स्वतंत्रता के संघर्ष में नारी शक्ति की भूमिका
विदेश में सर्वप्रथम भारतीय झंडा फहराने का श्रेय मैडम भीखाजी कामा को जाता है। मैडम भीखाजी का जन्म 18 सितम्बर, 1885 को मुम्बई के पास एक पारसी परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सोराब जी पटेल और माता का नाम जीजाबाई था। उन पर देशसेवा का रंग 24 वर्ष की आयु में ही तब चढ़ गया था, जब वे इण्डियन नेशनल कांग्रेस के पहले अधिवेशन में गईं। उनकी इच्छा के विरुद्ध माता-पिता ने उनकी शादी तो कर दी किन्तु अपने पति रुस्तमजी के साथ उनकी बन नहीं पाई। वैवाहिक जीवन उन्हें अच्छा नहीं लगा, क्योंकि उन पर समाज और देशसेवा की धुन सवार थी। इंग्लैण्ड में बैरिस्टर श्यामकृष्ण वर्मा से मैडम कामा की मुलाकात हुई।
बैरिस्टरजी ने वहां एक संस्था की स्थापना की थी, जो अंग्रेजों के खिलाफ भारतवासियों को संगठित करती थी, इस उद्देश्य की प्राप्ति की दिशा में भीखाजी कामा ने श्यामकृष्ण वर्मा के साथ काफी काम किया और जोशीले भाषण दिए। एक बार लंदन हाइड पार्क में उन्होंने बड़ा जोरदार भाषण दिया और अंग्रेजों की करतूतों का पर्दाफाश किया। उनके भाषण से अंग्रेज सरकार क्रुद्ध हो उठी और उसने उनकी गिरफ्तारी का इरादा बनाया।भीखाजी को पहले ही पता लग गया और वे चुपचाप लंदन से पेरिस चली गईं। पेरिस में उनकी मुलाकात लाला हरदयाल, सावरकर, वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय और सापारेजी सकलापाला से हुई। जेनेवा में उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ साप्ताहिक अखबार निकालना शुरू किया। 1907 में अमेरिका गईं, फिर जर्मनी तथा स्कॉटलैण्ड। वे जहां पहुंचीं, वहां की भाषा सीखकर अंग्रेजों के खिलाफ जोशीले भाषण देती रहीं, इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें भारत लौटने की अनुमति नहीं दी।
जर्मनी में वे 1908 में समाजवादियों की परिषद में भारतीयों की प्रतिनिधि बनकर गईं, वहां सब देशों के राष्ट्रीय ध्वज फहराए गए। इस मौके पर उन्होंने यूनियन जैक की जगह अपना राष्ट्रीय ध्वज तैयार कर फहराया। इस राष्ट्रीय ध्वज में लाल, सफेद और हरे रंग की आड़ी पट्टियां थीं। पहले लाल रंग की पट्टी पर कमल का फूल और सात सितारे थे। बीच वाली सफेद पट्टी पर ‘वंदे मातरम्’ लिखा हुआ था। नीचे वाली हरी पट्टी पर सूर्य और अर्ध चन्द्र का चिन्ह था। सात सितारे सप्तर्षि की याद दिलाते थे। सूर्य और चन्द्र हिन्दू-मुसलमानों की एकता का चिन्ह और ‘वंदे मातरम्’ भारत का सूत्र था। यही हमारे देश का पहला राष्ट्रध्वज था।
मैडम भीखाजी के कार्यकलापों के कुछ और भी आयाम हैं। वे लंदन में भारत की मुक्ति के लिये सक्रिय काम करने के लिए गठित ‘अभिनव भारत’ संस्था की अग्रणी कार्यकर्ता थीं। 20 फरवरी, 1909 को लंदन सोसायटी की बैठक हुई, जिसमें मैडम कामा ने भी भाषण दिया। भाषण के पहले उन्होंने एक झंडा निकाला, इस झंडे को हाथ में पकड़कर मैडम कामा ने कहा, ‘मुझे यह झंडा फहराकर और उसके नीचे खड़े होकर भाषण करने की आदत है। 1910 में जहाज से कूदने के बाद वीर सावरकर फ्रांस में गिरफ्तार हुए। मैडम कामा के प्रयत्नों से ही फ्रांस के अखबारों से सावरकर को छोड़ने का मुद्दा उठाया गया। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ होने पर मैडम कामा भारतीय नेताओं के उस वर्ग में थीं, जिसने मित्र राष्ट्रों का साथ न देने का निश्चय किया। इस पर फ्रांस सरकार ने उन्हें कारागार में डाल दिया। 1918 में विश्वयुद्ध समाप्त होने पर ही भीखाजी को रिहा किया गया। इस दौर में उनका शरीर सूखकर कंकाल मात्र रह गया।
विश्वयुद्ध के दौरान मैडम कामा के विचारों ने भारतीय सेना के हृदय में सोई हुई चिंगारी प्रज्ज्वलित कर दी और वे इंग्लैण्ड के विरुद्ध हो गए। इस युद्ध के दौरान जितने भी सैनिक अंग्रेजी साम्राज्यवादियों द्वारा बंदी बना लिए गए, श्रीमती कामा ने सबको रिहा करने का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र के सामने रखा था।
कामा को विदेशों में रहते-रहते वर्षों बीत चुके थे। अब वे चौहत्तर वर्ष की वृद्धा हो गई थीं और भारत आने के लिए आकुल थीं। गणमान्य व्यक्तियों के प्रयासों के फलस्वरूप मैडम कामा को अंग्रेज सरकार ने भारत लौटने की अनुमति दे दी। बीमार अवस्था में वे मुम्बई पहुंचीं। यहां सात-आठ साल तक एक अस्पताल में जीवन-मृत्यु के बीच झूलती रहीं और भारत की आजादी का सपना देखती रहीं। 13 अगस्त, 1936 को वीरांगना भीखाजी कामा का मुंबई में पार्थिव शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया। जो रचनाकार की इन पंक्तियों में समाहित है- जब अबला सबला बनकर- बिजली की भांति कड़कती।
तब शत्रु हृदय की धमनी – दे पीड़ा विषम धड़कती।
आज जब सभी ओर अपने कर्तव्यों का ध्यान न देते हुये केवल अधिकार चाहिए, के नारे से सभी वर्ग गुंजायमान हो रहे हैं, प्रगतिशीलता के युग का यह अर्थ नहीं है कि हमारे जिन पूर्वजों ने अपना खून देकर जीवनदान दिया या अपनी लेखनी से उसको जीवित रखा, उनको गुमनामी के अंधेरे में विलुप्त कर दें।
एक युग ऐसा भी था, जब देश के शीर्षस्थ विद्वान जगद्गुरु आदि शंकराचार्य तथा आचार्य मंडन मिश्र के जगप्रसिद्ध शास्त्रार्थ की निर्णायिका के रुप में दोनों पक्षों ने परम विदुषी भारती (मण्डन मिश्र की पत्नी) को ही मान्यता दी थी। शकुन्तला ने भरत जैसे पुत्र को इतना प्रतिभाशाली बनाया कि देश का नाम भारतवर्ष रखा गया। महाराष्ट्र की आदर्श माता जीजाबाई ने शिवाजी जैसे पुत्र को देशप्रेम की ऐसी शिक्षा-दीक्षा दी कि उन्हें राष्ट्रमाता का दर्जा मिला।
महात्मा गांधी को बचपन में उनके रामराज्य स्थापित करने की कल्पना को माताजी ने रोजाना रामायण सुना-सुनाकर उनके मन-मस्तिष्क में भर दिया था। देश की आजादी के आन्दोलन में उसी पर आधारित रामराज्य स्थापित करने का मुख्य नारा लगा।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का बचपन बिठूर प्रवास में सैन्य शिक्षा-दीक्षा में बीता। आगे चलकर वह वीरांगना नारी अंग्रेजी सेना से मुठभेड़ में ग्वालियर में शहीद हुई। उनकी हमशक्ल सहयोगी झलकारीबाई का बलिदान भी स्वर्णाक्षरों में लिखा गया। दक्षिण की प्रमुख सेनानी रानी चेन्नम्मा से सभी परिचित हैं।
अहिल्याबाई ने अपनी होल्कर राज्य की सुव्यवस्थित शासन-व्यवस्था को देखते हुए देश के प्रमुख तीर्थ स्थानों के देवालयों को पुननिर्मित करा धरोहरों को सुरक्षित रखा। रजिया बेगम तथा लखनऊ की बेगम हजरत महल की कहानियां बहुचर्चित हैं। 1857 में नर्तकी बन अजीजनबाई कानपुर के नानाराव पार्क में स्थित अंग्रेजों के क्लब ‘बीबीघर’ में सुरापान करा के युद्ध की आगामी योजनाओं की जानकारी लेती थीं। अंग्रेजों की इन गुप्त सूचनाओं की पूर्व जानकारी नित्य घोड़े पर सवार होकर प्रात: मुंहबोले भाई क्रांति नायक नानाराव पेशवा को देती रहती थीं। इधर, हैबलाक जैसे क्रूर अंग्रेज सैन्य अधिकारी जो इलाहाबाद से कानपुर आते समय मार्ग के गांवों में आग लगाने के साथ ही नर-नारी एवं बच्चों की हत्या का तांडव मचाए हुए था। हैवलाक के इन वीभत्स हत्याकांडों को अजीजनबाई बर्दाश्त न कर सकी। उसने नानाराव पार्क (पूर्व कम्पनी बाग) स्थित कुएं (अंग्रेजों के क्लब ‘बीबीघर’) में अंग्रेजों के 210 लोगों को मौत के घाट उतारकर उस कुएं में डलवाया। इस विशाल कुएं का नाम ‘मेमोरियल वेल’ रखा गया, जो इस समय ऊपर से बंद कर दिया गया है। सर्वप्रथम कानपुर की चर्चा लंदन की ब्रिटिश पार्लियामेंट में इस घटना को लेकर और दूसरी चर्चा बिठूर के किले में अंग्रेज सैन्य अधिकारी ने नानाराव पेशवा की दत्तक पुत्री मैनावती को देखते ही क्यों नहीं गोली मारी पर हुई। आरोप लगाया गया कि वह सैन्य अधिकारी सुन्दर कन्या मैनावती पर मोहित हो गया था। इसका विवरण कानपुर में नानाराव पार्क में स्थापित शिलालेख में अंकित है। कलम और कारागार दोनों का समान उपयोग करने वाली खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी, की चर्चित सेनानी कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान तथा उनकी सहेली सेनानी हिन्दी काव्यधारा की प्रतीक महादेवी वर्मा को क्या कभी विस्मृत किया जा सकता है? क्रान्तिकारी तथा राजनैतिक कार्यकलापों में नारी शक्ति ने एक अलग इतिहास बनाया है।
अभिनव तिवारी -विभूति फीचर्स
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