खरी-अखरी : गले का फंदा बनते हुए दिखाई दे रहा है बिहार चुनाव मोदी सत्ता के लिए !
गले का फंदा बनते हुए दिखाई दे रहा है बिहार चुनाव मोदी सत्ता के लिए !
नहीं लेना था तो नहीं लिया नितीश कुमार का नाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने। गजब का कांफिडेंस है ज्ञानेश कुमार पर। 8 नवम्बर की ही तो तारीख थी ठीक 9 साल पहले जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रात को 8 बजे दूरदर्शन पर प्रगट होकर कहा था कि रात 12 बजे के बाद से 500 और 1000 के नोट रद्दी कागज का टुकड़ा बनकर रह जायेंगे और सुबह से पूरे देश में अफरातफरी मच गई थी। देशभर के बैंकों के आगे नोट बदलने के लिए लम्बी – लम्बी कतारें लग गई थी। मजे की बात यह थी कि सुर्खियां बटोरने के लिए पीएम मोदी ने अपनी माँ को भी बैंक की कतार में खड़ा करने से परहेज नहीं किया था। जिसे आगे चलकर उन्होंने जनता की सहानुभूति पाने के लिए भुंजाया भी खूब था। प्रधानमंत्री के इस तुगलकी फरमान का भुगतमान बिहार की जनता ने भी बखूबी भुगता है। इतना ही नहीं बिहारियों ने तो कोविड काल में अचानक से बंद कर दिये गये यातायात के साधनों की मार भी झेली है और चंद दिनों पहले छठ पूजा के लिए जानवरों की माफिक लदकर बिहार पहुंचने का दर्द भी सहा है। देशभर के व्यापारियों, जिसमें बिहार के व्यापारी भी शामिल हैं, ने बिना आगा-पीछा सोचे लागू की गई जीएसटी में अपने व्यापार को भी चरमराते नंगी आंखों देखा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नोटबंदी भी फ्लाप रही और जीएसटी भी। नोटबंदी लागू करते समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बड़े दंभ के साथ कहा गया था कि इससे कालाधन खत्म होगा। बड़े नोटों के बंद होने से आतंकवाद खत्म होगा। नकली नोट खत्म हो जायेंगे। कैशलेस व्यवस्था स्थापित होगी। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। आरबीआई की रिपोर्ट बताती है कि आज भी नकली नोट बड़ी मात्रा में धल्लड़े से चल रहे हैं। देश के भीतर, स्विस बैंक तथा दुनिया के दूसरे बैकों में भारतियों के कालेधन में इजाफा हो गया है। पांच सौ के नोट को झख मार कर दुबारा चलन में लाना पड़ा है। आज भी कैशलेस व्यवस्था पूर्ण रूपेण बन नहीं पाई है। आठ साल तक व्यापारियों का कचूमर निकाल देने के बाद जीएसटी में संशोधन करते हुए दो स्लैब लागू किये गये हैं। मतलब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो भी कहा वो कभी सच नहीं हो सका।
8 नवम्बर को बिहार के चंपारण में अपने अंतिम चुनावी भाषण का ऐलान करते हुए पीएम मोदी ने एकबार फिर से जनता के बीच कट्टाराज का डर पसारते हुए नारे लगाये “नहीं चाहिए कट्टाराज एकबार फिर एनडीए सरकार” । जबकि बिहार की जनता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मुंह से सुनना चाहती थी “एकबार फिर नितीश सरकार” । मगर नरेन्द्र मोदी ने अपनी पहली चुनावी रैली से लेकर आखिरी रैली तक में “बच्चों को बहलाने की तर्ज पर भी एकबार भी नितीश कुमार ही मुख्यमंत्री बनेंगे” नहीं कहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आखिरी रैली से भी नितीश कुमार ने दूरी बनाए रखी। देखा जाय तो भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके सिपहसलार एनडीए की बात कह रहे हैं लेकिन एनडीए का मुख्य घटक दल जेडीयू तो छिटककर दूर जाकर खड़ा हो गया है। तभी न जेडीयू द्वारा 01 नवम्बर से शुरू हुआ “14 दिन बाद नितीश सरकार” का स्लोगन हर दिन एक – एक दिन कम करते हुए “नितीश सरकार” के बैनर पोस्टर लगाये जा रहे हैं। खबर तो यहां तक निकलकर आ रही है कि अब स्थानीय भाजपाईयों द्वारा भाजपा सरकार के बैनर भी लगाए जा रहे हैं ! अमूमन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसी भी विधानसभा चुनाव को बीच में छोड़ कर भागते नहीं हैं यानी अंतिम दिन भी चुनावी रैली करते हैं। लेकिन बिहार में डेढ़ दिन पहले ही वो यह कर निकल लिए कि यह उनकी आखिरी रैली है। अब वो शपथग्रहण समारोह में ही आयेंगे। लेकिन बिहार के भीतर की हवा क्या वाकई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को शपथग्रहण में आने का मौका देगी या फिर ऐसा शपथग्रहण तो नहीं होगा जिससे संकट दिल्ली में गहराने लगेगा और सवाल प्रधानमंत्री की कुर्सी तक आकर खड़ा हो जायेगा ?
चंपारण में अपनी अंतिम चुनावी रैली को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो कुछ भी कहा उसमें जिस तरह से पहले चरण में रिकार्ड तोड़ वोटिंग हुई है और उससे जो मैसेज निकलकर आये हैं उसका डरावना साया साफ नजर आ रहा था। बिहार के चुनाव में खुद ही मुद्दा बन चुके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अप्रत्याशित तरीके से सरेंडर कर देने के भाव से कहा “मैं कह सकता हूं ये चुनाव हम लोग नहीं लड़ रहे हैं। कोई एनडीए का नेता नहीं लड़ रहा है। न मोदी लड़ रहा है न नितीश कुमार लड़ रहे हैं। ये चुनाव बिहार की जनता लड़ रही है” । जबकि नितीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू ने तो ऐसा नहीं कहा। वो चुनाव लड़ रहे हैं। चंपारण की रैली में अगर नितीश कुमार की मौजूदगी होती और वो चुप भी रहते तो” मौनम् स्वीकृति लक्षणम्” के हिसाब से मान लिया जाता कि नितीश कुमार चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। वैसे तब भी ऐसा मानना गलत ही होता। अभी तक तो हर रैली में पीएम मोदी ही चुनाव लड़ रहे थे और एकबार भी उनकी जुवां पर नितीश कुमार का नाम नहीं आया था। वैसे जब जनता चुनाव लड़ती है तो वह उस राजनीति से कई कदम आगे चलती है जिस राजनीति की चौखट पर सत्ताधारी पार्टी खड़ी होती है। नरेन्द्र मोदी का चुनाव बाद मुख्यमंत्री के तौर पर नितीश कुमार का खुलकर नाम नहीं लेना इस बात की ताकीद करता है कि वह अभी भी अपने खास सिपहसलार के द्वारा कही गई बातों पर काबिज हैं। “सीएम का फैसला तो विधायक दल की बैठक में विधायक ही तय करेंगे, नितीश कुमार कौन होते हैं खुद को सीएम चयनित करने वाले” !
लेकिन पहले चरण के वोटिंग पैटर्न ने खुले तौर पर पहला संदेश तो यही दे दिया कि नितीश कुमार को लेकर बिहार की जनता और खास तौर पर महिला वोटर भावनात्मक रूप से नितीश कुमार के साथ जुड़ी हुई हैं। नितीश की पार्टी का चुनाव चिन्ह “तीर” हर जहन में बसा हुआ है और दूसरा मैसेज ये निकलकर आया कि दरअसल झटका तो बीजेपी ही दे रही है और बीजेपी झटका न दे सके इसके लिए जेडीयू का वोटर अपना वोट बीजेपी को ट्रांसफर नहीं करेगा। तो क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बिहार के अक्श तले अपनी दिल्ली की कुर्सी दिखाई देने लगी है। जहां पर बिहार के जनादेश के बाद भयानक संकट आने वाला है और उसकी चपेट में कोई दूसरे शख्स नहीं खुद पीएम नरेन्द्र मोदी और उनके असल राजदार गृहमंत्री अमित शाह आयेंगे। क्योंकि इन्हीं दोनों की पूरी सियासत बीजेपी को हांक रही है, जिता रही है और वैचारिक तौर पर डुबो भी रही है और इन परिस्थितियों के बीच कौन कहां, किस रूप में खड़ा होगा क्योंकि शुरुआत तो गृहमंत्री अमित शाह ने ही एक इंटरव्यू में यह कहकर की थी कि दरअसल “प्रोटोकॉल भी होता है, नियम कायदे भी होते हैं इसीलिए नितीश कुमार सीएम होंगे या नहीं होंगे यह तो विधायकों को तय करना है वह खुद कौन होते हैं तय करने वाले”। और अब अगर बिहार अपने पहले चरण की वोटिंग से ही जीत – हार करने का मैसेज दे रहा है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दिल्ली में अपनी राजनीतिक जमीन हिलती हुई दिखाई दे रही है तो फिर गृहमंत्री अमित शाह क्या कहेंगे, किस रूप में अपनी बात को रखेंगे।
वे भी पीएम की तरह पलटी मार गये हैं और शायद इसीलिए उन्होंने सुपौल और कटिहार की रैली में नितीश कुमार के नाम की माला जपी है। भले ही वो अपने भाषण में राहुल गांधी और तेजस्वी यादव पर निशाना साध रहे हों लेकिन नजरों में बिहार चुनाव परिणाम और दिल्ली पर पड़ने वाला असर ही है। क्योंकि अगर नितीश कुमार की कुर्सी गई तो बिहार और दिल्ली की परिस्थितियां आपस में जुड़ जायेंगी। अगर नितीश कुमार निपट गये तो नितीश कुमार की पार्टी के सांसद बीजेपी में शामिल हो जायेंगे जैसा बीजेपी ने भरम पाल रखा है ऐसा संभव नहीं है न ही विधायक बीजेपी के पीछे कतार लगाकर खड़े होंगे। जाहिर है वे एक नये समीकरण की दिशा में ही बढ़ेंगे। यानी बिहार को लेकर मोदी-शाह की समूची राजनीति दिल्ली में अपनी राजनीतिक जमीन को बचाने पर जाकर टिक गई है। नितीश कुमार की जीत बड़ी जीत होगी या नहीं होगी दोनों परिस्थितियों में बीजेपी के सामने अपने अस्तित्व को बचाने का सवाल खड़ा हो गया है क्योंकि पहले राउंड ने बीजेपी को पीछे और नितीश को आगे कर दिया है। दूसरे राउंड में बीजेपी के लिए राहत भरी बात यह है कि एम वाई समीकरण खासकर मुस्लिम प्रभावित क्षेत्रों में उसकी मौजूदगी नहीं है। हां अगर एम वाई के साथ दलित वोटरों का जुड़ाव हो जाता है तो फिर नितीश कुमार के सामने भी मुश्किल हालात आ जायेंगे और नितीश के सामने दूसरे राउंड में मुश्किल हालात खड़े हो जाते हैं तो फिर उसके बाद बीजेपी कहीं की नहीं रहेगी ! शायद इसीलिए बीजेपी ने पहले चरण के बाद और दूसरे चरण के पहले यानी बीच में नितीश कुमार की माला जपना शुरू कर दिया है।
वैसे सवाल नितीश और दिल्ली सत्ता से आगे का भी है कि इन सबके बीच विपक्ष की रणनीति और राजनीति कहां पर टिक रही है और उसे जनता कैसे देख रही है। मोदी बार – बार जिस जंगलराज और कट्टेराज का जिक्र करके वोट लेना चाह रहे हैं उस पर पलटवार करने के लिए एक तरफ नई नवेली पार्टी के मुखिया प्रशांत किशोर यह कहते हुए सामने आये कि आप कब तक डरा – डरा कर सत्ता में बरकरार रहेंगे अब तो अल्टरनेटिव आ गया है। और दूसरी तरफ उसी जंगलराज और कट्टाराज की विरासत को सम्हालते हुए जब तेजस्वी यादव नये तेवर के साथ अपने वादों को दुहराते हुए जनता के बीच जाते हैं और जिस तरह उनकी रैली में जनता का हुजूम उमड़ पड़ता है वैसा हुजूम तो बीजेपी के किसी नेता की रैली में नहीं उमड़ता है फिर चाहे वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली हो या चाहे गृहमंत्री अमित शाह की रैली हो। बिहार में चुनाव पीएम नरेन्द्र मोदी के गले में फांस की तरह चुभने लगा है। बिहार में अगर बीजेपी सत्ता से बाहर होती है तो फिर बीजेपी के भीतर मोदी के विकल्प की खोज शुरू हो जायेगी। बीजेपी के कद्दावर नेता जो मोदी दौर में हासिये पर धकेल दिए गए हैं सामने आने लगेंगे। संघ जो पार्टी अध्यक्ष चुनने को लेकर आगे पीछे होता रहता है खुल कर अग्रेसिव तरीके से दखलंदाजी करने पर उतर आयेगा। इससे ज्यादा खतरनाक परिस्थिति यह है कि जिस तरह से प्रशांत किशोर ने वैचारिक राजनीति और राजनीतिक मुद्दों की लड़ाई अपने तौर पर यह कहते हुए शुरू की है या कहें बिहार में प्रशांत किशोर ने दिल्ली की सत्ता का विकल्प मौजूद होने की चुनौती या धमकी दी है उसने भी मोदी-शाह की बैचेनी बढ़ा दी है। प्रशांत किशोर कहते हैं कि इतनी बड़ी संख्या में जो पोलिंग हुई है ये दिखाता है कि बिहार में बदलाव होने जा रहा है। दशकों से जो नितीश बीजेपी का राज है इनने वोट लेने के लिए गजब का तरीका निकाला है कि लालू का, जंगलराज का डर दिखाओ और वोट ले लो ताकि लोग कहें कि काम भले नहीं हुआ कम से कम जंगलराज तो वापस नहीं आया। लेकिन इस बार स्थिति बदल चुकी है। शायद पीएम को जमीनी हकीकत का पता नहीं है। लोग आपकी इस बात से सहमत हैं कि जंगलराज नहीं आना चाहिए तो फिर आपको भी वापस नहीं आना चाहिए। तब तो जन सुराज को आना चाहिए।
देश के सामने भी तो असल लड़ाई इसी विकल्प की बात को लेकर चल रही है। मोदी सत्ता ने बीते 11 बरसों में विकल्प को पनपने नहीं देने के लिए हर उस संवैधानिक संस्थाओं को अपनी मुट्ठी में भींच लिया जो विकल्प को पल्लवित पोषित कर सकती थी। यहां तक कि विकल्प की जड़ों में मट्ठा डालने के लिए ज्यूडीसरी भी आकर खड़ी हो गई है। आखिरी दांव फेंकने के लिए चुनाव आयोग सामने आ ही चुका है। विकल्प की जड़ों को खोदने में मीडिया ने भी अहम भूमिका निभाई है। इन तमाम परिस्तिथियों के बीच अगर बिहार के भीतर कोई वैकल्पिक सोच उभर रही है और बिहार का वोटर उसे हाथों हाथ ले रहा है। पहले फेस में ही वोटिंग के तमाम पुराने रिकार्ड टूट गये हैं और दूसरे चरण में क्या होगा कोई नहीं जानता है। सभी की सांसें ऊपर नीचे हो रही हैं। कई की धड़कनें तेज हैं, कई की धड़कनें थम सी गई हैं । क्योंकि राजनीति का ये मिजाज बिहार के भीतर एक पालिटिकल ट्रांसफार्मेशन पैदा करता हुआ दिख रहा है। अतीत की राजनीति में एक तरफ नितीश थे दूसरी तरफ लालू थे। एक ओर बीजेपी थी तो दूसरी तरफ कांग्रेस थी। सभी ने अपना अपना – अपना रास्ता चुन लिया है। बिहार के भीतर वैचारिक लड़ाई उस तर्ज पर उभर ही नहीं पाई जो मंडल – कमंडल से आगे जा पाती। लेकिन क्या प्रशांत किशोर एक नई चुनौती के साथ देश की राजनीति में उभर कर आ पायेंगे जैसे अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की सियासत के जरिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीतियों को खुले तौर पर चुनौती देना शुरू कर दिया था।
क्या होगा कोई नहीं जानता है लेकिन एक सच हर कोई जानता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिन बातों को कहते हैं उन बातों का असर लोगों पर व्यापक होता है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि पीएम मोदी की बातों का कोई आधार नहीं होता है। शायद इसीलिए देश के भीतर जब 9 बरस पहले 8 नवम्बर को नोटबंदी लागू की गई तो वह पूरी तरह से फ्लाप रही क्योंकि आज तक कालाधन खत्म नहीं हुआ है। स्विस बैंक में कालाधन और ज्यादा बढ़ गया है। बड़े नोट पूरे तरीके से खत्म नहीं हुए हैं । पांच सौ का नोट वापस लाना पड़ गया। कैशलेस परिस्थिति बनी नहीं। नकली नोट आज भी बाजार में पटे पड़े हैं। क्या बिहार में हुई धुआंधार वोटिंग भारत की उस राजनीति को पलट देगी जो राजनीति पारंपरिक तौर पर चली आ रही है। शायद फैसले की घड़ी बिहार के लिए भी है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार




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