खरी खरी : खुले तौर पर चुनौती दे रहा है सोशल मीडिया… गोदी मीडिया को !
“भारत का प्रधानमंत्री **** है” ना तो ये सवाल नया है और ना ही नारा। याद कीजिए एक वक्त भारत की राजनीतिक बस्तियों में एक ही नारा सुनाई देता था “गली – गली में शोर है……” और ये नारा धीरे-धीरे राजनीति के भीतर समाविष्ट होकर राजनीति का अभिन्न अंग सा बन गया। और जिस तरह से मौजूदा समय में चोर शब्द प्रधानमंत्री के साथ जोड़ा जा रहा है तो क्या वाकई संविधान संकट में है ? देश का लोकतंत्र खतरे में है ? क्या मौजूदा वक्त में जो देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जिन सीटों के भरोसे विराजमान हैं अगर उन सीटों पर ईमानदारी के साथ चुनाव लड़ा गया होता और देश के चुनाव आयोग ने निष्पक्षता के साथ चुनावी प्रक्रिया को पूरा किया होता तो जिस पार्टी का व्यक्ति प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा हुआ है उस पार्टी को उतनी सीटें नहीं मिल पाती जितनी मिली हैं और वह व्यक्ति प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठ पाता ? क्या बीते 10 बरस की सत्ता ने देश के लोकतंत्र को अपनी मुठ्ठी में कैद कर लिया है ? क्या मौजूदा समय में लोकतंत्र के जितने भी पायदान हैं उन सबको मौजूदा सत्ता ने एक-एक करके धराशायी कर दिया है ? ये सवाल देश के भीतर देश की आजादी के 78 वीं सालगिरह में इसलिए बड़ा और खड़ा हो गया है क्योंकि बीते दस बरस में देश ने देश के भीतर जिस तरह से संवैधानिक और स्वायत्त संस्थाओं का ढ़हना, देश के भीतर में लोकतांत्रिक तौर पर मौजूद संस्था का काम ना करना या काम करना तो केवल सत्ता के लिए काम करना, और बात यहां से बढ़ते हुए देश के लोकतंत्र का सबसे बड़ा असल पहरुआ चुनाव आयोग का कटघरे में खड़ा होना देखा है। और जब चुनाव आयोग ही आकर कटघरे में खड़ा हो गया है तो फिर उसके बाद कुछ बचता नहीं है यानी देश के संविधान और लोकतंत्र की हथेली खाली है।
चुनाव आयोग ने 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर ना केवल अपनी साख को दांव पर लगाया बल्कि देश के लोकतंत्र, संविधान के साथ ही प्रधानमंत्री पद की प्रतिष्ठा को भी दांव पर लगा दिया है। इतना ही नहीं अब जबकि मामला सुप्रीम कोर्ट के पाले में खो-खो खेल रहा है तो उससे सुप्रीम कोर्ट की भी स्थिति सांप-छछूंदर जैसी होकर रह गई है। सुप्रीम कोर्ट के सामने सबसे बड़ा संकट तो यही दिख रहा है कि वह पिछले कई वर्षों से हो रही अपनी धूमिल छबि को उजला बनाकर अपनी साख को बचाने के साथ ही लोकतंत्र और संविधान की साख को बचाये या फिर चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री पद की प्रतिष्ठा को बचाये। अगर पलड़ा सत्तानूकूल हुआ तो देश के भीतर यही संदेश जायेगा कि सुप्रीम कोर्ट के भीतर बैठे हुए न्यायमूर्ति भलै ही चाहे नैतिकता की कितनी भी बातें करते हों लेकिन उनके फैसले सत्तानूकूल होने का दामन नहीं छोड़ पा रहे हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह के मैन्यूपुलेशन का खुलासा चुनाव आयोग के ही दस्तावेजों से निकल कर सामने आया है और अब यह बात संसद भवन के गलियारों से निकलकर खुले तौर पर सड़कों पर रेंगने लगा है तो उसने इस सवाल को भी जन-जनतक पहुंचा दिया है कि क्या नरेन्द्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री देशवासियों के वोट से बनने के बजाय चुनाव आयोग द्वारा मैनेज किये गये वोटों की बदौलत बने हैं ? तो क्या 2024 का लोकसभा चुनाव ऐसा चुनाव है जो लड़ा ही नहीं गया बल्कि मैनज (चोरी) कर लिया गया है ?
देश में एक तरफ वो मीडिया है जिसे सत्ता की विरुदावली गायन करने के कारण गोदी मीडिया कहा जाता है और दूसरी तरफ उसके समानांतर खड़ा हुआ है सोशल मीडिया। सोशल मीडिया के भीतर जो शोर, हंगामा है वह पहली बार मेनस्ट्रीम मीडिया या कहें गोदी मीडिया को खुलेआम चुनौती दे रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो भी संवाद भारत से निकल कर बाहर जा रहा है वो तो पहला मैसेज यही दे रहा है कि नरेन्द्र मोदी गलत तरीके से प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हैं। इतना भर नहीं 2024 के लोकसभा चुनाव में जो भी सांसद जीता है या हारा है अपनी जीत-हार को संदेह की दृष्टि से देखने लग गया है ! ये सवाल न तो ईवीएम का है न ही बैलेट पेपर से चुनाव कराने का है बल्कि ये सवाल तो देश के भीतर में जिसकी अगुआई में या कहें जिसकी छत्रछाया में या कहिये जिसकी अम्पायरिंग में लोकतंत्र का जो खेल चुनाव के तौर पर खेला जाता है उस खेल को ही अम्पायर ने अपने अनुकूल कर लिया और अम्पायर सत्ता के अनुकूल हो गया। इस तरह की परिस्थिति देश के सामने आजादी के बाद से कभी नहीं आई है। क्या वाकई देश की जनता अपने नुमाइंदों के भरोसे उस संसद को देख रही है जिसमें बीजेपी के जो सांसद (240) हैं तो उससे कहीं ज्यादा सांसद (320) बीजेपी से हटकर हैं, जितने वोट बीजेपी को मिले हैं (37 फीसदी) उससे ज्यादा वोट (63 फीसदी) दूसरों को मिले हैं। बीजेपी को मिली 240 सीटों में से लगभग 35-40 सीटें ऐसी है जो खुले तौर पर चुगली कर रहीं हैं कि उन्हें जीतने के बजाय मैनेज (चोरी) किया गया है। जिसकी झलक चावल के एक दाने की तर्ज पर बेंगलुरू सेंट्रल (लोकसभा सीट) का परीक्षण कर देश के सामने कांग्रेस नेता और लीडर आफ अपोजीशन राहुल गांधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में रखा। इसकी कल्पना तो देश ने कभी की ही थी कि चुनाव भी चोरी हो सकता है। लोकतंत्र को इस रास्ते पर भी चल कर खत्म किया जा सकता है।
शायद यही कारण है कि पहली बार विपक्ष की सभी पार्टियों ने अपने मतभेदों को दरकिनार कर एक साथ संसद से सड़क तक बबाल काटा है। जिसमें पुलिस द्वारा लगाए गए अवरोध भी नाकारा साबित हुए ! विपक्षी नेताओं का कहना था कि यह राजनीति नहीं है बल्कि संविधान बचाने की परिस्थितियों के बीच खेला जा रहा खेल है। सांसदों ने जिस तरह से सड़क पर उतर कर प्रदर्शन किया उससे पहली बार पार्लियामेंट और उसके बाहर उठाए गए तमाम मुद्दे बेमानी से होकर रह गये 2024 के लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग द्वारा किये गये वोटों के मैनेजमेंट के मुद्दे के सामने। क्योंकि 2024 का चुनाव एक फेक चुनाव था और उस चुनाव में जिस तरह से जनादेश को बताया गया उसमें चुनाव आयोग की भूमिका खलनायक की तर्ज पर उभर कर सामने आयी है ! चुनाव मैनेज को लेकर वरिष्ठ कांग्रेस नेता (राज्यसभा सदस्य-पूर्व मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश) दिग्विजय सिंह के वे कथन लोगों के जेहन में रेंगने लगे हैं जो उन्होंने मध्यप्रदेश की धरती पर खड़े होकर एक वक्त विधानसभा चुनाव के दौरान कहा था कि चुनाव जनता के वोट से नहीं प्रशासनिक मैनेजमेंट से जीते जाते हैं। एक वक्त इंदिरा गांधी ने देश में घोषित इमर्जेंसी लगाई थी और उसका खामियाजा भी भुगता था । वर्तमान सत्ता ने उससे सबक लेते हुए घोषित इमर्जेंसी से परहेज करते हुए देश के भीतर कुछ ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी जिसने देश के भीतर घोषित इमर्जेंसी से ज्यादा भयावह हालात पैदा कर दिए।
परंपरागत रूप से कार्पोरेट खुले तौर पर सत्तानशीन पार्टी को फंडिंग करता रहा है चाहे वह छत्रपों की पार्टी ही क्यों न रही हो। बीते दस बरस में ऐसी परिस्थिति निर्मित कर दी गई है कि कोई भी कार्पोरेट किसी भी हालत में बीजेपी को छोड़कर किसी भी दूसरी पार्टी को फंडिंग नहीं कर सकता है। अगर किया तो ईडी, सीबीआई, आईटी नामक जिन्न तो हैं ही उसे सबक सिखाने के लिए। यह भी शायद पहली बार हो रहा है कि बीजेपी के सांसदों को छोड़कर किसी भी दूसरी पार्टी के सांसद का काम बिना सत्ता की इजाजत के नहीं हो सकता है और हो भी क्यों जब सत्ता अपने तौर पर अपने आप को इस रूप में रखने के लिए तैयार है कि देश में एक ही राजनीतिक दल है, एक ही जीत है, एक ही जनादेश है और उसी जनादेश के आसरे सत्ता उसी तरह बरकरार रहेगी। देश के भीतर में जनता से जुड़े हुए हर मुद्दे का अस्तित्व हरहाल में चुनावी जीत से तय होगा चाहे वह कितना भी अहम और बड़ा मुद्दा क्यों न हो। देश के भीतर जिस किसी ने भी अपने गले में बीजेपी और आरएसएस का तमगा लटकाकर रखा हुआ है तो देश के भीतर कोई भी थाना उसके खिलाफ एफआईआर लिखने की हिमाकत नहीं कर सकता है। सड़क पर उतरे हुए विपक्ष ने शायद यही संदेश देने की कोशिश की है कि देश के भीतर देश की संसदीय राजनीति ध्वस्त हो चुकी है। देश के संविधान के तहत जो चैक एंड बैलेंस की व्यवस्था थी उसे भी धराशायी कर दिया गया है।
ऐसी परिस्थिति में देश के पास एक ही रास्ता बचता है संविधान की व्याख्या करने वाली संवैधानिक संस्था सुप्रीम कोर्ट के पास जाने का। लेकिन बीते 10 बरस में जिस तरीके से सुप्रीम कोर्ट ने देश को मृगमरीचिका में भरमाते हुए अपने फैसले के तराजू के एक पलड़े को सत्ता की तरफ झुकाया है उसने अफलातून की इसी बात को सच साबित किया है कि “यह दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है कि न्याय सबके लिए बराबर होता है। कानून के जाल में केवल छोटी मछलियां फंसती हैं, मगरमच्छ तो जाल फाड़ कर बाहर निकल आते हैं”। अब तो ऐसा लगने लगा है कि सत्ता के गिरफ्त से बची हुई देश की सबसे बड़ी अदालत भी सत्ता की गिरफ्त में आती जा रही है। अदालतें अब न्याय नहीं निर्णय करने लगी हैं सामने वाले की हैसियत (औकात) को देखकर। पीएम मोदी की सरकार तो यही मैसेज देती हुई दिखाई दे रही है कि हमें जनता ने चुना है तो अगले चुनाव तक हम ही इंडिया हैं, हमसे कोई सवाल मत पूछिए। अगर सवाल पूछना ही है तो उस जनता से पूछिए जिसने हमें चुना है। जनता से पूछने के लिए चुनाव में जाना होगा और चुनाव में जाने के मायने और मतलब बहुत साफ है कि संवैधानिक पद पर बैठा हुआ व्यक्ति संविधान से मिली हुई ताकत का उपयोग अपनी राजनीतिक सत्ता को बचाने के लिए संवैधानिक संस्थाओं को ही धराशायी करता चला जा रहा है। शायद देश में परोसी गई शून्यता का जवाब ही है पार्लियामेंट से निकलकर सड़क पर जमा हुई सांसदों की कतार। शायद इसका जवाब किसी के पास नहीं होगा क्योंकि ये भारत के भीतर अपने तरह की पहली परिस्थिति है और शायद ये परिस्थिति ही मौजूदा सत्ता के लिए लास्ट वार्निंग भी है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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