खरी-अखरी: अमेरिकी डॉलर या ब्रिक्स करेंसी में से किसके साथ खड़ा होगा भारत.?
एक तरफ अमेरिका के साथ चल रहे व्यापारिक समझौते की बातचीत पूरा होने की समय सीमा के बचे चंद घंटे और दूसरी ओर इन्हीं चंद घंटों में ब्राजील में होने जा रही ब्रिक्स की बैठक और उसमें चाइना, रशिया और ईरान के राष्ट्राध्यक्षों की गैरमौजूदगी के बीच भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्वपूर्ण उपस्थित ने नरेन्द्र मोदी को ही दो पाटों के बीच फंसा दिया है। फंसा दिया इस मामले में कि 2023 की ब्रिक्स बैठक में जब ब्रिक्स देशों के बीच किये जाने वाले व्यापारिक भुगतान के लिए ब्रिक्स की डिजिटल करेंसी पर जो सहमति बनी थी उसे भारत का भी समर्थन था और उस समय भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही थे और जब 2024 में अमेरिकी चुनाव के बाद राष्ट्रपति चुने गए डोनाल्ड ट्रम्प ने शपथ लेते ही ब्रिक्स देशों द्वारा लाई जाने वाली करेंसी को डाॅलर के खिलाफ बताते हुए चेताया था तब भी भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही थे और इन्होंने कहा था कि ब्रिक्स कोई करेंसी नहीं ला रहा है। अब जब 2025 में ब्रिक्स की बैठक हो रही है तो चाइना एक बार फिर से ब्रिक्स देशों के बीच होने वाले व्यापारिक भुगतान के लिए डाॅलर से हटकर अपनी एक करेंसी का प्रस्ताव रख रहा है और अगर यह प्रस्ताव पास होता है तो क्या वह सर्वसम्मत होगा या बहुमत से होगा यानी इस संयुक्त प्रस्ताव को भारत की मंजरी होगी या फिर चाइना में हुई SCO की बैठक के बाद जारी किए गए संयुक्त बयान से भारत किनारा कर लेगा। मतलब भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सांप और छछूंदर वाली स्थिति में फंसते हुए दिखाई दे रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के सामने दुविधा यह कि वे अपने तथाकथित दोस्त डोनाल्ड ट्रम्प के साथ खड़े हों या डाॅलर के समानांतर लाने वाली वैकल्पिक मुद्रा (ब्रिक्स करेंसी) के साथ खड़े हों।
ब्रिक्स के मूल 5 देशों में शामिल हैं चीन, रूस, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका। ब्रिक्स के मूल देशों ने जब पश्चिमी देशों के प्रभाव से मुक्त होने की सोच के तहत डाॅलर के समानांतर वैकल्पिक करेंसी लाना तय किया तो यह भी तय किया गया कि अपनी आर्थिक ताकत बढ़ाने के लिए विकासशील देशों को ब्रिक्स में शामिल किया जाय। इसी सोच के तहत ही 2024 में मिस्र, इथोपिया, ईरान, इंडोनेशिया, साउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात को शामिल किया गया और ब्रिक्स देशों की संख्या 5 से बढ़कर 11 हो गई। जिससे ब्रिक्स को एक नई पहचान अन्तरराष्ट्रीय तौर पर पश्चिमी देशों को चुनौती देने वाली बन गई। क्योंकि रूस, चीन की इकोनॉमी के साथ भारत, ईरान, साउथ अफ्रीका और बाकी सदस्य देशों की इकोनॉमी मिलकर वर्ल्ड इकोनॉमी का 22 फीसदी होती है। 44 फीसदी कच्चा तेल, दुनिया की आबादी का 45 फीसदी इन्हीं ब्रिक्स देशों के भीतर है लेकिन यह भी सच है कि दुनिया डाॅलर के साथ चलती है यानी दो देशों के बीच होने वाले व्यापार का लेखा-जोखा अमेरिकी डॉलर के जरिए ही होता है। यह अलग बात है कि 2000 में डाॅलर का जो ग्लोबल फाॅरन एक्सचेंज 72 परसेंट था वह घटकर 58 परसेंट हो गया है इसके बावजूद भी ग्लोबल ट्रेड की जो इनवाइस बनती है वह 88 परसेंट डाॅलर में ही बनती है।
अक्टूबर 2024 को रूस के कजाकिस्तान में हुई ब्रिक्स की बैठक में जब ब्रिक्स द्वारा वैकल्पिक करेंसी को लेकर माथापच्ची हो रही थी उस समय अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया चल रही थी। अमेरिकी राष्ट्रपति की शपथ लेते ही डोनाल्ड ट्रम्प ने फरवरी 2025 में ब्रिक्स देशों को वैकल्पिक करेंसी को लेकर चेतावनी दी थी तो सवाल उठ रहे हैं कि क्या ट्रम्प की चेतावनी से डरकर ही ब्रिक्स समिट में चाइना, रशिया, ईरान, मिस्त्र के राष्ट्राध्यक्षों की गैरमौजूदगी है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसलिए मौजूद हैं कि वे अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के दोस्त हैं और ट्रम्प की चेतावनी के अनुरूप बयान भी दे चुके हैं। उन्होंने शायद इस बात की कल्पना भी नहीं की होगी कि ट्रम्प की चेतावनी के बाद भी ब्रिक्स की बैठक में चीन फिर से डाॅलर के समानांतर ब्रिक्स देशों के बीच वैकल्पिक करेंसी लाने का प्रस्ताव लायेगा अन्यथा हो सकता है कि मोदी भी ब्रिक्स की बैठक से किनारा कर लेते !
वर्ल्ड पालिटिक्स पर नजर रखने वाले समाचार ऐजेंसियों के समूह और इकोनामिस्ट जो संकेत दे रहे हैं उससे तो यही लगता है कि ब्राजील में हो रहे ब्रिक्स समिट में वैकल्पिक करेंसी उभर कर सामने आ सकती है। चाइना इसे लागू करवा सकता है, तो चाइना, रशिया, ईरान के राष्ट्राध्यक्षों का ब्रिक्स की बैठक में ना आना क्या एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है ? रशिया के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए जुड़ेंगे। China plans to launch a new payment system through BRICS which will pose a threat to the US dollar ! China is nearing the launch of new BRICS supported payment system, in a bold move to challenge the dominance of the US dollar ! The BRICS currency the new reserve currency A Russian economist gave me this bill of course, it’s just a symbol because even if the group is creating a new reserve currency. It won’t take the form of paper money it will be a digital currency. And it is important to note that it will not be contrary to what’s being said, to debunk this myth a single currency.
यदि वास्तव में ब्रिक्स देश अपने बीच किये जाने वाले व्यापारिक लेन-देन का भुगतान डाॅलर की जगह अपने द्वारा लाई गई वैकल्पिक करेंसी से करना तय करते हैं तो ईरान पर लगाये गये प्रतिबंध, रूस पर लगाये गये प्रतिबंध एक झटके में ना केवल बेअसर हो जायेंगे बल्कि अमेरिकी इकोनॉमी पर भी गहरा असर पड़ेगा। और ये ऐसे हालात होंगे जो अमेरिका के सामने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कभी नहीं आए होगें। मौजूदा हालात में ब्रिक्स के भीतर शामिल देशों में भारत अकेला ऐसा देश है जो अमेरिका के करीब है या यूं कहें कि इजराइल और ईरान तथा रूस और यूक्रेन के बीच हुए युद्ध के दौरान भी भारत अमेरिका के पक्ष में रहा है। इसके अलावा बाकी 10 देशों में कोई भी ऐसा देश नहीं है जिसकी भूमिका अमेरिका के अनुकूल हो।
सवाल है कि क्या ब्रिक्स की बैठक का ऐजेंडा करेंसी विरुद्ध आतंकवाद और पाकिस्तान होगा या फिर ब्रिक्स करेंसी विरुद्ध डाॅलर होगा। सवाल यह भी है कि क्या चीन ब्रिक्स देशों के बीच सपोर्टेड पेमेंट सिस्टम यानी न्यू ब्रिक्स डिजिटल इकोनॉमी लेकर आयेगा ? अमेरिका की प्रतिक्रिया क्या होगी ? वैसे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पहले ही कह दिया है कि अगर ब्रिक्स देश वैकल्पिक करेंसी लेकर आते हैं तो उन पर एक्स्ट्रा 10 फीसदी टेरिफ लगाया जायेगा। अंतिम सवाल यह है कि क्या अन्तरराष्ट्रीय तौर पर ब्रिक्स की बैठक एक नये परिदृश्य को जन्म दे सकती है। शायद दुनिया की नजर इसी बात को लेकर टिकी हुई है क्योंकि यह ईकानमी वार (पूंजी युद्ध) की दिशा में बढ़ते हुए कदम हैं जो ट्रेड वार से एक कदम आगे है। यानी ट्रम्प ने महत्वपूर्ण माने जाने वाले सामरिक युद्ध की शब्दावली को ही बदल कर रख दिया है। पूरी दुनिया ट्रेड वार में खो गई है। अगर डाॅलर के समानांतर ब्रिक्स करेंसी ईजाद हो जाती है तो यह ट्रेड वार के आगे की स्थिति होगी।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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