जीएसटी कम होने का प्रचार तो पूरा है पर ‘सरकार’ के हृदय परिवर्तन का राज नहीं बताते ! संजय कुमार सिंह
आज सभी मेरे सभी अखबारों की लीड जीएसटी की दर कम होने की खबर है। हिन्दी के दो अखबार अपवाद हैं। हालांकि, जीएसटी की नई दरों को 22 सितंबर से लागू होना है। संभव है, 21 या 22 सितंबर को फिर सरकार की इस कृपा का प्रचार किया जाये। यह भी संभव है कि दोनों दिन प्रचार कर दिया जाये। यह प्रचार खबर के रूप में होगा और दूसरी खबर नहीं छपेगी या कम छपेगी। इसके लिए अखबारों को पैसे दिये जाते हैं। हमारे आपके टैक्स के पैसे से विज्ञापन लुटाये जा रहे हैं और ये उन अखबारों में नहीं होते हैं जो खबरें छापते हैं या जिनकी रीढ़ सही है। नतीजा यह है कि जो खबर अखबारों में वैसे ही छपनी थी उसका आज विज्ञापन भी है। यही हेडलाइन मैनेजमेंट है। पहले पन्ने पर अखबारों को पूरे पन्ने का विज्ञापन यानी जैकेट पहना दिया गया है। यह विश्व गुरू की राजनीति है। अखबारों और प्रचारकों की इसी सेवा के दम पर भ्रष्टाचार के तमाम मामले अखबारों में नहीं छपे। जो छपे उनकी जांच नहीं हुई और जो हुई वो ऐसी कि सिर्फ विपक्षी दलों के नेताओं को दोषी माना गया। बिना सबूत निर्वाचित जनप्रतिनिधि जेल में रहे और ईमानदार होने का ढोंग करने वाली सरकार एक महीने जेल में रहने पर पद से हट जाने का कानून ले आई। इसके लिए भी अपनी पीठ खुद ठोंकती रही। जो वाशिंग मशीन में धुल गये उनकी बात ही नहीं हुई और कानून (या विधेयक) में यह प्रावधान नहीं है कि जनप्रतिनिधियों को जेल भेजने वाले अधिकारी (या सरकार) की कोई जिम्मेदारी होगी और मामला साबित नहीं हुआ तो उसके खिलाफ कार्रवाई होगी। ऐसी मनमानी और तानाशाही का प्रचार कर सत्ता में बने रहने की कोशिश तब की गई जब नोटबंदी के समय कहा गया था कि नीयत में खोट निकल आये तो किसी भी चौराहे पर आ जाउंगा। यह झोला उठाकर चल दूंगा के बाद की बात है।

तब यह भी कहा गया था कि विदेश (स्विस बैंक) में भ्रष्टाचार का काला धन रखा है, 100 दिन में वापस ले आउंगा और आ गया तो इतना है कि हर किसी को 15 लाख मिलेंगे – जैसे लालच से चुनाव जीतने के बाद विदेश में 20 लाख तक की चल संपत्ति पकड़े जाने पर भी कार्रवाई नहीं करने का कानून बनाने वाली सरकार ने जीएसटी से देश के आम गरीबों को लूटने का काम किया और सब कुछ बोलने-बताने के बावजूद लूटती रही। अपने ही पुराने आरोपों को भूलकर मनमानी करती रही और अब जब उस लूट को कम करने का निर्णय किया है तो उसका भी पूरा प्रचार है। तथ्यों के बिना या यह बताये बगैर कि यह हृदय परिवर्तन कैसे हुआ। ना खाउंगा ना खाने दूंगा की घोषणा के बाद 20 लाख तक की चोरी-बेईमानी को मामूली कहने और उसके लिए कार्रवाई नहीं करने का नियम अपने लोगों की कमाई को ही नहीं, यौन अपराधों को भी नजरअंदाज करने के बाद है। 20 लाख वाला नियम पहले की तारीख से लागू है, आदेश सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है सो अलग। यह सब कुछ समय पहले नरेन्द्र मोदी की इस हिमाकत के बाद है कि मेरी सरकार पर भ्रष्टाचार के दाग नहीं हैं। जो उन्हें भगवान मानते हैं मानें, मुझे उससे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन अखबार सच्चाई नहीं छापते हैं और हमारे ही पैसों से खरीद लिये गये हैं – इससे दिक्कत है। जीएसटी दरों में कटौती – बेशक बड़ी खबर है। 48000 करोड़ की छूट के लिए नहीं, इसलिए कि इस सरकार (असल में जीएसटी कौंसिल) ने जनवरी 2022 में टेक्सटाइल और फुटवीयर पर जीएसटी बढ़ाकर 5% से 12% कर दिया था।
अगर मेरी याद्दाश्त सही है तो एलईडी लाइट्स और उनके घटक तथा छपाई की स्याही पर भी जीएसटी की दर बढ़ी थी। मुद्दा यह है कि जो सरकार अभी हाल तक टैक्स बढ़ा रही थी उसने अब कम करने का निर्णय क्यों किया? अखबारों की खबरों के अनुसार इससे सरकारी वसूली 48000 करोड़ कम होगी। जाहिर है, यह पैसा देश की आम जनता और गरीबों से भी लूटा जा रहा था। पनीर और दवा जैसी जरूरी चीजों पर टैक्स के रूप में। बात छह महीने, साल भर या दो साल गलती करने या चूक जाने की नहीं है, आठ साल तक कान में तेल डाले रहने की है। आज खबर है कि स्लैब (असल में टैक्स) कम करने से सरकार को जो घाटा होगा उसके बड़े हिस्से 43000 करोड़ की भरपाई सिन टैक्स (सिगरेट, तंबाकू जैसे उत्पादों पर भारी टैक्स) और लक्जरी टैक्स में वृद्धि से हो जायेगी। तथ्य यह है कि 2017 में जीएसटी लागू होने के बाद से ही कहा जा रहा था कि सिगरेट-तंबाकू जैसे उत्पादों पर टैक्स कम हो गया है और इसे बढ़ाया जाना चाहिये। तब सुनवाई नहीं हुई, सिन टैक्स को भुला दिया गया। आम आदमी से दूध पर टैक्स लिया जाता रहा। शराब पर टैक्स कम करने (या टैक्स संरचना बदलने के लिए) दिल्ली में आम आदमी पार्टी को न सिर्फ परेशान किया गया, बदनाम किया गया बल्कि सत्ता से भी बेदखल कर दिया गया। यह सब वोट चोरी से हुआ हो तो अपराध भी है लेकिन उसकी पुष्टि होगी कि नहीं या होगी तो कब, कैसे वह अलग मुद्दा है। इस बीच सिन टैक्स वाले तंबाकू क्षेत्र और उद्योग की मौज रही। आज अमर उजाला में एक खबर भी है, आईटीसी के लिए जोखिम व राहत दोनों। अखबार ने इसे केस स्टडी बताया है और लिखा है कि नया (कर) ढांचा कंपनी के लिए जोखिम व राहत दोनों लेकर आया है। तथ्य यह है कि आईटीसी लिमिटेड एक भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनी है। इसकी स्थापना 1910 में “इम्पीरियल टोबैको कंपनी” के रूप में हुई थी। इसका मुख्यालय कोलकाता, पश्चिम बंगाल में है। आईटीसी का मूल व्यवसाय सिगरेट बनाना-बेचना है। यह भारत की सबसे बड़ी तंबाकू उत्पादक कंपनी मानी जाती है। इसलिये देश की महत्वपूर्ण कंपनियों में है। इसके व्यवसाय से आय का बड़ा हिस्सा तंबाकू से आता है। हालांकि, कंपनी विविध क्षेत्रों में काम करती है। इनमें एफएमसीजी उत्पाद, होटल व्यवसाय, कागज और पैकिंग, आईटीसी इंफोटेक आदि शामिल है। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि 2017 में जीएसटी लागू किये जाने के समय सिन टैक्स नहीं लगाने का लाभ अगर किसी कंपनी को मिला होगा या मिल रहा होगा तो वह आठ साल चला। जनता को राहत देने का ख्याल ‘सरकार’ और खासकर नरेन्द्र मोदी को अब आया है। क्या यह बदलाव यूं ही है। मुझे नहीं लगता। इसे समझिये और अगर समझ सकते हैं तो मामला बहुत साफ है। उल्लेखनीय है कि जीएसटी से संबंधित निर्णय जीएसटी कौंसिल करती है। केंद्रीय वित्त मंत्री इसके अध्यक्ष होते हैं जबकि केंद्रीय राजस्व या वित्त राज्य मंत्री – सदस्य होते हैं। देश के सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के वित्त मंत्री या कर मामलों के प्रभारी मंत्री भी इसके सदस्य होते हैं। निर्णय वोटिंग या सहमति से होते हैं, लेकिन विपक्षी सदस्यों की भूमिका तो होती ही है। देश के राज्यों के वित्त मंत्रियों को शामिल करना उनका बैठको में हिस्सा लेना बताता है कि इसका उद्देश्य यही है कि निर्णय एकतरफा न हों। लेकिन केंद्रीय वित्त मंत्री की अध्यक्षता के मायने हैं और जीएसटी कौंसिल में इसका असर दिखता रहा है। ताजा निर्णय भी जीएसटी कौंसिल से ज्यादा केंद्र सरकार या नरेन्द्र मोदी का है और यह बहुत हद तक चुनाव आयोग की तरह काम करता लग रहा है। हालांकि यह अलग मुद्दा है। पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री डॉ. अमित मित्रा जीएसटी कौंसिल के शुरुआती सदस्यों में रहे हैं और आर्थिक मामलों के जानकार होने के नाते उनका इसमें योगदान भी है। उदाहरण के लिए सितंबर 2016 में पहली बैठक में उन्होंने बताया कि जीएसटी काउंसिल ने निर्णय लिया कि सालाना ₹20 लाख तक का टर्नओवर रखने वाले व्यापारी जीएसटी दायरे से बाहर रहेंगे। इससे छोटे व्यापारियों को बड़ी राहत मिली थी। इसके बाद उन्होंने बढ़ते “बहुसंख्यक” रवैये और केंद्र द्वारा जीएसटी काउंसिल की संघीय प्रकृति को कमजोर करने पर आलोचना की और निर्णय में सहमति की जरूरत बताई। इसके बावजूद यह सब चलता रहा तो समझ सकते हैं कि कारण क्या होगा। आज के अखबारों की खबरों में परंपरा और रिवाज के अनुकूल टैक्स में छूट का पूरा विवरण है। अमर उजाला जैसे अखबार में विज्ञापन के अलावा खबर भी सरकारी प्रचार की तरह है।
जीएसटी की दर ज्यादा और मुश्किल वाली है यह कई बार कहा जा चुका है। शिकायतों पर इस सरकार का रवैया बिल्कुल तानाशाही वाला रहा है। हाल में एक मामला सोशल मीडिया पर काफी चर्चित हुआ था जब दक्षिण भारत के किसी होटल या रेस्त्रा व्यवसायी ने सार्वजनिक तौर पर वित्त मंत्री से टैक्स संरचना की शिकायत उदाहरण के साथ की थी। बाद में उसी व्यवसायी का वीडियो वित्त मंत्री से माफी मांगते हुए जारी किया गया था। उसी सरकार ने अब जीएसटी पर इतनी छूट दी है, जमाने से की जा रही मांग पूरी की है तो मेरी नजर में कारण सिर्फ यही है कि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता मुश्किल में है। सितंबर 2024 में कोयम्बटूर के श्री अन्नपूर्णा होटल के मालिक डी श्रीनिवासन ने एक कार्यक्रम में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से पूछा था कि बन पर जीएसटी नहीं है लेकिन क्रीम बन पर 18% है, मिठाइयों पर 5% लेकिन नमकीन पर 12% है। इससे बिलिंग संबंधी भ्रम होता है। मुझे ठीक से याद नहीं है लेकिन इसपर मंत्री का रुख सुनने वाला, समस्या को समझने या कुछ कर सकने या करने के इरादे वाला तो बिल्कुल नहीं था। बाद में एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें श्रीनिवासन वित्त मंत्री से माफी मांगते हुए दिखाई दे रहे थे। वे जो वित्त मंत्री से कहते बताये गये उसका हिन्दी दिए अनुवाद होगा, “मुझे माफ कर दीजिये…. मैं किसी राजनीतिक दल का नहीं हूं”। पार्टी ने इस माफीनामे को सार्वजनिक होने दिया और इस तरह यह संदेश गया कि जीएसटी की आलोचना पार्टी के लोग और समर्थक तो नहीं ही कर सकते हैं विपक्षी और विरोधी तो छोड़िये कोई व्यवसायी भी नहीं कर सकता है। जीएसटी की वसूली लगभग ऐसे ही हुई है। यह ठीक है कि माफी नामा सार्वजनिक होने के बाद एक राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया था। विपक्षी दलों ने इसे सत्ता द्वारा विरोधी नजरिये पर दबाव डालने का उदाहरण माना और व्यापक आलोचना की। 2018 में जीएसटी पर मेरी किताब, जीएसटी : 100 झंझट आई थी। तब भी मुझे नहीं लगा था कि इस सरकार, व्यवसायी या चार्टर्ड अकाउंटैंट भी बात करने को तैयार हैं। विपक्ष को तो सब पता ही था। मुद्दा यह नहीं रहा कि सरकार ऐसा क्यों कर रही है। मुद्दा यह बना दिया गया कि राहुल गांधी कुछ कर क्यों नहीं रहे हैं और ऐसे नहीं कर रहे हैं, वैसे क्यों नहीं कर रहे हैं। वोट चोरी के मामले में भी यही रवैया है। लेकिन वह अलग मुद्दा है।
इसीलिये जीएसटी पर कल घोषित छूट को द टेलीग्राफ ने विन्डफॉल रिलीफ लिखा है। हिन्दी में इसे अप्रत्याशित या छप्पर फाड़ राहत भी कहा जा सकता है। खास बात यह है कि जीवन रक्षक दवाओं, बीमा पर भी टैक्स लगता था। अब इन्हें टैक्स मुक्त कर दिया गया है। आप समझ सकते हैं कि 2014 से पहले जिन लोगों के लिए महंगाई मुद्दा होती थी उनलोगों ने सत्ता में आने पर जीवनरक्षक दवाइयों, मेडिकल इंश्योरेंस और शिक्षा को भी टैक्स मुक्त नहीं रखा था। रेल और डाक सेवा पर भी टैक्स लगा तथा अस्पतालों की सभी सेवाओं पर भले टैक्स नहीं लगा कुछ पर टैक्स लगने से अस्पतालों को भी जीएसटी पंजीकरण कराना पड़ा और उनकी सेवाएं महंगी हो गईं। यह सब लाल फीताशाही की श्रेणी में आता है और मोदी सरकार ने ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के दावों के साथ जो किया वह व्यवसाय चलाना मुश्किल करने वाला ही था। इसमें पकौड़े बेचना भी शामिल था। अब जब इसमें राहत दी गई है तो खबर ऐसे छपी है जैसे पहले जो सब हुआ वह कोई मुद्दा ही नहीं है और इसे सरकार की उदारता के रूप में देखा जाये। पहले की लूट पर इन्हीं अखबारों में शायद ही कोई खबर या सूचना मिले। दि एशियन एज ने फ्लैग शीर्षक के दो बिन्दुओं में एक प्रधानमंत्री के इस कथन को रखा है कि, अगली पीढ़ी के (इन) सुधारों से अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी, नागरिकों को लाभ होगा।
टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर की खास बात है, एफएमसीजी सामानों पर भी शुल्क कटौती, एक और – भिन्न श्रेणी में सामान्य तौर पर करों में कटौती। प्रधानमंत्री ने जो कहा वह तो है ही, यह भी कि इससे त्यौहारों के मौसम में खपत बढ़ने की उम्मीद है। हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर का शीर्षक है, जीएसटी व्यवस्था के सुधार में टैक्स कटौती का लाभ। द हिन्दू का शीर्षक है, जीएसटी कौंसिल ने 22 सितंबर से प्रभावी दो दर की टैक्स व्यवस्था को मंजूरी दी। उपशीर्षक है, तंबाकू और लक्जरी आयटम के लिए 40 प्रतिशत की विशेष टैक्स संरचना शुरू की, जीवन बीमा और स्वास्थ पॉलिसी से टैक्स खत्म किया। इस कदम से दैनिक उपयोग की वस्तुओं, खाद्य पदार्थों, जीवन रक्षक दवाइयों और सीमेंट की कीमत कम होने की संभावना है। मुझे लगता है कि खबर लिखने का यह और कुछ दूसरे अखबारों का भी तरीका सही है। वरना सरकार के प्रचार में इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार ने भी बताया है कि किस श्रेणी के किन उत्पादों पर टैक्स पहले कितना था अब कितना हो गया है। मोटे तौर पर मुद्दा यह है कि टैक्स कम रखा जा सकता था फिर भी जबरन ज्यादा वसूला गया और इसके बड़े हिस्से की भरपाई सिन टैक्स या विशेष लक्जरी टैक्स से की जा सकती थी जो मांग के बाद भी नहीं वसूला गया। दूसरी ओर, इंडियन एक्सप्रेस में आज प्रकाशित खबर के अनुसार, मरकज के प्रमुख के खिलाफ कोविड एफआईआर के पांच साल बाद ‘कुछ भी आपत्तिजनक नहीं’ मिला है।
देशबन्धु में जीएसटी की खबर का शीर्षक है, जीएसटी में अब सिर्फ दो टैक्स स्लैब है। उपशीर्षक है, जीएसटी काउंसिल की 56वीं बैठक में लिया गया बड़ा फैसला। इस खबर को बहुत जगह नहीं दी गई है इसलिए पहले पन्ने पर दूसरी खबरें भी हैं। उनमें एक पर आगे बात करता हूं। उससे पहले नवोदय टाइम्स में भी यह खबर सामान्य खबर की तरह है। आज वैसे तो जीएसटी की खबर ही ज्यादातर अखबारों की लीड है लेकिन हिन्दी के अखबारों, देशबन्धु और नवोदय टाइम्स ने बाढ़ की खबर को ज्यादा महत्व दिया है। अमर उजाला और दैनिक भास्कर में जीएसटी की खबर को ज्यादा महत्व मिला है। अमर उजाला ने प्रचार शैली में खबर लिखी है और इंडियन एक्सप्रेस से बहुत आगे है। इसमें यह भी बताया गया है कि सरकार को टैक्स कटौती (या स्लैब कम करने) से 1.98 लाख करोड़ की खपत बढ़ने की उम्मीद है। आप जानते हैं भाजपा शासन में देश की अर्थव्यवस्था खराब रहने के तमाम संकेत हैं लेकिन सरकार भिन्न तरीकों से इसे ठीक और बेहतर बताती रही है। जीएसटी वसूली बढ़ी, इनमें से एक है और अब उसी को कम किया गया है उससे 1.98 लाख करोड़ की खपत बढ़ने की उम्मीद का मतलब यह मानना है कि कीमते ज्यादा होने के कारण लोग सामान नहीं खरीद रहे थे और जीएसटी में यह सुधार अर्थव्यवस्था को ठीक करने की मजबूरी में किया गया है। सरकार इसे मान ले तो मानना पड़ेगा कि अर्थव्यवस्था की हालत खराब है या यह मान ले कि घटती लोकप्रियता के कारण किया गया तो यह भी मानना पड़ेगा कि लोकप्रियता घटी है। दोनों को नहीं मानना है क्योंकि उसके नुकसान हैं। अखबारों का पूरा साथ मिला है। विज्ञापनों के लिए हो या ईडी-सीबीआई के डर से। दैनिक भास्कर की खबर भी प्रचार ही है लगता है विज्ञापन से लिख दिया गया हो।
अल्पसंख्यक बिना पासपोर्ट
घुसपैठियों पर इस सरकार का रुख आप जानते हैं। नरेन्द्र मोदी जब तक सत्ता में नहीं थे यही कहते थे कि गैर भाजपाई दल (या उनके विरोधी) सीमा पार से घुसपैठ होने देते हैं। उन्हें सुविधाएं, संरक्षण देते हैं उनका आधार और वोटर कार्ड बनवा देते हैं और ये लोग एक साथ कांग्रेस या सत्तारूढ़ दल को वोट देते हैं। नरे्न्द्र मोदी ऐसे लोगों को घुसपैठियां कहते रहे हैं। 10 साल से ज्यादा समय से उनकी सरकार है और अंतरराष्ट्रीय सीमा से घुसपैठ रोकना उनके खास, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का काम है और सीधे उनके नियंत्रण में है, इसके बावजूद भाजपा, उसके लोग घुसपैठियों की मौजूदगी का आरोप लगाते हैं और यह नहीं बताते हैं कि सीमा सुरक्षा बल के जरिये घुसपैठ रोकी क्यों नहीं जा रही है और जो आ गये उनके खिलाफ भी कार्रवाई नहीं हो रही है। इसके बावजूद बिहार में एसआईआर हो रहा है और सबको पता है कि इसका मसकद क्या है। घुसपैठियों को शामिल नहीं करने के नाम पर आधार कार्ड को छोड़कर 11 ऐसे दस्तावेज मांगे गये हैं जिनमें कई ऐेसे हैं जो आम आदमी के पास नहीं है। सब विरोध, सुप्रीम कोर्ट के दखल के बावजूद जो हो रहा है वह बहुत स्पष्ट और सरल नहीं है। फिर भी, इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए केंद्र सरकार ने अब फैसला किया है कि 2024 तक आये अल्पसंख्यक बिना पासपोर्ट भारत में रह सकेंगे। अभी मुद्दा यह होना चाहिये था कि बिना पासपोर्ट ये भारत कैसे आये और कैसे रह रहे हैं। अगर कथित बांग्लादेशी घुसपैठियों को मतदाता नहीं बनाने के लिए बिहार में एसआईआर चल रहा है, इतना खर्च हो रहा है तो अभी इन विदेशियों को भारत में रहने देने का उद्देश्य क्या हो सकता है ? क्या इसपर भी वैसे ही सवाल नहीं उठने चाहिये? वैसे भी केंद्र की भाजपा सरकार कब क्या बोलेगी, पहले क्या कहा है और आगे क्या बोलेगी, कोई नहीं जानता है। एक तरफ तमाम नागरिकों के लिए वोटर आईकार्ड बनना मुश्किल है, दूसरी ओर अल्पसंख्यकों को रहने की इजाजात है और घुसपैठ कैसे हुई, कितनी हुई इस पर सन्नाटा है। वोट चोरी, मतदातासूची में फर्जी नाम के संदर्भ में इसका महत्व है तब भी।

लेखक डिक्लेयर : मैं रोज तीन हिन्दी और छह अंग्रेजी, कुल नौ, कई बार इससे भी ज्यादा अख़बार देखकर उसकी खास बातें लिखता हूँ। अंग्रेजी की खबरों के खास अंशों का अनुवाद करता हूं। वह भी लिखता हूं जो अखबार नहीं लिखते या नहीं लिख सकते हैं। जो लिखता हूं उसमें बहुत कुछ याद से लिखा होता है। चैट जीपीटी का सहयोग होता है। कुछ अंग्रेजी अखबारों की खबरों का अनुवाद होता है। इसलिये भूल-चूक की आशंका है। कृपया कहीं उल्लेख करने या हवाला देने से पहले अपने स्तर पर पुष्टि कर लें।
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