फिर राजनीति की शिकार हुई हिन्दी
आखिर महाराष्ट्र सरकार ने तीन भाषा नीति रद्द कर ही दी,अब महाराष्ट्र में हिंदी तीसरी भाषा के रूप में नहीं पढ़ाई जायेगी। इसे ठाकरे बंधुओं की जीत भी कहा जा सकता है जिनके कारण फडणवीस सरकार को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। जब राज ठाकरे ने तीन भाषा नीति का विरोध किया तो उनको हिंदी विरोधी साबित करने की भरपूर कोशिश की गई लेकिन बाद में फडणवीस सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा । दरअसल फडणवीस सरकार ने इस मुद्दे पर ठाकरे बंधुओं का विरोध करके ही सबसे बड़ी गलती कर दी और उनको नव संजीवनी भी दे दी। महाराष्ट्र की राजनीति के हिसाब से गलती फडणवीस सरकार की थी कि उन्होंने तीन भाषा नीति बनाई और हिन्दी के माध्यम से राष्ट्रप्रेम दिखाने की कोशिश की लेकिन तब सवाल यह उठा कि यह हिंदी प्रेम सिर्फ महाराष्ट्र में ही क्यों उमड़ा ? अन्य राज्यों में सरकार हिंदी को लेकर इतनी मुखर क्यों नहीं है ? गुजरात और आंध्र प्रदेश में भी बीजेपी सत्ता में है, कश्मीर में सरकार का हिस्सा रह चुकी है, लेकिन वहां हिंदी को तीसरी भाषा बनाने के प्रयास नहीं किए गए। और हिंदी से यदि इतना प्रेम है तो हिंदी को तीसरी भाषा क्यों बनाया जा रहा दूसरी भाषा क्यों नहीं ? अंग्रेजी पूरे देश में दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाई जा रही है उसकी जगह हिन्दी क्यों नहीं पढ़ाई जाती ? और फिर महाराष्ट्र के अलावा बहुत से राज्य हैं जहां उनकी अपनी भाषा है वहां पर हिंदी पूरी तरह उपेक्षित है उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा ? यदि हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं तो पूरे देश में इसको पहली या दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए लेकिन आप तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाकर अपना हिंदी प्रेम दिखाने की कोशिश कर रहे हैं और वो भी सिर्फ महाराष्ट्र में ?
असल में महाराष्ट्र में यह सब राजनीति इसलिए है क्योंकि वहां उत्तर भारतीयों की संख्या बहुत ज्यादा है और अब नगर निकायों के चुनाव भी होने वाले हैं इसीलिए पक्ष और विपक्ष दोनों प्रखर और मुखर हैं जबकि हिंदी का न कोई प्रेमी है न विरोधी है। हिन्दी के माध्यम से फडणवीस खुद को राष्ट्रवादी साबित करने में लगे थे और उनकी नजरें उत्तर भारतीय हिंदी भाषी वोटरों पर थी, तो राज ठाकरे ने इसको मराठी अस्मिता से जोड़ दिया और वे हर मंच से कहते नजर आए कि गुजरात में हिंदी को तीसरी भाषा का दर्जा क्यों नहीं है, आंध्र प्रदेश,तमिलनाडु,बंगाल में क्यों नहीं है सिर्फ महाराष्ट्र में ही क्यों ?
शुरू में बीजेपी ने ठाकरे की मराठी अस्मिता का विरोध करने की भरपूर कोशिश की लेकिन यह दांव उल्टा पड़ा तो सरकार खुद ढीली पड़ गई और तुरंत यूटर्न ले लिया। वैसे भी सरकार की नीति स्पष्ट नहीं थी क्योंकि हिन्दी तीसरी भाषा के रूप में भी अनिवार्य नहीं थी बल्कि वैकल्पिक बनाई जा रही थी। इसका अर्थ यही था कि हिंदी का सिर्फ नाम लिया जा रहा था क्योंकि वैकल्पिक भाषा पढ़ता कौन है देश में ? और उसमें भी शर्त यह थी कि यदि कोई बच्चा हिंदी पढ़ना चाहे तो उनको बीस बच्चे इकट्ठे करने होंगे जो हिंदी पढ़ना चाहें,बीस बच्चे होंगे तभी क्लास में हिंदी पढ़ाई जायेगी,अब कौन सा बच्चा है जो बीस बच्चे इकट्ठे करेगा ? जो बच्चा खुद ही मुश्किल से स्कूल भेजा जाता हो वो अपने जैसे बीस बच्चे कैसे इकट्ठे करेगा ? मतलब सरकार की मंशा ही स्पष्ट नहीं है,यदि सरकार वाकई में हिंदी पढ़ाना चाहती है तो हिंदी को अंग्रेजी की जगह दूसरी भाषा क्यों नहीं बना देती ? और चार पांच साल का बच्चा कितनी भाषाएं सीखेगा ? मराठी और अंग्रेजी सीखने में ही तो बच्चों का काफी समय और ऊर्जा लग जाता है फिर वो हिंदी क्यों सीखेंगे ? और सीखने के लिए अपने जैसे बीस बच्चे कहां से लाएंगे,कभी कभी तो पूरी क्लास में भी बीस बच्चे नहीं होते इसका मतलब है कि अप्रत्यक्ष रूप से सरकार भी सिर्फ मराठी और अंग्रेजी तक ही सीमित रहना चाहती थी लेकिन दिखाने के लिए उन्होंने हिंदी को भी जोड़ दिया राज ठाकरे ने सत्ता पक्ष की इस गलती का भरपूर फायदा उठा लिया। बीजेपी सरकार की समझदारी यह जरूर रही कि उन्होंने यूटर्न लेने में देरी नहीं की और पांच जुलाई की ठाकरे बंधुओं की जन सभा से पहले ही उनकी मांग मान ली। वैसे ठाकरे बंधुओं की इस संयुक्त सभा का महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि देश भर के लोग भी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
फडणवीस सरकार ने इस स्थिति को जल्दी भांप लिया और उनका हिंदी प्रेम तुरंत खत्म हो गया। खैर, अभी जो हुआ वह राजनीतिक मसला है लेकिन भाषा के मुद्दे कभी राजनीतिक होना नहीं चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है,बच्चे को क्या पढ़ना है यह पक्ष और विपक्ष के मुद्दे नहीं होने चाहिए बल्कि सारे देश में एक निर्विवाद और स्पष्ट शिक्षा एवं भाषा नीति होना चाहिए जो देश के हर प्रांत में समान रूप से लागू हो तभी हिंदी भाषा का विकास हो सकेगा वरना हर प्रांत अपनी मनमर्जी करेगा और एक दिन अंग्रेजी इस देश की राष्ट्रीय भाषा बन जाएगी।
आखिर महाराष्ट्र सरकार ने तीन भाषा नीति रद्द कर ही दी,अब महाराष्ट्र में हिंदी तीसरी भाषा के रूप में नहीं पढ़ाई जायेगी। इसे ठाकरे बंधुओं की जीत भी कहा जा सकता है जिनके कारण फडणवीस सरकार को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। जब राज ठाकरे ने तीन भाषा नीति का विरोध किया तो उनको हिंदी विरोधी साबित करने की भरपूर कोशिश की गई लेकिन बाद में फडणवीस सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा । दरअसल फडणवीस सरकार ने इस मुद्दे पर ठाकरे बंधुओं का विरोध करके ही सबसे बड़ी गलती कर दी और उनको नव संजीवनी भी दे दी। महाराष्ट्र की राजनीति के हिसाब से गलती फडणवीस सरकार की थी कि उन्होंने तीन भाषा नीति बनाई और हिन्दी के माध्यम से राष्ट्रप्रेम दिखाने की कोशिश की लेकिन तब सवाल यह उठा कि यह हिंदी प्रेम सिर्फ महाराष्ट्र में ही क्यों उमड़ा ? अन्य राज्यों में सरकार हिंदी को लेकर इतनी मुखर क्यों नहीं है ? गुजरात और आंध्र प्रदेश में भी बीजेपी सत्ता में है, कश्मीर में सरकार का हिस्सा रह चुकी है, लेकिन वहां हिंदी को तीसरी भाषा बनाने के प्रयास नहीं किए गए। और हिंदी से यदि इतना प्रेम है तो हिंदी को तीसरी भाषा क्यों बनाया जा रहा दूसरी भाषा क्यों नहीं ? अंग्रेजी पूरे देश में दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाई जा रही है उसकी जगह हिन्दी क्यों नहीं पढ़ाई जाती ? और फिर महाराष्ट्र के अलावा बहुत से राज्य हैं जहां उनकी अपनी भाषा है वहां पर हिंदी पूरी तरह उपेक्षित है उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा ? यदि हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं तो पूरे देश में इसको पहली या दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए लेकिन आप तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाकर अपना हिंदी प्रेम दिखाने की कोशिश कर रहे हैं और वो भी सिर्फ महाराष्ट्र में ?
असल में महाराष्ट्र में यह सब राजनीति इसलिए है क्योंकि वहां उत्तर भारतीयों की संख्या बहुत ज्यादा है और अब नगर निकायों के चुनाव भी होने वाले हैं इसीलिए पक्ष और विपक्ष दोनों प्रखर और मुखर हैं जबकि हिंदी का न कोई प्रेमी है न विरोधी है। हिन्दी के माध्यम से फडणवीस खुद को राष्ट्रवादी साबित करने में लगे थे और उनकी नजरें उत्तर भारतीय हिंदी भाषी वोटरों पर थी, तो राज ठाकरे ने इसको मराठी अस्मिता से जोड़ दिया और वे हर मंच से कहते नजर आए कि गुजरात में हिंदी को तीसरी भाषा का दर्जा क्यों नहीं है, आंध्र प्रदेश,तमिलनाडु,बंगाल में क्यों नहीं है सिर्फ महाराष्ट्र में ही क्यों ?
शुरू में बीजेपी ने ठाकरे की मराठी अस्मिता का विरोध करने की भरपूर कोशिश की लेकिन यह दांव उल्टा पड़ा तो सरकार खुद ढीली पड़ गई और तुरंत यूटर्न ले लिया। वैसे भी सरकार की नीति स्पष्ट नहीं थी क्योंकि हिन्दी तीसरी भाषा के रूप में भी अनिवार्य नहीं थी बल्कि वैकल्पिक बनाई जा रही थी। इसका अर्थ यही था कि हिंदी का सिर्फ नाम लिया जा रहा था क्योंकि वैकल्पिक भाषा पढ़ता कौन है देश में ? और उसमें भी शर्त यह थी कि यदि कोई बच्चा हिंदी पढ़ना चाहे तो उनको बीस बच्चे इकट्ठे करने होंगे जो हिंदी पढ़ना चाहें,बीस बच्चे होंगे तभी क्लास में हिंदी पढ़ाई जायेगी,अब कौन सा बच्चा है जो बीस बच्चे इकट्ठे करेगा ? जो बच्चा खुद ही मुश्किल से स्कूल भेजा जाता हो वो अपने जैसे बीस बच्चे कैसे इकट्ठे करेगा ? मतलब सरकार की मंशा ही स्पष्ट नहीं है,यदि सरकार वाकई में हिंदी पढ़ाना चाहती है तो हिंदी को अंग्रेजी की जगह दूसरी भाषा क्यों नहीं बना देती ? और चार पांच साल का बच्चा कितनी भाषाएं सीखेगा ? मराठी और अंग्रेजी सीखने में ही तो बच्चों का काफी समय और ऊर्जा लग जाता है फिर वो हिंदी क्यों सीखेंगे ? और सीखने के लिए अपने जैसे बीस बच्चे कहां से लाएंगे,कभी कभी तो पूरी क्लास में भी बीस बच्चे नहीं होते इसका मतलब है कि अप्रत्यक्ष रूप से सरकार भी सिर्फ मराठी और अंग्रेजी तक ही सीमित रहना चाहती थी लेकिन दिखाने के लिए उन्होंने हिंदी को भी जोड़ दिया राज ठाकरे ने सत्ता पक्ष की इस गलती का भरपूर फायदा उठा लिया। बीजेपी सरकार की समझदारी यह जरूर रही कि उन्होंने यूटर्न लेने में देरी नहीं की और पांच जुलाई की ठाकरे बंधुओं की जन सभा से पहले ही उनकी मांग मान ली। वैसे ठाकरे बंधुओं की इस संयुक्त सभा का महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि देश भर के लोग भी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
फडणवीस सरकार ने इस स्थिति को जल्दी भांप लिया और उनका हिंदी प्रेम तुरंत खत्म हो गया। खैर, अभी जो हुआ वह राजनीतिक मसला है लेकिन भाषा के मुद्दे कभी राजनीतिक होना नहीं चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है,बच्चे को क्या पढ़ना है यह पक्ष और विपक्ष के मुद्दे नहीं होने चाहिए बल्कि सारे देश में एक निर्विवाद और स्पष्ट शिक्षा एवं भाषा नीति होना चाहिए जो देश के हर प्रांत में समान रूप से लागू हो तभी हिंदी भाषा का विकास हो सकेगा वरना हर प्रांत अपनी मनमर्जी करेगा और एक दिन अंग्रेजी इस देश की राष्ट्रीय भाषा बन जाएगी। (विनायक फीचर्स)
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