कविता : अगर कहीं मिले तुमसे हरि
अगर कहीं मिले तुमसे हरि,
तो कहना उनसे खरी-खरी।
यहाँ महंगाई सर पर है चढ़ी,
जनता गुस्से में है लाल-पीली!
जीना मुश्किल यहां हर घड़ी।
अगर कहीं मिले तुमसे हरि,
तो कहना उनसे खरी-खरी।
किसको किसी की नहीं पड़ी,
मोबाइल में दुनिया घुसी पड़ी!
दिन का चैन व रात भी ले उड़ी।
अगर कहीं मिले तुमसे हरि,
तो कहना उनसे खरी-खरी।
सरकार है आंखें मूंदे खड़ी,
दंगाइयों की त्योरिया हैं चढ़ी!
अब सबक सिखाने की है घड़ी।
अगर कहीं मिले तुमसे हरि,
तो कहना उनसे खरी-खरी।
वस्त्रों के यहां अंबार लगे हैं,
फिर पापा की यह परियां क्यों?
न्यून वस्त्रों सबके सामने है खड़ी?
संजय एम. तराणेकर
(कवि, लेखक व समीक्षक)
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