खरी-अखरी: तुरही बजंती, डुगडुगी पिटंती, सर्व डंका फटवावहै
देश की नजरें देश की सबसे बड़ी अदालत की चौखट पर
Election Regulation – EC replaces digital draft voter list in Bihar with scanned images that make finding errors harder – Data on digital rolls can be extracted and organised quickly using computer programmes and artificial intelligence tools. Ayush Tiwari. The Election Commission today removed digital machine-readable Bihar draft voter list from website which were uploaded on August 1. They have been replaced with their scanned. Machine-readable version that makes scrutning hader. @ SCROLLING @ECISVEEP. CHIEF ELECTORAL OFFICER BIHAR – @CEOBIHAR – Fact chek – There is no change in the draft electoral roll published since 1 August 2025 changes will be made after disposal of claims and objection by the concerned EROs. The draft electoral roll is available on the voters. eci. gov. in website. @ECISVEEPx.com. Ayush Tiwari – we’re not reporting that the draft electoral roll changed, @CEOBihar, we’re reporting that the format has changed – from Machine-readable. This is not a fact-check. This is a bad-faced denial which is demonstrably false. @ scroll. in.
ये वो सवाल जवाब की चैटिंग है जो एक ऐजेंसी वाले पत्रकार आयुष तिवारी और बिहार के मुख्य चुनाव अधिकारी के बीच हुई है। पहली बार जब आयुष तिवारी ने जांच-पड़ताल के बाद लिखा कि इलेक्शन कमीशन ने एक झटके में उस फार्मेट को ही बदल दिया है जिसमें मशीन पढ करके सारी विसंगतियों को चंद मिनट में सामने रख सकती है जो चुनाव आयोग द्वारा बनाई गई वोटर लिस्ट के भीतर होती है और डिजिटल वोटर लिस्ट की जगह स्कैन की गई वोटर लिस्ट को अपलोड कर दिया गया है। जिससे चुनाव आयोग द्वारा बनाई गई वोटर लिस्ट के भीतर की गई धांधलियां एक झटके में पकड़ में आने से बच जाय। तो इलेक्शन कमीशन ने कहा कि हमने ऐसा नहीं किया है। इलेक्शन कमीशन के जवाब पर काउंटर करते हुए आयुष तिवारी ने लिखा कि उसने जो स्टोरी फाइल की है वह पूरी तरह से सही है। और इस काउंटर के बाद इलेक्शन कमीशन में सन्नाटा पसर गया। उसे समझ ही नहीं आया। उसने सोचा होगा कि जब डिजिटल वोटर लिस्ट गायब कर दी गई है तो उसे तुरंत तो कोई पकड़ ही नहीं पायेगा। मगर पांसा उल्टा पड़ गया।
कुछ दिनों पहले अखबारों में एक खबर छपी थी कि जालंधर में रहने वाली बसंत कौर भारत की सबसे उम्रदराज महिला हैं जिनकी उम्र 124 साल है। इस खबर के बाद एक दूसरी खबर मिली कि मध्यप्रदेश के सिवनी में भी 115 साल की शांति देवी रहती है। इस खबर के बाद लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड को अपना खाता-बही दुरुस्त करना पड़ा क्योंकि उसने चंद दिनों पहले जानकारी दी थी कि आंध्र प्रदेश की कुंजनम भारत की सबसे उम्रदराज महिला थीं जिनकी 112 वर्ष में मृत्यु हो गई है। उम्रदराज महिलाओं का भले ही कोई महत्व ना हो लेकिन वर्तमान में इनका जिक्र करना प्रासंगिक है क्योंकि बिहार चुनाव आयोग द्वारा जो नई वोटर लिस्ट तैयार की जा रही है वह बताती है कि गोपालगंज में एक मनपुरिया देवी रहती हैं जिनकी आयु 119 साल है। इसी तरह भागलपुर की आशा देवी की उम्र 120 वर्ष, सिवान की मिंतो देवी की उम्र 124 साल है। मतलब उम्रदराजी के सारे रिकॉर्ड बिहार में आकर चुनाव आयोग द्वारा बनाई जा रही वोटर लिस्ट तैयार करते वक्त टूट रहे हैं।
चुनाव आयोग का दोगलापन भी बिहार में उजागर होकर सामने आ रहा है। बिहार के डिप्टी सीएम विजय कुमार सिन्हा के नाम पर दो वोटर आईडी कार्ड हैं जो कि अलग अलग जिले और अलग अलग विधानसभा क्षेत्र के हैं। एक वोटर आईडी कार्ड पटना जिले की 182 बांकीपुर विधानसभा क्षेत्र का है तो दूसरा लखीसराय जिले की 168 लखीसराय विधानसभा क्षेत्र का है। वह भी अलग अलग लिपिक नम्बर से दर्ज हैं। एक कार्ड में उम्र 60 साल दर्ज है तो दूसरे पर 57 साल दर्ज है। दोनों वोटर आईडी कार्ड में डिप्टी सीएम और उनके पिता का वही नाम दर्ज है जो कि उनके नाम हैं। ये मामला सामने आने के बाद चुनाव आयोग को सांप सूंघ गया है और वह कोमा में चला गया है जबकि कुछ दिनों पहले बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने बताया था कि उनको दो वोटर कार्ड जारी किए गए हैं तो चुनाव आयोग ने अपना पल्ला झाड़ते हुए कहा था कि हमने वो वोटर कार्ड जारी नहीं किए हैं और दो वोटर कार्ड रखना अपराध है मगर जब उप मुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा के पास दो वोटर कार्ड सामने आये तो वह उसे अपराध कहने का साहस नहीं जुटा पाया उल्टे मुंह में दही जमा बैठा। तेजस्वी यादव भी राहुल गांधी की तरह हाथ में लिस्ट लेकर पत्रकारों के सामने आये और बताया कि बिहार में भी हजार – दो हजार नहीं तीन लाख से ज्यादा वोटरों के मकान का नम्बर शून्य (जीरो) लिखा हुआ है चुनाव आयोग की वोटर लिस्ट में। जिसने भी इस तरह की जानकारी वोटर लिस्ट में दर्ज कराई है या की है, और यह चुनाव आयोग की धाराओं के तहत गंभीर अपराध है। मगर इस पर भी चुनाव आयोग मौन है। यह जानकारी भी सामने आ रही है कि बिहार में भी हजारों स्थानों पर एक कमरे के मकान में अद्भुत समाजवाद (हर आयु वर्ग, हर जाति वर्ग, हर आय वर्ग) का नजारा पेश करते हुए 250 लोग तक रह रहे हैं। मतलब चुनाव आयोग की वोटर लिस्ट में दर्ज है। ये कर्नाटक या बिहार भर की बात नहीं है ये नजारा तो कमोबेश भारत के हर राज्य में नजर आ जायेगी। मध्य प्रदेश के भीतर भी वोटर लिस्ट में तकरीबन 1700 ऐसे पते दर्ज हैं जहां पर एक कमरे के मकान में 50 से ज्यादा लोग रहते हैं। यहां तक कि सरकार और चुनाव आयोग की नाक के नीचे राजधानी भोपाल में ही वोटर लिस्ट में 80 से ज्यादा ऐसे अड्रेस हैं जहां एक कमरे के मकान में 50 से ज्यादा वोटर निवास करते हैं। नेल्लोर सिटी (आंध्र प्रदेश) से एक अजूबे की भी खबर मिल रही है जहां पर वोटर लिस्ट में 01 वर्ष से लेकर 352 वर्ष की उम्र दर्ज है। इसी तरह के आंकड़े महाराष्ट्र और उडीसा से सामने आ रहे हैं। और आगे चल कर देश के हर राज्य से इस तरह की खबर निकल कर आने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
अगर ये गल्ती से हुई गड़बड़ियां हैं तो इन्हें डिजिटली जमाने में चुटकी बजाते दुरुस्त किया जा सकता है। मगर चुनाव आयोग जिस तरह की मशक्कत करते हुए नजर आ रहा है उससे ऐसा नहीं लगता है कि इस तरह की गड़बड़ियां गल्ती से हुई गड़बड़ी है। यह सब कुछ जानबूझकर सत्ता के इशारे पर सत्ता की सत्ता को बरकरार रखने के लिए किया जा रहा है। बिहार में विधानसभा चुनाव के पूर्व जिस तरह से वोटर लिस्ट तैयार की जा रही है और विपक्षी दलों से लेकर विभिन्न संगठनों द्वारा विरोध दर्ज कराया जा रहा है और मामला देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुंच गया और जो तकरीबन 65 लाख से अधिक लोगों ने नाम अलग – अलग तौर पर हटाये गये हैं उसको लेकर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को हलफनामा दर्ज करने को कहा और चुनाव आयोग ने जो हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा जमा किया और उसमें जो लिखा है वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि चुनाव आयोग की नजर में सुप्रीम कोर्ट की कोई औकात नहीं है। चुनाव आयोग का हलफनामा बताता है कि देश में लोकतंत्र नहीं बल्कि राजशाही काम कर रही है। और राजशाही को कायम रखने के लिए भारत का चुनाव आयोग सभी लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचलने के लिए तैयार है।
चुनाव आयोग ने अपने हलफनामे के चौथे और पांचवें पेज में स्पष्ट तौर पर लिखा है कि बिहार में जिन 65 लाख लोगों के नामों को वोटर लिस्ट से हटाया गया है ना तो उनकी सूची को साझा किया जायेगा, ना ही इसका कारण बताया जायेगा और ना ही वह यह सब बताने के लिए बाध्य है। वैसे यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं है और ना ही इस तरह का हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में पहली बार दर्ज किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने जब मोदी सरकार से पेगासस को लेकर जानकारी मांगी थी तब सरकार की तरफ से अटार्नी जनरल ने देश की सुरक्षा की आड़ लेकर साफ – साफ कह दिया था कि हम आपको नहीं बता सकते हैं। इसी तरीके से जब राफेल का मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आया और सुप्रीम कोर्ट ने उच्चतम कीमत पर राफेल खरीदने की विस्तृत जानकारी देने को कहा तो एकबार फिर सरकार ने देश की सुरक्षा की चादर के पीछे खड़े होकर कह दिया कि हम आपको कोई जानकारी नहीं देंगे। और सुप्रीम कोर्ट खामोशी से सरकार के आगे अपनी औकात की तुलना करता रह गया। कुछ इसी तरह का मामला मोदी सरकार द्वारा लिए गए चुनावी चंदे को लेकर था बड़ी ना-नुकुर के बाद बैंक ने जानकारी सुप्रीम कोर्ट को दी और सुप्रीम कोर्ट ने उस चुनावी चंदे को असंवैधानिक बताया मगर असंवैधानिक काम करके काली कमाई करने वालों को ना तो सलाखों के पीछे भेजा गया ना ही उस अवैध पैसों को जप्त किया गया। आज भी उसी अवैध पैसों (ब्लैक मनी) से ठप्पे के साथ ऐश किया जा रहा है।
मगर अब तो सवाल देश के आम नागरिक के अधिकारों का है। और किसी चीज में हो ना हो कम से कम वोटिंग के लिए दिए गए समानता के अधिकार का सवाल है। और आजादी के बाद पहली बार आम आदमी के वोटिंग पर आंच आ गई है और वह भी चुनाव आयोग के जरिए। और तपन भी इतनी जबरदस्त है कि चुनाव आयोग अपने हलफनामे के जरिए देश की सबसे बड़ी अदालत को भी अपने आगोश में लेने के लिए तैयार है। तो क्या एकबार फिर सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग द्वारा दी जा रही चुनौती के आगे घुटने टेक कर अपनी औकात का आंकलन करेगा या फिर स्व संज्ञान लेकर चुनाव आयोग को सीधे तौर पर कहेगा कि आप इस तरह की बातों का जिक्र हलफनामे में नहीं कर सकते आपके द्वारा जिन 65 लाख लोगों के नाम हटाये गये हैं उन नामों की सूची साझा करनी होगी, आपको हटाये गये नामों का कारण बताना होगा, आप कोर्ट और नागरिकों को सब कुछ बताने के लिए बाध्य हैं। और जब तक आप सारी बातें साझा नहीं करते तब तक चल रही प्रक्रिया पर रोक लगाई जाती है। क्योंकि अब मामला लोकतंत्र, संविधान और सुप्रीम कोर्ट की साख से जोड़ दिया है चुनाव आयोग ने हलफनामा दाखिल करके।
देश भी अब सुप्रीम कोर्ट की ओर देख रहा है कि आम आदमी के अधिकारों पर आई आंच को रोकने के लिए चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा करने के लिए स्व संज्ञान लेगा या नहीं ? ऐसा नहीं है कि पहले कभी सुप्रीम कोर्ट ने स्व संज्ञान ना लिया हो। देश में जब पेपर लीक होने की खबर आई थी तब और जब पश्चिम बंगाल के आर जी कर मेडिकल कॉलेज में एक लड़की के साथ हुए बलात्कार की खबर आई थी तब सुप्रीम कोर्ट ने स्व संज्ञान लेते हुए सुनवाई की थी यह बात दीगर है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पीड़ित पक्ष के हक में नहीं आये। इसके बावजूद भी देश में मौजूद सुप्रीम कोर्ट को ही संविधान द्वारा आम आदमी को प्रदत्त अधिकारों की व्याख्या करनी होगी। देश उम्मीद लगाए बैठा है कि सुप्रीम कोर्ट अब ऐसी गलती नहीं करेगा जो उसने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए बनाये गये पैनल को मोदी सरकार ने कानून बनाकर सीजेआई को किनारे कर दिया और सुप्रीम कोर्ट संसद द्वारा बनाये गये कानून की समीक्षा करने के बजाय मूकदर्शक बनकर रह गया।
देश के भीतर तो इस तरह का माहौल बना दिया गया है जहां सत्ता खुद को ही भारत मानने लग गई है। हम ही भारत हैं और कोई भी हमारे खिलाफ सवाल नहीं कर सकता और ऐसा ही संवैधानिक संस्थान भी सोचने लग गये हैं इसमें चुनाव आयोग भी शामिल है। तभी ना चुनाव आयोग अपने ही दस्तावेजों के आधार पर विपक्ष के नेता द्वारा उठाए गए सवालों को सुनने के बजाय हलफनामा दिये जाने की बात कर रहा है। हमसे माफी मांगिए क्योंकि हम ही तो देश हैं। इस तरह का भ्रम एक जमाने में श्रीमती इंदिरा गांधी को भी हो गया था तभी तो कहा गया था कि इंदिरा इज इंडिया – इंडिया इज इंदिरा। और ऐसा ही भ्रम शायद पीएम नरेन्द्र मोदी को हो गया लगता है। इलेक्शन कमीशन ने जिस तरह की प्रक्रिया शुरू की और बीजेपी-मोदी-शाह ने जो मुगालता पाला उसमें 2024 के आम चुनाव के दौरान कई सवालों को खड़ा किया और चुनाव परिणाम ने उसके जवाब भी दिए। पहला सवाल तो यही खड़ा हुआ कि क्या धर्म के आसरे वोट मिलेगा, इसका उत्तर अयोध्या से निकल कर आया। दूसरा सवाल यह निकला कि जिस तरह से नरेन्द्र मोदी खुद को पिछड़े तबके का कहते हैं तो क्या पिछड़ा तबका बीजेपी को वोट करेगा और वह तब जब देश के भीतर पिछड़ी और इसी क्रम की दूसरी जातियों से जुड़े तबके के अधिकारों का जिक्र देश की गवर्नेंस में होता ही नहीं है तो इसका जवाब 240 सीटों ने दिया। तीसरा सबसे बड़ा सवाल संविधान को लेकर था कि क्या मोदी सरकार ने जो 400 पार की रट लगाई है और अगर वह सच हो गया तो वह संविधान को बदल देगी इसका जवाब भी देश की जनता ने दे दिया बीजेपी को 240 सीटों पर समेट कर। सवालों का उठना यहीं पर नहीं रुका। सवाल तो लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनाव में भी हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली से भी उठे। मगर देश का दुर्भाग्य है कि चुनाव आयोग हर सवाल पर गांधी के तीन बंदरों की भूमिका में नजर आया।
बार – बार कटघरे में खड़ा होते ही चुनाव आयोग ने डिजिटल फार्मेट को ही हटा दिया, देश की सबसे बड़ी अदालत को ही कह दिया कि हम आपको कुछ नहीं बतायेंगे। अब ये मामला राजनीतिक नहीं रह गया है अब ये मामला लोकतंत्र, संविधान और एक व्यक्ति-एक वोट के अधिकार की रक्षा की लड़ाई का हो गया है। इसीलिए अब सुप्रीम कोर्ट की भूमिका अहम हो गई है क्योंकि लोकतंत्र, संविधान और आम आदमी के संविधान प्रदत्त अधिकारों की रक्षा करने का उत्तरदायित्व देश की सबसे बड़ी अदालत के ही जिम्मे है। बीजेपी या कहें मोदी-शाह जिस तरीके का देश चाहती है और उसी विचारधारा के लोगों को चुनाव आयोग सहित तमाम संवैधानिक संस्थानों में नियुक्त किया जा रहा है कि उसे जीत की गारंटी मिल जाय क्या इसीलिए बहुमत के साथ ऐसी व्यवस्था करने में चुनाव आयोग लगा हुआ है। अगर विरोध के स्वर देश के भीतर गांव से लेकर राज्य के साथ हर निर्वाचन क्षेत्र से उठने लगे तो यह स्थिति दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के लिए ठीक हो या ना हो लेकिन इतना तो तय है कि लोकतंत्र का तमगा भारत के हाथ से छिन जायेगा।
चलते-चलते
आपरेशन सिंदूर को लेकर संसद में हुई डिबेट में जिस तरह से मोदी सरकार दिगम्बर हुई है और उसके बाद से अचानक सैन्य प्रमुखों द्वारा बयानबाजी की जा रही है कहीं वह राजनीतिक तौर पर मुसीबत में फंसी हुई सरकार को संकट से उबारने का प्रयास तो नहीं है, क्या कहीं सेना का राजनीतिकरण तो नहीं किया जा चुका है और अगर ऐसा है तो यह देश के लिए सबसे बड़े संकट का दुर्भाग्यपूर्ण ऐलान है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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