नीतीश कुमार और उपराष्ट्रपति पद : बीजेपी की बिहार रणनीति के इशारे
भारत की राजनीति में एक रिक्त पद केवल संवैधानिक व्यवस्था की ज़रूरत नहीं होता, वह शक्ति संतुलन का संकेत भी होता है। जब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के इस्तीफे की अटकलें सामने आईं, तो निगाहें स्वाभाविक रूप से बिहार की ओर घूम गईं—और नाम आया नीतीश कुमार का। सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार वास्तव में उपराष्ट्रपति पद के इच्छुक हैं? या यह सिर्फ राजनीतिक थ्योरी है, जिसे हवा देकर कोई गहरी रणनीति पनपाई जा रही है?
चुप्पी की राजनीति: नीतीश बोल क्यों नहीं रहे?
नीतीश कुमार वह नेता हैं जो जब चाहें, तब चौंकाते हैं। लेकिन फिलहाल उनकी चुप्पी भी उतनी ही गूंजती है। बिहार में मतदाता सूची जैसे संवेदनशील विषय पर भी उनकी प्रतिक्रिया नहीं आई है, जो पहले उनके लिए एक प्रमुख राजनीतिक अवसर होता। यह चुप्पी संकेत है—या तो वे गहराई से सोच रहे हैं या फिर उनके विकल्प सीमित हो चुके हैं।
नीतीश की ओर से किसी बयान का न आना, इस थ्योरी को और मज़बूत करता है कि शायद ‘कुछ चल रहा है’। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सबकुछ ठोस हो चुका है। राजनीति में अटकलें ज़्यादा तेज़ दौड़ती हैं, सच उससे धीमे।
बीजेपी की बेचैनी: बिहार में नंबर वन क्यों नहीं?
बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में जीत की भूख है। महाराष्ट्र में शिवसेना को तोड़कर सत्ता हथियाने वाली बीजेपी, बिहार में दो दशकों से संयम दिखा रही है। सवाल है, क्यों? अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने यूपी को अपने प्रभाव का गढ़ बना लिया, लेकिन बिहार में बीजेपी आज भी नंबर दो की स्थिति में है। संगठन मज़बूत है, कार्यकर्ता सक्रिय हैं, लेकिन जनता के बीच ‘मुख्य चेहरा’ नहीं उभर पाया।
इसलिए, नीतीश कुमार अब व्यक्ति नहीं, एक ‘कुंजी’ हैं—बीजेपी को सत्ता के दरवाज़े खोलने वाली कुंजी।
नीतीश की सामाजिक पूंजी: संख्या से ज़्यादा असर
नीतीश कुमार की जाति की जनसंख्या भले सीमित हो, पर उनकी स्वीकृति व्यापक है। बीस साल के शासन ने उन्हें स्थायित्व और भरोसे का चेहरा बनाया है। उनके समर्थक वर्ग के भीतर गहरी वफादारी है, जो उनके जाने के बाद बिखर भी सकती है। यही कारण है कि बीजेपी जल्दबाज़ी नहीं कर रही—बल्कि एक राजनीतिक वातावरण रच रही है जिसमें नीतीश का जाना ‘स्वाभाविक’ लगे, जबरन नहीं।
अगर ‘महाराष्ट्र मॉडल’ लागू किया गया तो?
नीतीश के खिलाफ अगर बीजेपी ‘शिंदे मॉडल’ अपनाती है—यानि पार्टी तोड़ना, विधायकों की बगावत कराना—तो बिहार की प्रतिक्रिया महाराष्ट्र से अलग होगी। नीतीश कुमार का जनसमर्थन और क्षेत्रीय गौरव इस हमले को भावनात्मक मुद्दा बना देगा। तेजस्वी यादव पहले ही गुजरात-बनाम-बिहार की लकीर खींचने को तैयार बैठे हैं। ऐसे में, उपराष्ट्रपति बनाकर नीतीश को सत्ता से हटाने की चाल उल्टा भी पड़ सकती है।
नीतीश थ्योरी चलेगी, लेकिन कब तक?
नीतीश कुमार को उपराष्ट्रपति बनाए जाने की अटकलें राजनीतिक विश्लेषण का हिस्सा हैं। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या यह बीजेपी की रणनीति का हिस्सा भी है या महज प्रेशर टैक्टिक? नीतीश कुमार के बिना जदयू बिखरेगी या सधेगी—इसका जवाब समय देगा।
फिलहाल, नीतीश कुमार खुद कहें या न कहें, बिहार की राजनीति में वे अब भी निर्णायक हैं। बीजेपी उनके बिना बिहार जीतने की रणनीति अभी तक साफ नहीं कर पाई है। और जब तक ऐसा नहीं होता, “नीतीश उपराष्ट्रपति बनेंगे या नहीं?”—यह सवाल हवा में रहेगा।
राजनीति में न सन्नाटा खाली होता है, न अफवाहें बेवजह उठती हैं। अगर नीतीश कुमार वाकई दिल्ली की उड़ान भरते हैं, तो वह बिहार में एक नई सियासी पटकथा की शुरुआत होगी—जिसका अंत अभी किसी के पास नहीं।
लेखक खबरी प्रसाद अखबार के संपादक हैं !
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