पत्रकारिता के नाम पर सत्ता की भाषा बोलने वालों की संख्या बढ़ी !
दुनियाभर में पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर संकट : सत्ता की भाषा बोल रहे ज्यादातर पत्रकार
नई दिल्ली रीतेश माहेश्वरी
वैश्विक परिदृश्य में पत्रकारिता, जो कभी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानी जाती थी, अब भारत के साथ साथ कई देशों में सत्ताधारी वर्ग के प्रचार उपकरण में तब्दील होती जा रही है। लोकतांत्रिक मूल्यों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस दौर में यह बदलाव गंभीर चिंता का विषय बन गया है।
आज दुनिया के कई देशों में पत्रकारिता का उद्देश्य सत्ता से सवाल पूछना नहीं, बल्कि सत्ता की भाषा बोलना हो गया है। टीवी न्यूज एंकर से लेकर संपादकीय पंक्तियों तक, सब कुछ इस बात से तय होने लगा है कि किस बयान या खबर से नौकरी बनी रहेगी और किससे पदोन्नति की संभावना। यह वही मानसिकता है, जो राजशाही युग में राजा की प्रशंसा करने के लिए नियुक्त कवियों और इतिहासकारों में दिखती थी—बस माध्यम और मंच बदल गया है।
लोकतंत्र में सत्ता की आलोचना अपराध बनता जा रहा है !
रूस, चीन और यहां तक कि अमेरिका जैसे देशों में भी पत्रकारिता को लेकर सवाल उठ रहे हैं। रूस में राष्ट्रपति पुतिन की आलोचना लगभग असंभव है, जबकि चीन में सरकार के खिलाफ बोलना सीधे तौर पर दमन को आमंत्रित करता है। अमेरिका, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात होती है, वहां भी मीडिया मालिकों के राजनीतिक हित खबरों की दिशा तय कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, जब अमेज़न के संस्थापक जेफ बेज़ोस ने New York Times जैसे प्रतिष्ठित अखबार में हस्तक्षेप किया, तो कई पत्रकारों और विश्लेषकों ने इसे संपादकीय स्वायत्तता पर हमला माना।
पत्रकारिता बनाम बाजारवाद !
अब पत्रकारिता केवल मिशन नहीं, बल्कि एक उद्योग बन गई है—एक ऐसा उद्योग जहां लाभ और प्रभाव प्राथमिक हैं, न कि सच्चाई और जवाबदेही। मीडिया संस्थानों के मालिकों के लिए पत्रकारिता अब एक व्यवसाय है, और तथाकथित पत्रकारों के लिए यह आर्थिक समृद्धि का साधन। सत्ता और कॉरपोरेट के इस गठजोड़ में आम जनता और उनकी समस्याएं कहीं गुम हो गई हैं।
नई पीढ़ी और पत्रकारिता से दूरी !
आज की युवा पीढ़ी पत्रकारिता को एक प्रेरणादायक पेशा नहीं मानती। मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई करने वाले छात्र अब पत्रकार नहीं, बल्कि PR एजेंसी, मार्केटिंग फर्म और कॉरपोरेट कम्युनिकेशन में अपना करियर बनाना चाहते हैं। उनके लिए इंस्टाग्राम रील्स और सोशल मीडिया प्रभाव ज्यादा महत्वपूर्ण है, न कि जन सरोकार या सच्चाई की खोज।
पुरानी पीढ़ी की कसक और आज की हकीकत !
वरिष्ठ पत्रकारों का अनुभव यह बताता है कि पहले पत्रकारिता एक मिशन थी—ना पद की लालसा, ना पैसे की चाह। जो मिला, उसे स्वीकार किया और जनता के सवालों को उठाना प्राथमिकता रही। लेकिन अब मीडिया एक बाजार है, पत्रकार एक उत्पाद, और सच्चाई अक्सर हाशिये पर।
वर्तमान में पत्रकारिता एक कठिन मोड़ पर खड़ी है, जहां उसे यह तय करना है कि वह लोकतंत्र की रक्षक बनी रहेगी या सत्ता की प्रवक्ता । नई पीढ़ी और संस्थानों को आत्ममंथन करना होगा कि वे किस दिशा में जा रहे हैं। वरना आने वाले समय में पत्रकारिता केवल इतिहास की किताबों में स्वतंत्र कहलाएगी—वास्तविकता में नहीं।
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