शिक्षा व्यवस्था पर कटाक्ष है एक और द्रोणाचार्य संवाद थिएटर ग्रुप ने किया मंचन
चंडीगढ़। संवाद थिएटर ग्रुप, चंडीगढ़ ने डॉ शंकर शेष द्वारा लिखित नाटक एक और द्रोणाचार्य का मंचन किया I इस नाटक का निर्देशन मुकेश शर्मा द्वारा किया गया I
इस नाटक में नाटककार ने वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार, पक्षपात, राजनितिक घुसपैठ तथा आर्थिक एवं सामाजिक दबावों के चलते निम्न मध्यवार्गीय व्यक्ति के असहाय बेबस चरित्र को उद्घाटित किया है। महाभारत कालीन प्रसिद्ध पात्र द्रोणाचार्य के जीवन प्रसंगों को आधार बनाकर वर्तमान विसंगति को दिखाया गया है।
इस नाटक में महाभारत कालीन गुरु द्रोणाचार्य के जीवन के प्रसंगों की संवेदनशील झाँकियाँ प्रस्तुत की गई है। अश्वस्थामा का कृपी से दूध पिने की याचना करना, द्रोणाचार्य का कौरव-पाण्डव कुमारों का आचार्य बनना, द्रोपदी का चीरहरण करना और युधिष्ठिर का ‘नरों वा कुंजरों वा अर्द्धसत्य इन सभी प्रसंगों के आधार पर प्रोफ़ेसर अरविंद के जीवन की त्रासदी को अभिव्यक्त किया गया है।
अरविंद एक मध्यवर्गीय, आदर्श और सिधान्तों पर चलनेवाला व्यक्ति है। वह एक प्रईवेट कॉलेज का अध्यापक है। उसपर अपनी कैंसरग्रस्त माँ और विधवा बहन की जिंदगी निर्भर है। लड़का मेडिकल कॉलेज में भरती होने वाला है। अरविंद के कॉलेज का प्रेसिडेंट एक व्यापारी है, उसने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए शिक्षण संस्थाएँ खोली है। वह कॉलेज के प्रिंसपल को प्रलोभन और धमकियाँ देकर ग्रान्ट के रुपये लेकर अपने लेन-देन के व्यवसाय में लगा देता है और हजारों रुपये कमाकर कॉलेज को लौटाता है।
प्रेसिडेंट का लड़का राजकुमार कॉलेज में पढता है जिसे परीक्षा में नक़ल करते हुए अरविंद पकड़ लेता है। इसकी रिपोर्ट वह यूनिवर्सिटी को भेजकर आदर्श शिक्षा प्रणाली का पालन करता है। अरविंद की पत्नी लीला और मित्र यदू प्रत्याघातों से विचलित हो, उसे कभी भी न्याय और सत्य के दुर्लंघ्य रास्ते पर चलने से रोकते है। उनका हौसला तोड़ते हुए यदु कहता है, “राजकुमार का विरोध करोगे तो हत्या। चंदू का विरोध करोगे तो सामाजिक हत्या। हत्या से बच नहीं सकते तुम।” राजकुमार और उसके साथी बड़े ही क्रूर है, “अगर ये लोग विमलेंदु की हत्या कर सकते हैं तो तुम्हारी क्यों नहीं।” न्यायप्रिय, सत्यवक्ता, सच्चरित्र व्यक्ति होने के बावजूद अरविंद कोई भी साहसी निर्णय नहीं कर पाता है। और विरोध की तकलीफ-देह भाषा की जगह समझौते की सुविधाप्रद भाषा बोलने लगता है और सत्ता के कभी भी नहीं टूटने वाले चक्रव्यूह में फँसकर मात्र “बड़े-बड़े निरर्थक शब्द थूकने वाला नपुंसक बुद्धिवादी” बनकर रह जाता है। अपने प्रिय छात्र चंदू का धैर्य बंधाकर वह प्रेसिडेंटके दबावों के आगे झुक जाता है। इतना ही नहीं चंदू को छात्रों को भड़काने के अभियोग में कॉलेज से निकाल दिया जाता है।
प्रेसिडेंट अपने वादे के अनुसार अरविंद को प्रिंसपल बना देता है। एक दिन राजकुमार कॉलेज की छात्रा अनुराधा की एकांत का लाभ उठाकर उसे बालात्कार करने की कोशिश करता है। संयोग से उस दिन अरविंद वहाँ पहुँचता है और अनुराधा को बचा लेता है। अनुराधा उसके कहने पर राजकुमार के विरुद्ध रिपोर्ट कर देती है किन्तु इस बार भी प्रेसिडेंट बीच-बचाव का रास्ता ढूंढकर केस को रफा-दफा कर देता है। अनुराधा इस मामले में दृढ़ता से आगे बढ़ती है पर राजकुमार के गुंडे उसे मारकर रास्ते पर फेंक देते हैं। लोग उसे आत्महत्या समझते हैं।
यह कहानी एक मोड़ लेती है। प्रेसिडेंट बीमार पड़ जाता है। ब्लडप्रेशर की तकलीफ से निस्तार पाने के लिए वह डॉक्टर की सलाह से सुबह-शाम घूमने जाने के लिए तैयार हो जाता है। अब प्रेसिडेंट रोज अरविंद के साथ टहलने जाने लगता है और वह एक शाम गिरकर मर जाता है। अरविंद पर प्रेसिडेंट को धकेल कर मार देने का अभियोग चलाया जाता है। चंदू चश्मदीद गवाह के रूप में अरविंद के खिलाफ गवाही देता है। यह नाटक चंदू के अर्ध सत्य के साथ ही समाप्त हो जाता है।
नाटक में प्रोफेसर अरविंद -अरविंद शर्मा, लीला- हिमांशी राजपूत, चंदू -नीरज, अनुराधा- अनामिका, विमलेंदु – कमल भारद्वाज, प्रेसिडेंट- राजन अरोड़ा, कृपी- रजनी बजाज, द्रोणाचार्य- सौरभ आचार्य
भीष्म-हनी शर्मा, अश्वस्थामा – उदय पराशर, वकील प्रियमवदा
वकील दो अंकिता परासर
जज- रमा रानी त्रिपाठी
युधिष्ठिर -सुशांत बने।
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