श्री खाटूश्याम जी
श्री खाटू श्याम जी भारत देश के राजस्थान राज्य के सीकर जिले में एक प्रसिद्ध गांव है, जहाँ पर बाबा श्याम का विश्व विख्यात मंदिर है। ये मंदिर करीब 1000 साल पुराना है जिसे 1720 में अभय सिंह जी द्वारा मंदिर का पुनर्निर्माण कराया गया था[1] इस मंदिर में भीम के पौत्र और घटोत्कच के तीनों पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र बर्बरीक के सिर की पूजा होती है। जबकि बर्बरीक के शरीर की पूजा हरियाणा के हिसार जिले के एक छोटे से गांव स्याहड़वा में होती है। बड़ी संख्या में भक्त आते रहते है।
परिचय
हिन्दू धर्म के अनुसार, खाटू श्याम जी ने द्वापरयुग में श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त किया था कि वे कलयुग में उनके नाम श्याम से पूजे जाएँगे। श्री कृष्ण बर्बरीक के महान बलिदान से काफ़ी प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि जैसे-जैसे कलियुग का अवतरण होगा, तुम श्याम के नाम से पूजे जाओगे। तुम्हारे भक्तों का केवल तुम्हारे नाम का सच्चे दिल से उच्चारण मात्र से ही उद्धार होगा। यदि वे तुम्हारी सच्चे मन और प्रेम-भाव से पूजा करेंगे तो उनकी सभी मनोकामना पूर्ण होगी और सभी कार्य सफ़ल होंगे।
श्री श्याम बाबा की अपूर्व कहानी मध्यकालीन महाभारत से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे। वे अति बलशाली गदाधारी भीम और माता अहिलावती के पौत्र हैं। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान योद्धा थे। उन्होंने युद्ध कला अपनी माँ तथा श्री कृष्ण से सीखी। महादेव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अमोघ बाण प्राप्त किये; इस प्रकार तीन बाणधारी के नाम से प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। दुर्गा ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ था।
महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुए तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे तब माँ को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की ओर चल पड़े।
सर्वव्यापी श्री कृष्ण ने ब्राह्मण भेष धारण कर बर्बरीक का भेद जानने के लिए उन्हें रोका और उनकी बातों को सुनकर उनकी हँसी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आए है; ऐसा सुनकर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिए पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तूणीर में ही आएगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो पूरे ब्रह्माण्ड का विनाश हो जाएगा। यह जानकर भगवान् कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस वृक्ष के सभी पत्तों को वेधकर दिखलाओ। वे दोनों पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तूणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया। बाण ने क्षणभर में पेड़ के सभी पत्तों को वेध दिया और श्री कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था | बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिए अन्यथा ये बाण आपके पैर को भी वेध देगा। तत्पश्चात, श्री कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा; बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन को दोहराया और कहा युद्ध में जो पक्ष निर्बल और हार रहा होगा उसी को अपना साथ देगा। श्री कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की निश्चित है और इस कारण अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम गलत पक्ष में चला जाएगा।
अत: ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की। बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया और दान माँगने को कहा। ब्राह्मण ने उनसे शीश का दान माँगा। वीर बर्बरीक क्षण भर के लिए अचम्भित हुए, परन्तु अपने वचन पर अडिग रहे। वीर बर्बरीक बोले एक साधारण ब्राह्मण इस तरह का दान नहीं माँग सकता है, अत: ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की। ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण अपने वास्तविक रूप में आ गये। श्री कृष्ण ने बर्बरीक को शीश दान माँगने का कारण समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पूर्व युद्धभूमि पूजन के लिए तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय के शीश की आहुति देनी होती है; इसलिए ऐसा करने के लिए वे विवश थे। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वे अन्त तक युद्ध देखना चाहते हैं। श्री कृष्ण ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। श्री कृष्ण इस बलिदान से प्रसन्न होकर बर्बरीक को युद्ध में सर्वश्रेष्ठ वीर की उपाधि से अलंकृत किया। उनके शीश को युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया; जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया था इस प्रकार वे शीश के दानी कहलाये।
महाभारत युद्ध की समाप्ति पर पाण्डवों में ही आपसी विवाद होने लगा कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है? श्री कृष्ण ने उनसे कहा बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है? सभी इस बात से सहमत हो गये और पहाड़ी की ओर चल पड़े, वहाँ पहुँचकर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि श्री कृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उपस्थिति, युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो शत्रु सेना को काट रहा था। महाकाली, कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।
श्री कृष्ण वीर बर्बरीक के महान बलिदान से काफी प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे, क्योंकि उस युग में हारे हुए का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है।
उनका शीश खाटू नगर (वर्तमान राजस्थान राज्य के सीकर जिला) में दफ़नाया गया इसलिए उन्हें खाटू श्याम बाबा कहा जाता है। एक गाय उस स्थान पर आकर रोज अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी। बाद में खुदाई के बाद वह शीश प्रकट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिए एक ब्राह्मण को सूपुर्द कर दिया गया। एक बार खाटू नगर के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिए और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिए प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसके रूप में मनाया जाता है। मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कँवर द्वारा बनाया गया था। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर १७२० ई. में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। मंदिर इस समय अपने वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति गर्भगृह में प्रतिस्थापित किया गया था। मूर्ति दुर्लभ पत्थर से बना है। खाटूश्याम, परिवारों की एक बड़ी संख्या के कुलदेवता है।
कैसे बने बर्बरीक खाटूश्याम जी ?
इनकी कहानी मध्य कालीन महाभारत से शुरू होती है । खाटूश्याम जी पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे वे अतिबलशाली भीम के पुत्र घटोत्कच और प्रागज्योतिषपुर (वर्तमान आसाम) के राजा दैत्यराज मूर की पुत्री कामकटंककटा “मोरवी” के पुत्र थे । खाटू श्याम जी बाल अवस्था से बहुत बलशाली और वीर थे उन्होंने युद्ध कला अपनी माता मोरवी तथा भगवान् कृष्ण से सीखी । उन्होंने भगवान शिव की आराधना करके उनसे तीन बाण प्राप्त किये थे । इस तरह उन्हें तीन बाण धारी के नाम से जाना जाने लगा और दुर्गा ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किये जो उन्हें तीनो लोको में विजय दिला सकता था ,जब महाभारत का युद्ध कोरवो और पांडवो के बिच चल रहा था | जब यह बात बर्बरीक को पता चली तो उनकी भी इच्छा युद्ध करने की हुए । वे अपनी माता के पास गए और बोले मुझे भी महाभारत का युद्ध करना है तो उनकी माता बोली पुत्र तुम किसकी तरफ से युद्ध करोगे । तब उन्होंने बोला में हारे हुए की तरफ से युद्ध करुगा । जब वह युद्ध करने जा रहे थे उन्हें रास्ते में उन्हें श्री कृष्ण मिले और उनका उपहास करते हुए बोले कि ” हे बालक ये क्रीड़ा भूमि नहीं युद्ध भूमि है तीन बाणों में युद्ध तो क्या सैनिक भी नहीं मरेंगे। बर्बरीक बोले कि ” हे ब्रह्मण देव ये बाण कोई साधारण बाण नहीं हैं मेरे आराध्य भगवान शिव ने मुझे ये तीन अचूक बाण दिए हैं इनसे मैं युद्ध को एक पल में समाप्त कर दूंगा।” ब्रह्मण रूपी श्री कृष्ण ने बर्बरीक की परीक्षा ली और उन्होंने एक पीपल के पेड़ के पत्तों में छेद करने को कहा। बर्बरीक ने एक ही बाण से सम्पूर्ण वृक्ष के पत्तों को बिंध दिया। जिससे श्री कृष्ण ने उनसे उनका शीश दान में मांगा। बर्बरीक समझ गए कि ये कोई साधारण ब्राह्मण नहीं है। उसके बाद बर्बरीक ने ब्राह्मण को अपने वास्तविक रूप में आने को कहा। अपने गुरु श्री कृष्ण को सामने देखकर बर्बरीक ने उनसे पूछा कि “आपने ऐसा क्यों किया गुरूदेव”। तत्पश्चात् श्री कृष्ण बोले कि” हे बर्बरीक आज मुझे तुमसे गुरु दक्षिणा चाहिए थी इसलिए मैंने ये सब किया।” बर्बरीक ने कहा कि ,”हे गुरुदेव मेरा शीश तो आप ले लीजिए किन्तु मैं सम्पूर्ण महाभारत का युद्ध देखना चाहता हूं।” श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को अमृत से सींचा और राहु के सिर के समान अजर अमर बना दिया। बर्बरीक के शीश को एक ऊंची पहाड़ी की चोटी पर रखा गया जहां से उन्हें सम्पूर्ण युद्ध दिखाई दिया। युद्ध समाप्त होने के बाद पाण्डवों को अपनी विजय का गर्व हो गया। उनके घमंड को तोड़ने के लिए श्री कृष्ण ने बर्बरीक से पूछा तो बर्बरीक के शीश ने कहा कि” गुरुदेव श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र ने ही सम्पूर्ण युद्ध में पापियों का अन्त किया है।” उसके बाद श्री कृष्ण ने बर्बरीक को कुछ मांगने को कहा तो बर्बरीक ने श्री कृष्ण से उनका सांवला रंग मांगा। बर्बरीक के इस निस्वार्थ बलिदान को देखकर श्री कृष्ण बोले “कि मेरा सांवला रंग तुम्हारा हुआ बर्बरीक साथ ही मेरी सभी सोलह कलाएं तुम्हारे शीश में समाहित होंगी तुम्हारी पूजा मेरे श्याम नाम से की जाएगी और तुम मेरे ही प्रतिरूप बनकर पूजे जाओगे जो भक्त तुम्हारे दरबार में आएगा दुनिया में कोई ताकत उसे दुबारा हरा नहीं सकेगी और उनकी मनोकामनाएं भी पूरी होंगी।
शीश के दानी
जब श्री कृष्ण ने उनसे उनके शीश की मांग की तो उन्होंने अपना शीश बिना किसी झिझक के उनको अर्पित कर दिया और भक्त उन्हें शीश के दानी के नाम से पुकारने लगे। श्री कृष्ण पाण्डवों को युद्ध में विजयी बनाना चाहते थे। बर्बरीक पहले ही अपनी माँ को हारे हुए का साथ देने का वचन दे चुके थे और युद्ध के पहले एक वीर पुरुष के सिर की भेंट युद्धभूमिपूजन के लिए करनी थी इसलिए श्री कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा।
लखदातार
भक्तों की मान्यता रही है कि बाबा से अगर कोई वस्तु मांगी जाती है तो बाबा लाखों-बार देते हैं इसीलिए उन्हें लखदातार के नाम से भी जाना जाता है।
हारे का सहारा
जैसा कि इस आलेख मे बताया गया है बाबा ने हारने वाले पक्ष का साथ देने का प्रण लिया था, इसीलिए बाबा को हारे का सहारा भी कहा जाता है।
हारे हुए की तरफ से युद्ध करने की प्रतिज्ञा व् दादी माँ हिडिम्बा से मिले आदेश के कारण ही। भगवान श्री कृष्ण की मन में उठी समस्या के कारण ही बर्बरीक व बाबा के शीश को भगवान वासुदेव द्वारा माँगा गया। क्योंकि एक तो कुरु सेना अठारह दिनों से पहले खत्म नही हो सकती थी। तथा अन्य तथ्य यह था कि महाबली बर्बरीक हारे हुए कमजोर की तरफ से युद्ध करते इस लिए अंत में महाबली बर्बरीक के इलावा कोई नही बचता। क्योंकि जिस तरफ से वह युद्ध करते तो सामने वाला कमजोर हो जाता। फिर अपनी प्रतिज्ञा अनुसार उन्हें हारे हुए की तरफ से युद्ध करना होता। अतः अंत में केवल महाबली बर्बरीक ही जीवित रहते।
मोरछड़ी धारक
बाबा हमेशा मयूर के पंखों की बनी हुई छड़ी रखते हैं इसलिए इन्हें मोरछड़ी वाला भी कहते हैं।
युद्ध के बाद की कथा
युद्ध के बाद बर्बरीक द्वारा पाण्डवों के अभिमान का मर्दन हुआ और उसके बाद उनके शीश को रूपवती नदी में प्रवाहित किया गया। शीश बहता हुआ खाटू नामक गांव में पहुंच गया इसके बाद रूपवती नदी सुख गई और बर्बरीक का शीश वहीं दबा रह गया। उसके कई वर्षों बाद राधा नामक एक गाय थी वह गाय दूध देने में असमर्थ थी इसी कारण उसके मालिक ने उसे छोड़ दिया। गाय घूमते हुए उस स्थान पर पहुंची जहां बर्बरीक का शीश दफन था। वहां पहुंचते ही उसके थनों से दूध बहने लगा। जिसके बाद खाटू के राजा को जब इस बात का पता चला तो वे स्वयं वहां गए और वहां खुदाई करके उन्हे एक शीश दिखा जिसके पश्चात आकाशवाणी हुई कि यह ज्येष्ठ घटोत्कच पुत्र बर्बरीक का शीश है जिसे श्री कृष्णचन्द्र द्वारा उनके श्याम नाम से पूजे जाने का वर है। ये कलयुगी कृष्ण हैं। इनके लिए विशाल मंदिर का निर्माण करवाओ। आकाशवाणी के कुछ दिनों बाद मंदिर का निर्माण शुरू हुआ और देवउठनी एकादशी के दिन बर्बरीक के उस शीश की स्थापना मंदिर में हुई और वे बर्बरीक से खाटू श्याम बन गए। इसी कारण देवउठनी एकादशी के दिन बाबा श्याम का जन्मोत्सव मनाया जाता है।
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