सहयोगी मतलब बीजेपी के सहयोगी दल। सहयोगी दलों में खासकर टीडीपी, जेडीयू, एलजेपी के क्षत्रपों चंद्रबाबू नायडू, नितीश कुमार और चिराग पासवान ने सलाखों के डर से संसद में वक्फ़ बिल के पक्ष में मतदान किया है मगर उनके सामने अपनी राजनीतिक जमीन को बचाने तथा अपने वोटरों को एकजुट रखने की मुश्किलें खड़ी होने लगी है कारण उनकी राजनीतिक प्राण वायु में मुस्लिमों का बहुत बड़ा योगदान है।
एनडीए में शामिल गैर बीजेपी पार्टियों के साथ ही देशभर में यह चर्चा चलने लगी है कि जिस तरह से बीजेपी ने अपने संख्याबल (पूर्ण बहुमत) के सहारे धारा 370, तीन तलाक जैसे विवादास्पद मुद्दों को हल कर लिया था तो फिर 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से लेकर 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले तक जब बीजेपी के पास संसद में बम्पर बहुमत था तब वक्फ़ बिल को कानून की शक्ल नहीं दिलाई आखिर क्यों ? वक्फ़ बिल को संसद के पटल पर तब लाया गया जब बीजेपी खुद बैसाखियों के सहारे सत्ता पर काबिज है। तो क्या यह बीजेपी की एक सोची समझी साजिश है अपने सहयोगी दलों खासकर चंद्रबाबू नायडू, नितीश कुमार, चिराग पासवान जैसे क्षत्रपों की राजनीतिक जमीन और उनके वोट बैंक को मटियामेट करने की ?
जिस सोच को लेकर बीजेपी वक्फ़ बिल लेकर आई थी और अब बीजेपी के भीतर से ही जो खबरें निकल कर आ रही है उसने बीजेपी को चलाने और चुनावी दौर में अपने हिसाब से बिसात बिछाने और साथ खड़े होने वालों को आवश्यकता, उम्मीद और भरोसा देने (हमारे साथ रहोगे तो राजनीतिक लाभालाभ होगा) वाले गुजरात के दो महानुभावों को परेशान कर दिया है। क्योंकि उनकी सोच के मुताबिक वक्फ़ बिल को लेकर हिन्दू समाज के भीतर जिस तरह के राजनैतिक ध्रुवीकरण की परिस्थितियां होनी चाहिए थी वह बिल्कुल भी दिखाई नहीं दे रही है यहां तक कि पश्चिम बंगाल तक में भी मरघट सी खामोशी बिखरी हुई है। जबकि चुनाव के वक्त बीजेपी ने यहां तक कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने (3 तलाक, पसमांदा मुस्लिम) मुस्लिम शब्द को राजनीतिक मुद्दा बनाकर अपने अनुकूल वोटों का धुव्रीकरण कर राजनीतिक फसल काटी है। लेकिन फिलहाल ऐसा क्या हो गया है कि वक्फ़ बिल दोधारी तलवार की तरह बीजेपी के सामने खड़ा हो गया है जहां एक तरफ हिन्दू समाज के भीतर कोई हलचल नहीं हुई और दूसरी तरफ वक्फ़ ने मुसलमानों के भीतर के तमाम मुद्दों को दरकिनार कर एक झटके में मुस्लिम समुदाय के भीतर एक बड़ा संदेश तो यह दे दिया है कि सभी को हरहाल में एकजुट होना ही पड़ेगा। मुस्लिम समुदाय की एकजुटता का सीधा नजारा खासतौर पर इस साल के अंत में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव, 2026 में पश्चिम बंगाल, असम और 2027 में उत्तर प्रदेश में देखने को मिल सकता है।
देशभर की मुस्लिम आबादी का 50 परसेंट तो बिहार, उत्तर प्रदेश, असम और पश्चिम बंगाल में ही रहता है। इन चार राज्यों में हिन्दू एकता न जाने कहां सुप्तावस्था में पड़ी है जबकि मुस्लिम एकजुटता दिखाई देने लगी है। 10 बरस के बाद बीजेपी को यह समझ में आ गया है कि नरेन्द्र मोदी का जो चेहरा चुनावी जीत की गारंटी हुआ करता था वह अपनी चमक खो चुका है और इसी बात पर आरएसएस के मुखपत्र में भी सवाल उठाया जा चुका है। शायद इसीलिए वक्फ़ को लेकर आरएसएस ने कोई बड़ा फैसला नहीं लिया और ना ही अपने स्वयंसेवकों को गांव दर गांव से राज्य दर राज्य इस बात का प्रचार-प्रसार करने के लिए भेजा कि वक्फ़ बोर्ड को क्यों केन्द्रीय सत्ता के अधीन लाया जाए। बीजेपी के साथ – साथ उसकी समर्थक क्षेत्रीय पार्टियों के भीतर इस बात पर मंथन शुरू हो गया है कि बीजेपी के हिन्दुत्व के आसरे हिन्दुओं की गोलबंदी की जगह मुसलमानों की गोलबंदी हो गई तो उन राज्यों में मुश्किल आने वाली है जहां पर आने वाले समय में चुनाव होने वाले हैं। बीजेपी भले ही यह कहती रहती है कि उसे मुसलमानों के वोट नहीं चाहिए फिर भी चुनाव के दौरान मुस्लिम मतदाताओं के घर वोटों की भीख मांगने तो जाती ही है और गाहेबगाहे 2 से 6 फीसदी मुस्लिम वोट बीजेपी को मिल ही जाता है।
वक्फ़ कानून बन जाने के बाद तो मुस्लिम समुदाय यह खुलकर कहने लगा है कि मोदी-शाह की बीजेपी मुसलमानों के साथ ही उन गैर मुसलमानों के लिए भी खतरनाक है जो धर्मनिरपेक्षता में विश्वास रखते हैं। वह धर्मनिरपेक्ष ढांचे को तहस नहस करने पर तुली हुई है। इसी तरह से देश में खामोशी छाई रही तो बीजेपी एक दिन अम्बेडकर के संविधान को भी बदल देगी। यह हिन्दू – हिन्दू कहकर हिन्दुओं को भी धोखा दे रही है। बिहार में नितीश कुमार की पार्टी जेडीयू को मुस्लिम तबके का तकरीबन 18 से 30 फीसदी वोट मिलता है वक्फ़ बिल को पास कराने के कारण अगर वह वोट एक झटके में नितीश से छिटक गया (जिसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है) तो फिर नितीश कुमार अस्ताचल में लुप्त हो जायेंगे। नितीश का मुस्लिम वोटर भाजपा को तो वोट देने से रहा और चिराग पासवान ने तो सड़क पर वक्फ़ का विरोध करने के बाद संसद के भीतर वही पाप किया है जो नितीश कुमार की पार्टी ने किया है तो फिर मुस्लिम वोट उसके पाले में भी गिरने से रहे।
पश्चिम बंगाल में पहले कांग्रेस की जमीन थी जिसे वामपंथियों ने हथिया कर लम्बे समय तक उस जमीन को उपजाऊ बनाये रखा मगर लेफ्ट की सामंतवादी सोच को तोड़ कर ममता बनर्जी ने उस जमीन पर कब्जा कर लिया और अभी तक काबिज है। यहां का मुस्लिम वोटर अगर गोलबंद होकर ममता के साथ खड़ा हो गया तो लम्बे समय से पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज होने की बीजेपी ख्वाहिश धरी की धरी रह जायेगी। असम की परिस्थितियां भी कमोवेश बिहार और पश्चिम बंगाल की तरह ही हैं। उत्तर प्रदेश में भले ही चुनाव दो बरस बाद होने हैं। वहां पर बीजेपी 80 – 20 का जाप भी करती है मगर बीजेपी कोई बहुत आगे नहीं खड़ी है उसे वहां भी सहयोगियों की जरूरत है।
वक्फ़ कानून का खौफ़ मोदी और शाह के भीतर इस कदर भर गया है कि वे अब मुस्लिमों को कोसने की जगह सबका साथ सबका विकास की बात कह रहे हैं, परिवारवाद के भूत से तो वो बाहर निकल ही नहीं सकते हैं। वक्फ़ बिल को जिस सोच के साथ मोदी शाह की बीजेपी ने संसद में पास करवा कर कानून बनवाया उसकी झलक सामने ना आने से बीजेपी का यह दांव उसके लिए और उसके सहयोगियों के लिए उल्टा पड़ गया है क्योंकि उसने मोदी शाह की सोच को उलटते हुए देशभर के मुसलमानों को गोलबंद कर दिया है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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