खरी-अखरी: प्रधानमंत्री मोदी और मणिपुर का दौरा बनाम मोदी के लिए सितम्बर का इम्तहानी महीना
सत्ता और सत्ताधारी वाकई बड़ा बेरहम और बेदिल होता है। भले ही वह लाशों के मंजर को देखने या फिर मातपुरसी के लिए जाय मगर उसका ध्यान अपने सम्मान के लिए होने वाले नृत्य संगीत पर होता है। ऐसा ही नजारा गत दिनों मणिपुर में हुए नर संहार और महिलाओं के साथ हुई दरिंदगी पर औपचारिक मातम पुरसी के लिए घटना के 865 दिन बाद जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गये तब देखने को मिला जहां उनका स्वागत आदिवासियों के जरिए नृत्य संगीत से होता रहा और वे आत्ममुग्ध होकर देखते रहे। न तो उन्होंने मणिपुर जाने के पहले न ही मणिपुर पहुंचने पर इस तरह से स्वागत सत्कार नहीं कराये जाने के निर्देश दिए हों। भरी बरसात खुद तो बेशकीमती गाड़ियों के उस काफिले के साथ कार में विराजमान रहे जिनकी कीमत शायद मणिपुर के सारे समाज को हड़प सकती है और आम आदमी के हाथों में राष्ट्रवाद के प्रतीक तिरंगे वाली झंड़ियां पकड़ा कर जबरिया रास्ते के किनारे बरसते पानी में खड़ा कर दिया गया। यह मणिपुर के भीतर का पहला शर्मनाक पहलू है प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान का। दूसरा शर्मनाक पहलू है जब प्रधानमंत्री कुछ चुनिंदा पीडितों के साथ बंद कमरे में बातचीत कर रहे थे जिसे न्यूज़ ऐजेंसी एएनआई के जरिए दूरदर्शन ने दिखलाया जिसमें एक बच्ची रोते हुए अपना दर्द बयां कर रही है। वहां मौजूद महिलायें आंसू बहाते हुए कुछ कह रही है उनकी आवाज को बंद कर दिया गया है। मतलब साफ है कि प्रधानमंत्री मोदी नहीं चाहते होंगे कि किसी भी पीडित की आवाज देशवासियों को सुनाई दे सिवाय उनके भाषण के और उनकी शान को बढ़ाने वाले नारों के तथा कसीदे पढ़ रहे बयानों के अलावा। तीसरा शर्मनाक पहलू है प्रधानमंत्री ने दो साल दो महीने से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद मणिपुर जाकर लोगों के घावों पर मरहम लगाने के बजाय 7300 करोड़ रुपये की सरकारी रईसी वाली योजनाओं का जिक्र करते रहे यानी नरसंहार और महिला अस्मिता की कीमत रुपयों में आंकते रहे। इसी कड़ी में चौथी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति थी जब दिल्ली दरबार की पसंद के तौर पर मुख्यमंत्री की कुर्सी से घटना के लगभग 21 महीने तक चिपके रहने वाले एन वीरन सिंह ने अपने राज्य के पीडितों की पीड़ा का इजहार करने के बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की शान में कसीदे पढ़ रहे थे। वाकई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सटीक वाक्य कहा था “आपदा में अवसर”।
करीब दो बरस पहले मोबाइल पर एक वीडियो वायरल हुआ था जिसने पूरे देश को एकबार फिर झकझोर कर रख दिया था। वीडियो को देखने के बाद पता चला कि किस तरह मानवीय संवेदनाएं खत्म हो जाती हैं या यूं कहें कि मानवीय त्रासदियां कैसे हिंसक और अमानवीय हो जाती है। अगले दिन वह तस्वीर अखबारों की सुर्खियां बनकर छपी, न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर भी वह वीडियो रेंगता हुआ दिखाई दिया और पहली बार इस वीडियो ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। 19 जुलाई 2023 को वायरल हुए इस वीडियो में साफ दिखाई दे रहा था कि दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके उनके प्राइवेट पार्ट पर आपत्तिजनक हरकतें करते हुए सार्वजानिक तौर पर जुलूस की शक्ल में सडकों पर घुमाया जा रहा है। इस वीडियो को प्रधानमंत्री ने भी देखा और अपनी वही प्रचलित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि उनका हृदय पीड़ा से भरा हुआ है और दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा। 19 जुलाई को जब यह वीडियो सामने आई तब मणिपुर पुलिस ने जांच की तो पता चला कि इस वीडियो में कैद घटना तो ढाई महीने पहले यानी 4 मई 2023 को थोबला जिले में घटी थी। अगर इस घटना का वीडियो वायरल नहीं होता तो देश जान ही नहीं पाता कि मणिपुर में ऐसी वीभत्स और शर्मनाक घटना को अंजाम दिया गया है। इस बात पर तो विश्वास ही नहीं किया जा सकता कि सरकार और पुलिस को इस घटना की जानकारी नहीं थी। मतलब बहुत साफ है कि सरकार और पुलिस को इस बात का अंदाजा नहीं था कि इस घिनौनी घटना का वीडियो भी बनाया गया है और उसे वायरल भी किया जा सकता है।
इस वीडियो ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया। जिसकी गूंज ब्रिटेन की संसद के भीतर बकायदा सवाल के तौर पर गूंजी, यह अलग बात है कि ब्रिटेन के विदेश मंत्री का जबाव भारत सरकार के अनुकूल था। कुछ सवाल तो पश्चिमी देशों में भी ईसाईयत को लेकर भी उभरे। अमेरिका में भी मणिपुरी घटना की चर्चा रही। मणिपुर में घटी घृणित, निंदनीय, अमानवीय, मानवता को शर्मसार करने वाली घटना के बाद भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की प्राथमिकता मणिपुर ना होकर कर्नाटक में होने वाले विधानसभा चुनाव रहे। जैसा कि उनका मानना रहता है कि चुनावी जीत उनके हर दुष्कर्मों, कुकर्मों को वाशिंग मशीन की तरह धो देती है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव की जीत भी मणिपुर की कालिख को धो डालेगी लेकिन बीजेपी वहां चुनाव हार गई। इसके बावजूद देश और विदेश से भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मणिपुर नहीं जाने को लेकर तीखी टिप्पणियां आती रहीं और प्रधानमंत्री मोदी उन्हें कपड़े में लगी धूल की तरह झटकारते रहे। मणिपुर की बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री एन वीरेन सिंह ने भी तकरीबन 21 महीने बाद 10 फरवरी 2025 को राज्यपाल अजय कुमार भल्ला को इस्तीफा सौंपा।
23 मार्च 2023 को मणिपुर हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में मैतेई समाज को आदिवासी यानी सेड्यूल ट्राइव का दर्जा देने की वकालत करते हुए राज्य सरकार को इस पर ध्यान देने को कहा। जिससे मैतेई और कुकी समुदाय के बीच पहली बार 3 मई को संघर्ष की परिस्थितियां बनी और 4 मई को थोबल जिले में 2 महिलाओं को निर्वस्त्र कर प्रताड़ित करते हुए सड़कों पर जुलूस निकाला गया जिसका वीडियो 19 जुलाई को वायरल किया गया और वह तस्वीर दुनिया भर के पटल पर था गई लेकिन देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री तो मदहोश होकर कर्नाटक में चुनाव प्रचार करने में व्यस्त और मस्त थे। हां घटना के बाद लीडर आफ अपोजीशन ने जरूर मणिपुर के लोगों का दर्द साझा करने के लिए दौरा किया। मणिपुर में आज भी मैतेई और कुकी समुदाय के लगभग 57 हजार लोग अलग – अलग विस्थापितों के लिए बनाये गये शिविर में रहकर अपने ही हाथों अपने ही घावों पर मरहम लगाने की स्थिति में नहीं हैं। इस बीच सरकार ने बहुत कुछ छुपाया, बहुत कुछ नहीं बताया। 2 साल 2 महीने से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद प्रधानमंत्री मणिपुर आकर मणिपुरवासियों को सपना दिखा रहे हैं, उन सपनों के आसरे ताना-बाना बुनकर यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि दिल्ली आपके कितने करीब है। प्रधानमंत्री ने आदिवासी वेषभूषा सज्जित रासरंग से अभिभूत होकर कई जगहों पर भाषण देते हुए आश्वासन और भरोसा दिलाने की कोशिश की कि केंद्र सरकार यानी दिल्ली की सरकार आपके साथ खड़ी है लेकिन जब उन्होंने उन दर्द भोगने वाले विस्थापितों में से चुनिंदा लोगों के बीच बंद कमरे में बैठकर बातें की जो पिछले ढाई बरस से हर दिन ऐसा जीवन जी रहे हैं जैसा उन्होंने न तो पहले कभी जिया है न ही इसकी कल्पना की थी उनके बीच एक रोती हुई बच्ची ने पीड़ा का इज़हार किया, दूसरे लोगों ने भी अश्रुपूरित होकर अपनी बातें रखीं जिन्हें दूरदर्शन ने देश को सुनने, जानने नहीं दिया जबकि उन्हें सुनना, जानना देशवासियों का हक भी है और अधिकार भी है।
देशवासियों को तो यह सुनाया गया जो प्रधानमंत्री कह रहे थे कि मणिपुर में किसी भी तरह की हिंसा दुर्भाग्यपूर्ण है। ये हिंसा हमारे पूर्वजों और हमारी भावी पीढ़ी के साथ भी बहुत बड़ा अन्याय है। अब 21वीं सदी ईस्ट की है नार्थ ईस्ट का है। इसीलिए मणिपुर के विकास को भारत सरकार ने निरंतर प्राथमिकता दी है और मणिपुर के नाम में ही मणि है (वैसे ही जैसे गुजरात के नाम में गु है) ये वो मणि है जो आने वाले समय में पूरे नार्थ ईस्ट की चमक को बढाने वाली है। देखा गया है कि प्रधानमंत्री मोदी के पास तो एक सा रटा रटाया भाषण होता है जिसे वे जैसा देश वैसा भेष धारण कर सुना आते हैं फिर वह चाहे बिहार हो या बंगाल, असम हो या उत्तर प्रदेश और अब वही लोकलुभावनी फेहरिस्त लेकर मणिपुर में लगे घोषणा करने जैसे वे आरबीआई से नोट छपवाकर पोटली में बांधकर लाये हों, कर दी 7300 करोड़ की योजनाओं की घोषणा। जिस तरीके से प्रधानमंत्री घोषणा कर रहे थे उससे तो ऐसा लग रहा था कि वे मणिपुर के घावों पर मरहम लगाने के साथ ही उन घावों को कुरेद कर और छलनी किये जा रहे हैं। क्योंकि मणिपुरवासियों को तात्कालिक तौर पर शांति चाहिए, अपना घर चाहिए, अपना समाज चाहिए, माहौल चाहिए, सुरक्षा चाहिए, कानून का राज चाहिए, संविधान से मिले हुए हक चाहिए। ठीक है 7300 करोड़ से ड्रेनेज सिस्टम ठीक हो जायेगा, स्कूल, छात्रावास, सुपर स्पेशलिटी अस्पताल, एयरपोर्ट बन जायेंगे लेकिन सवाल है कि भावनाओं का जुडाव इस दौर में गायब क्यों हो गया है? आज जब प्रधानमंत्री मणिपुर आये और भावनाओं के जुडाव की दिशा में कदम बढ़ सकते थे और उन्हें बढ़ाने का दायित्व दिल्ली की इच्छा पर सरकार के मुखिया रहे एन वीरन सिंह को उठाना चाहिए था वह उन्होंने गवां दिया प्रधानमंत्री की चापलूसी करते हुए। प्रधानमंत्री जी बड़ी हिम्मत वाले हैं जो बरसते पानी में सड़क के रास्ते यहां तक आ गये। यहां तक का मतलब है चूराचांदपुर का इलाका जहां 260 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। 280 रिलीफ कैम्प चल रहे हैं। 57 हजार से ज्यादा लोग विस्थापित जीवन जी रहे हैं।
1960 से नार्थ ईस्ट में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने से जुड़े संगठन विश्व हिन्दू परिषद, बनवासी आश्रम, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, राष्ट्र सेविका समिति, विद्या भारती, के जरिए शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल विकास, पर्यावरण आदि के लिए काम कर रहा है। आज की स्थिति में 4 हज़ार से ज्यादा प्रकल्प काम कर रहे हैं। मोदी ने भी दिल्ली सत्ता सम्हालते समय ईस्ट फर्स्ट का नारा दिया था और इस ईस्ट फर्स्ट के नारे के पीछे थी आरएसएस की मौजूदगी। अगस्त 1999 में नेशनल लिब्रेशन आफ त्रिपुरा (एनएलएफटी) ने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री और लाल कृष्ण आडवाणी के गृह मंत्री रहते संघ के क्षेत्र कार्यवाह श्यामल कांति सेनगुप्ता, विभाग प्रचारक सुधामयदत्त और देवेन्द्र डे तथा जिला प्रचारक शुभांकर चक्रवर्ती का अपहरण किया था और 28 जुलाई 2001 को खबर आई थी कि चारों अपहरित स्वयंसेवकों की हत्या कर दी गई है। तो संघ के भीतर इस बात को लेकर आक्रोश था कि दिल्ली में हमारी सत्ता होते हुए भी ऐसी घटना घटित कैसे हो गई ? गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने नागपुर स्थित संघ हेडक्वार्टर में जाकर बकायदा श्रध्दांजलि अर्पित की थी। उस वक्त भी संघ नार्थ ईस्ट को लेकर गुस्से में था इस वक्त भी संघ नार्थ ईस्ट को लेकर गुस्से में है। संघ ने भी प्रधानमंत्री मोदी के मणिपुर नहीं जाने पर सवाल उठाये हैं। शायद संघ की नाराजगी को दूर करने के लिए ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अचानक से बतौर संघ प्रचारक अखबारों में लेख लिख कर संघ प्रमुख मोहन भागवत का जन्मदिन मनाते हैं और लालकिले की प्राचीर से संघ को सबसे बड़ा सेवक भी बताते हैं।
देश के भीतर एक अजीब सी परिस्थिति पैदा हो गई है जहां देश की राजनीति खुद को जिंदा रखने के लिए नाटक करती है। जो कि अपने आप में किसी त्रासदी से कम नहीं है। क्या सितम्बर का महीना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इम्तिहान का महीना है ? जिसमें दिल्ली के भीतर राजनीतिक तौर पर, संघ के भीतर वैचारिक तौर पर और राष्ट्रीय स्तर पर कूटनीतिक तौर पर उठ रहे सवालों को हल करने के लिए वहां जाना पड़ रहा है जिसको उन्होंने अनदेखा किया है। वह चीन, रूस, अमरिका, इजराइल, ईरान, मिडिल ईस्ट, फिलिस्तीन कोई भी हो सकता है। यह एक ऐसा कालखंड है जिसमें बहुत कुछ छुपा हुआ है इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मणिपुर जाना एकाएक नहीं हुआ है। ऐसा नहीं है कि पीएम ने सोचा हो कि चलो चलकर मणिपुर में तफरी कर आते हैं। ये परिस्थितियां तो उनके द्वारा बनाये गये उस कटघरे से उपज रही है कि अभी तक जो भी हुआ है उसकी भरपाई आपको ही करनी होगी और मणिपुर उसी दिशा में उठाया गया एक कदम है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार



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