खरी-अखरी : मोदी काल में 63 साल बाद पराजित हुई भारत की कूटनीति और विदेश नीति
खरी-अखरी(सवाल उठाते हैं पालकी नहीं)
मोदी काल में 63 साल बाद पराजित हुई भारत की कूटनीति और विदेश नीति
आजादी के बाद भारत की कूटनीति और विदेश नीति में पहली बार टूटन तब दिखी थी जब 1962 में चाइना ने भारत पर हमला किया था। भारत को भरोसा ही नहीं हुआ कि जिस देश में हिन्दू-चीनी भाई-भाई के नारे लगते हों उस पर चीनी भाई कैसे हमला कर सकता है। भारत की पीठ पर किया गया विश्वासघाती वार भारत को बहुत भारी पड़ा। सरकार रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन को हटाने पर विवश हुई। मगर इस वार ने भारत को अपनी कूटनीति और विदेश नीति में व्यापक परिवर्तन करने का मार्ग प्रशस्त किया। सरकार ने कूटनीति और विदेश नीति की व्यापक तरीके से समीक्षा की तथा विदेश और रक्षा मंत्रालय में आमूलचूल परिवर्तन किये। उस लकीर पर लाल बहादुर शास्त्री और श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी कदमताल किया। चाइना युद्ध की परिस्थितियों से भारत को जो खामियाजा भुगतना पड़ा उससे पाकिस्तान ने यह गलतफहमी पाल ली कि भारत कमजोर हो गया है और उसने 1965 में भारत पर धावा बोल दिया। इस युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को नाकों चने चबबा कर मरते दम तक (Till Death) के लिए न भरने वाला जख्म दे दिया। जिसमें सबसे बड़ा योगदान देश और दुनिया को एक साथ लेकर चलने वाली भारतीय कूटनीति और विदेश नीति थी। 1965,1971 या उसके बाद 2014 के पहले तक भारत के साथ हुए युद्ध में भारत के मित्र राष्ट्र खुलकर कंधे से कंधा मिलाकर साथ में खड़े रहे हैं।
भारतीय कूटनीति और विदेश नीति की दूसरी सबसे बड़ी टूटन 2025 में तब नजर आई जब दुनिया भर में ढ़िढोरा पीटने के बाद एक भी देश संकट के समय भारत के साथ खड़ा नहीं हुआ। 2014 में भारत की सत्ता जिस दल और उसके नेता ने सम्हाली उसने अपनी विजातीय विचारधारा की महत्वाकांक्षा पूर्ति के लिए भारतीय कूटनीति और विदेश नीति को दरकिनार कर देश पर अपनी व्यक्तिगत कहे जाने वाली कूटनीति और विदेश नीति थोप दी। इतना ही नहीं सारे मंत्रालयों को पंगू बनाकर सभी पर अपनी नीति लागू कर दी जिससे भारत सरकार के सारे मंत्रालय और उनके मंत्री, संतरी, मातहत सभी केवल जमूरे बनकर रह गये। यानी देश की सारी नीतियां मसलन कूटनीति, विदेश नीति, रक्षा नीति, अर्थ नीति, शिक्षा नीति आदि एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमने लगी। जिसका दुष्परिणाम देश को मई 2025 में तब भोगना पड़ा जब पहलगाम आतंकी हमले में बेवजह मारे गए दो दर्जन से अधिक लोगों की शहादत का बदला लेने भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सीमा में बने आतंकी ठिकानों को नेस्तनाबूद करने के लिए हवाई हमला किया और पाकिस्तान ने जवाबी युध्द छेड़ दिया। भारत के विदेश मंत्री दुनिया भर के देशों से सहयोग मांगते फिर रहे थे और दुनिया भर के देश भारत को प्रवचन दे रहे थे जिसका दुखड़ा खुद विदेश मंत्री ने रोया है। दुनिया का एक भी देश खुलकर भारत के साथ खड़ा नहीं हुआ। यह भारत की कूटनीति और विदेश नीति की अब तक की सबसे बड़ी पराजय है।
भारत के प्रधानमंत्री ने दुनिया के तकरीबन दो तिहाई देशों की यात्राएं की, लगभग दो दर्जन से अधिक देशों के सर्वोच्च सम्मान से नवाजे गए, कई देशों के तो करीब – करीब दर्जन भर से ज्यादा फेरे लगा डाले। मगर जब पारंपरिक खानदानी दुश्मन से सामना हुआ तो कंधे से कंधा मिलाकर साथ देना तो दूर एक भी देश ने “भारत तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं” यह भी नहीं कहा। इसका मतलब यही हुआ कि दुनिया भर में घूम – घूम कर देशवासियों के टैक्स के पैसे से केवल मौज मस्ती की गई, देश हित में जरा सा भी संबंध नहीं बनाया गया, सम्मान मिला नहीं खरीदा गया, देश के भीतर मीडिया के जरिए प्रोपोगेंडा के जो फुग्गे फुलाये गये वे सब हवा हवाई जुमले थे । एक शब्द में कहा जाय तो यह दिल्ली सत्ता का देशवासियों के साथ धोखा था। इससे एक बात तो सिध्द हो गई कि एक ही व्यक्ति के इर्दगिर्द घूमने वाली देश की कोई भी नीति (कूटनीति, विदेश नीति, रक्षा नीति आदि) सफल नहीं हो सकती है।
देश उम्मीद कर रहा है कि एकला चलो की नीति के तहत देश को हांकने वाली दिल्ली सत्ता की आंखें खुल गई होगी और वह अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को समेट कर तथा एकला चलो की नीति को दरकिनार कर सबको साथ लेकर चलेगी। वैसे भी नित बदलती हुई दुनिया में अब पारंपरिक कूटनीति और विदेश नीति कारगर नहीं रह गई है। मौजूदा वक्त में सरकार के सामने आज की परिस्थितियों को समझकर भारत के अनुकूल नई परिस्थितियों को गढ़ने की चुनौती है। प्रतिस्पर्धी देश भारत और पाकिस्तान आमने – सामने हैं। भारत और चाइना आर्थिक तौर पर और सीमा को लेकर कहीं ज्यादा बड़े प्रतिद्वंद्वी और प्रतिस्पर्धी दोनों हैं। भारत और रशिया को पिछले कई सालों से रणनीतिक तौर पर साझेदार माना जाता है मगर इस दौर में रशिया और चाईना आपसी सहयोगी के रूप में उभर कर सामने आये हैं। चाइना पाकिस्तान को उसी तरह से प्रश्रय दे रहा है जैसे कभी अमेरिका पाकिस्तान का सरपरस्त हुआ करता था। अमेरिका से आने वाली पूंजी ही पाकिस्तान में रह रहे आतंकवादियों की आजीविका थी। अमेरिका न तो ओसामा बिन लादेन को भूला है न ही 9/11 को, अलकायदा को लेकिन अब अमेरिका के भीतर भी बड़ा चेंज आ गया है इसीलिए वह अब पाकिस्तान के समकक्ष भारत को खड़ा कर रहा है। तुर्की बतौर दोस्त पाकिस्तान के साथ खड़ा है।
तुर्की नाटो का सदस्य देश है। नाटो सदस्य का मतलब अमेरिका के सिक्योरिटी परिवार का हिस्सा। भारत भी क्वाड (क्वाड्रिलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग मतलब चतुर्भुज सुरक्षा संवाद) (QUAD – Quadrilateral Security Dialogue) का सदस्य है जिसमें अमेरिका, आस्ट्रेलिया और जापान भी हैं। इसके अलावा ब्रिक्स ( ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन दक्षिण अफ्रीका), जी – 20, आसियान, सार्क जैसे कई अन्तरराष्ट्रीय संगठनों का सदस्य है। फिर भी मुसीबत के समय कोई भी सहयोगी कटे में मूतने नहीं आता है । इस मामले में पाकिस्तान की स्थिति ज्यादा बेहतर है उसके साथ चीन और तुर्की न केवल खड़े हैं बल्कि हथियारों से मदद भी कर रहे हैं । अब समय आ गया है कि भारत सरकार के सभी मंत्रालयों को एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द चक्कर काटने वाली नीति बनाना छोड़कर देश के व्यापक हितों को सामने रखकर नीतियां बनानी होगी। हर मंत्रालय के मंत्री और उसमें काम कर रहे ब्यूरोक्रेट्स को व्यक्तिश: जिम्मेदारियां लेनी होगी। जिस तरह से रक्षा मंत्री राजनाथ ने अपने मंत्रालय की जिम्मेदारी लेने का पब्लिकली बयान दिया है उसी तरह सभी मंत्रालय के मंत्रियों को व्यक्ति परिक्रमा से इतर देश परिक्रमा करने आगे आना होगा।
जिस तरह सरकार के भीतर से अब आगे से सबको साथ लेकर चलने की आवाज सुनाई दे रही है वैसी आवाज तो उरी, पुलवामा, पठानकोट की घटना के बाद भी सुनाई नहीं दी थी। दुनिया की बदलती हुई कूटनीति और विदेश नीति को समझने के लिए दो उदाहरण ही पर्याप्त हैं। जिस वक्त नाटो देश रशिया पर प्रतिबंध लगा रहे थे तब नाटो का सदस्य होने के बाद भी तुर्की ने प्रतिबंध लगाने से मना कर दिया था इसी तरह क्वाड का सदस्य होने के बाद भी भारत रशिया पर प्रतिबंध लगाने के लिए सदस्य देश अमेरिका, आस्ट्रेलिया और जापान का साथ नहीं देता है। यानी अब ग्रुप देश अपनी संगठनात्मक एकजुटता खोते चले जा रहे हैं। अब हर देश दूसरे देशों के साथ खड़ा होने से पहले अपने हितों को तबज्जो देगा। अपने नफे-नुकसान का आंकलन करने के बाद ही वह दूसरे देश के पक्ष या विपक्ष में खड़ा होगा। दुनिया का हर देश जो भारत के साथ खड़ा होने की बात करता है उसके पीछे दुनिया के मानचित्र पर भारत का सबसे बड़ा बाजार होना है।
दिल्ली दरबार अब पहलगाम घटना, आपरेशन सिंदूर और सीज फायर के मद्देनजर दुनिया का ध्यान खींचने के लिए दुनिया भर के देशों में सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल भेजने की ओर कदम बढ़ाने जा रही है। न्यू वर्ल्ड ऑर्डर के तहत हर देश चाहे वह अमेरिका हो या चीन, रशिया हो या फिर यूरोपीय यूनियन सभी किसी न किसी देश को साथ रखने की कवायद कर रहे हैं, भारत भी कर रहा है लेकिन फिलहाल हर देश भारत के साथ खड़ा होने से परहेज कर रहा है । फिर भी भारत को नई सोच और नई नीति के साथ सभी को साथ लेकर चलना होगा वरना डुगडुगी बजाकर थोथे प्रचार से हथेली खाली ही रहेगी। समय आ गया है जब वर्तमान सरकार को अहंकार और एकला चलो की नीति का पूरी तरह से परित्याग कर ईमानदारी के साथ सबको साथ लेकर न्यू वर्ल्ड ऑर्डर के अनुसार कूटनीति और विदेश नीति बनाकर चलते हुए दुनिया के मानचित्र में भारत को उस ताकत के साथ स्थापित करना होगा जहां दुनिया भारत की जरूरत का अह्सास करे वरना फिर यही कहते रहेंगे कि हमारा साथ कोई नहीं दे रहा है, कोई हमारे साथ खड़ा नहीं हो रहा है। विश्वास खो चुका है दिल्ली दरबार !
देश की अंदरूनी राजनीतिक हकीकत यही है कि दिल्ली सत्ता पर कोई भी विपक्षी पार्टी विश्वास करने को तैयार नहीं है। कारण वह हर आपदा में अपने सत्ता विस्तार तथा चुनावी लाभ के लिए अवसर तलाशने में माहिर है। उरी, पुलवामा, पठानकोट की घटना से सीधे तौर पर सत्ता विस्तार का मार्ग प्रशस्त हो गया था जिससे उसने विपक्षी दलों के साथ एकजुटता को याद नहीं किया और एकला चलती रही। पहलगाम पहली ऐसी घटना है जिससे आने वाले चुनाव में सीधा लाभ होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। आपरेशन सिंदूर से होने वाले चुनावी लाभ पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने सीज फायर का ऐलान करके दिल्ली सत्ता के अरमानों पर पानी फेर दिया है। कहा जाता है कि इसीलिए दिल्ली सत्ता द्वारा पहलगाम में हुई चूक, सीज फायर से चेहरे पर पुती हुई कालिख को आपरेशन सिंदूर रूपी साबुन से साफ करने की योजना बनाई जा रही है जिसमें पहली बार विपक्षी दलों को साथ लेकर चुनावी वैतरणी पार करने के ताने-बाने बुने जा रहे हैं।
पहलगाम, आपरेशन सिंदूर और सीज फायर की जानकारी देने के लिए सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल बनाने के लिए सभी राजनीतिक दलों के साथ सलाह-मशविरा किया जाना चाहिए था मगर दिल्ली ने एकबार फिर से अपनी मनमर्जी चलाते हुए प्रतिनिधि मंडल में लोगों को शामिल करना शुरू किया तो विवाद सामने आ गया। एक अच्छी-खासी सोच पर दिल्ली दरबार ने अपनी ओछी मानसिकता से राजनीतिक पलीता लगा दिया है। वैसे भी ज्वाइंट कमेटी बनने के पहले बीजेपी ने तिरंगा यात्रा निकालते हुए आपरेशन सिंदूर का बिहार चुनाव में राजनीतिक फायद उठाने का संकेत तो दे ही दिया है। दिल्ली दरबार जो चित को चित और पट को भी चित करने में माहिर है, उसने आपरेशन सिंदूर के नाम पर ऐसा जाल बिछाया है जिसमें विपक्षी दलों का फंसना तय है चाहे वह कमेटी में शामिल हो या ना हो। कमेटी में शामिल होकर वह बीजेपी के लिए ही राजनीतिक फायदे के लिए काम करेगा अगर शामिल नहीं होता है तो दिल्ली सत्ता उसे बदनाम करके चुनावी लाभ तो उठा ही लेगी। यानी विपक्षियों के लिए एक तरफ कुआं है तो दूसरी तरफ खाई है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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