अर्धनग्न मुजरे के दौर में गुम होती साहित्यिक स्त्रियाँ
“सोशल मीडिया की चमक-दमक के शोर में किताबों का स्वर कहीं खो गया है।”
इंस्टाग्राम और डिजिटल मीडिया का दौर है। यहाँ आकर्षण और तमाशा सबसे ज्यादा बिकते हैं। लेकिन समाज की आत्मा को बचाए रखने के लिए जरूरी है कि स्त्रियाँ फिर से साहित्य की ओर लौटें। इंस्टाग्राम का शोर कुछ समय बाद थम जाएगा,
पर साहित्य के शब्द अमर रहेंगे। साहित्य पढ़ने वाली स्त्रियाँ कभी गुम नहीं होतीं, वे हर उस किताब के पन्नों में जीवित रहती हैं जिसे कोई दिल से खोलता है।
आज के समय में जब हर हाथ में स्मार्टफोन और हर मन में लाइक्स व फॉलोअर्स की भूख पल रही है, तब साहित्य और किताबें पढ़ने वाली स्त्रियों का अस्तित्व कहीं पीछे छूटता जा रहा है। यह दौर इंस्टाग्राम रील्स, टिकटॉक जैसे प्लेटफॉर्म्स और डिजिटल मनोरंजन का है। यहाँ अर्धनग्न होकर मुजरा करने वाली छवियाँ सेकंडों में लाखों लोगों तक पहुँच जाती हैं, पर वहीँ गंभीर साहित्य, कविता या आलोचना पढ़ने वाली स्त्रियों की आवाज़ मानो कहीं दबकर रह जाती है। यह केवल एक सामाजिक विडंबना नहीं बल्कि सांस्कृतिक संकट भी है।
सदियों से स्त्रियाँ साहित्य के माध्यम से समाज की आत्मा को संवेदनाओं और करुणा से सींचती रही हैं। महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम, कृष्णा सोबती, मैत्रेयी पुष्पा जैसी लेखिकाएँ न केवल साहित्य रचती थीं बल्कि स्त्री की अस्मिता और समाज की चेतना का प्रतीक भी थीं। लेकिन आज का समय उन्हें पढ़ने से अधिक उन्हें “कोट्स” बनाकर इंस्टाग्राम स्टोरी पर सजाने में व्यस्त है।
आज की पीढ़ी का बड़ा हिस्सा विज़ुअल कंटेंट में उलझा है। वीडियो और तस्वीरों की त्वरित खपत ने किताबों की धीमी, गहरी और आत्ममंथन कराने वाली दुनिया को पीछे धकेल दिया है। स्त्रियाँ, जो कभी किताबों में आत्मा का सहारा खोजती थीं, अब सोशल मीडिया पर ग्लैमराइज्ड आइडेंटिटी गढ़ने में मजबूर हो रही हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि सोशल मीडिया स्त्रियों को मंच देता है, पर यह मंच अक्सर उनके शरीर को अधिक महत्व देता है, विचारों को नहीं। यही कारण है कि इंस्टाग्राम पर एक नृत्य या अर्धनग्न अभिनय लाखों लाइक्स पा लेता है, लेकिन किसी स्त्री द्वारा किया गया साहित्यिक विश्लेषण सैकड़ों पर भी नहीं पहुँचता।
साहित्य पढ़ने और रचने वाली स्त्रियाँ समाज में गहरी छाप छोड़ती थीं। वे अपने लिखे से व्यवस्था को चुनौती देती थीं, रिश्तों की नई परिभाषा गढ़ती थीं और स्त्री-पुरुष समानता की नई जमीन तैयार करती थीं। लेकिन आज, प्राथमिकताएँ बदल गई हैं। आधुनिक स्त्री अक्सर अपने को साबित करने के लिए सोशल मीडिया की दौड़ में शामिल हो जाती है। यहाँ सुंदरता और आकर्षण अधिक बिकते हैं, विचार और भावनाएँ कम। यह विडंबना है कि जिस साहित्य ने स्त्रियों को आवाज़ दी, वही साहित्य अब उनकी आवाज़ की प्रतीक्षा कर रहा है।
महादेवी वर्मा की कविताएँ स्त्री की करुणा, पीड़ा और सौंदर्य का ऐसा प्रतिरूप थीं, जिन्हें पढ़कर आत्मा झंकृत हो जाती थी। वे लिखती थीं—“मैं नीर भरी दुख की बदली…” उनकी कविताओं में स्त्री की आत्मा बोलती थी, पर आज वही आत्मा इंस्टाग्राम फिल्टर और बैकग्राउंड म्यूज़िक के शोर में दबती जा रही है। जहाँ पहले स्त्रियाँ समाज से कहती थीं कि “मेरी आवाज़ सुनो”, आज वे मजबूर हैं यह कहने पर कि “मेरे डांस को लाइक करो।” यही सबसे बड़ा सांस्कृतिक पतन है।
हालाँकि यह कहना पूरी तरह उचित नहीं होगा कि साहित्य पढ़ने वाली स्त्रियाँ गायब हो गईं। वे अब भी मौजूद हैं, पर उनका दायरा सीमित हो गया है। पुस्तकालयों, विश्वविद्यालयों और छोटे-छोटे साहित्यिक मंचों पर अब भी स्त्रियाँ साहित्य पढ़ रही हैं, लिख रही हैं और चर्चा कर रही हैं। फर्क बस इतना है कि उनका स्वर उतना बुलंद नहीं है जितना सोशल मीडिया के ग्लैमरस कंटेंट का है। असल में समस्या प्लेटफॉर्म की भी है। इंस्टाग्राम का एल्गोरिद्म ही ऐसा है जो मनोरंजन और तड़क-भड़क को प्राथमिकता देता है। गंभीर साहित्य या लंबी पढ़ाई वहाँ “ट्रेंडिंग” नहीं बन पाती।
साहित्य पढ़ने का अर्थ है—अपने भीतर झाँकना, दूसरों की पीड़ा को समझना, और आत्मा को गहराई से महसूस करना। जब समाज साहित्य से दूर होता है, तो वह अपनी संवेदनशीलता भी खो देता है। स्त्रियों की करुणा और कोमलता ही समाज को संतुलित रखती हैं। लेकिन जब यही स्त्रियाँ केवल बॉडी शो तक सीमित हो जाएँ और आत्मा की गहराई को दरकिनार कर दें, तो समाज के संवेदनशील होने की उम्मीद भी घट जाती है।
इस स्थिति से निकलने के लिए जरूरी है कि परिवार और शिक्षा व्यवस्था किताबों के प्रति प्रेम जगाए। घर और स्कूलों में बच्चों, खासकर बेटियों को किताबें पढ़ने की आदत डालनी होगी। साहित्यकारों और प्रकाशकों को चाहिए कि वे सोशल मीडिया पर साहित्य को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करें। सरकार और समाज को साहित्य पढ़ने और लिखने वाली स्त्रियों को ज्यादा मंच देना चाहिए, ताकि उनकी आवाज़ दबे नहीं। स्त्रियों को आपस में साहित्यिक समूह और बुक क्लब बनाने चाहिए, जो एक-दूसरे को प्रेरित करें।
इतिहास गवाह है कि जब भी समाज अंधकार में डूबा, साहित्य ने ही राह दिखाई। और उस साहित्य में स्त्रियों की भूमिका हमेशा निर्णायक रही। चाहे वह मीरा हों, चाहे महादेवी, या फिर समकालीन स्त्रियाँ—उन्होंने अपने शब्दों से समाज की दिशा तय की। आज भी यदि स्त्रियाँ किताबों को गले लगाएँगी, तो आने वाली पीढ़ी को सिर्फ “फॉलोअर्स” और “लाइक्स” नहीं, बल्कि जीवन की गहरी समझ भी मिलेगी।
आज का निष्कर्ष यही है कि इंस्टाग्राम और डिजिटल मीडिया का दौर है। यहाँ आकर्षण और तमाशा सबसे ज्यादा बिकते हैं। लेकिन समाज की आत्मा को बचाए रखने के लिए जरूरी है कि स्त्रियाँ फिर से साहित्य की ओर लौटें। क्योंकि इंस्टाग्राम का शोर कुछ समय बाद थम जाएगा, पर साहित्य के शब्द अमर रहेंगे। साहित्य पढ़ने वाली स्त्रियाँ कभी गुम नहीं होतीं—वे केवल समाज की लापरवाही के कारण धुंधली दिखने लगती हैं। जब भी कोई किताब खोली जाएगी, वे फिर से जीवित हो उठेंगी।
-डॉ. प्रियंका सौरभ
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