सदैव असंतुष्ट … विपक्ष
मानव जाति की सबसे बड़ी उपलब्धियों में एक “असंतोष” ही है। यदि आदमी संतुष्ट होता, तो आज भी जानवरों के चमड़े से खुद को ढककर पेड़ों पर लटक रहा होता। असंतुष्टि विकास का मुख्य टॉनिक होती है। इस महान गुण को ‘विपक्ष’ कहा जाता है। वही विपक्ष जो चुनाव हारते ही संतुष्टि छोड़ देता है और संसद की दीवारों से लेकर ट्विटर की गलियों तक असंतोष के पताके फहरा देता है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि परमाणु संरचना में जो इलेक्ट्रॉन अपने कक्ष में असंतुष्ट होता है, वही सबसे ज्यादा रिएक्ट करता है। ठीक उसी तरह, देश की राजनीति में जो विपक्ष में होता है, वही सबसे अधिक प्रतिक्रियाशील होता है। जो सत्ता में होता है, वह तो ‘नॉन-रिएक्टिव गैस’ की तरह होता है , स्थिर, मौन, और कभी-कभी तो शुद्ध ऑक्सीजन की तरह दुर्लभ भी।
असंतोष एक कला है, और विपक्ष उसका मुख्य कलाकार होता है। महंगाई हो तो सरकार को कोसे, और अगर सरकार सब्सिडी दे तो ‘वित्तीय दिवालियापन’ का रोना रोए। जैसे ही सब्जी महंगी होती है, विपक्ष को गरीब और मजदूर याद आते हैं। वही गरीब, जिनके नाम पर उसने खुद भी दशकों तक सत्ता का चम्मच चाटा था। और जैसे ही सब्जी सस्ती होती है, विपक्ष किसान के खेत में घुसकर भावुक हो जाता है “क्या होगा अन्नदाता का?” सड़कें टूटी हों तो ये सरकार की अकर्मण्यता है और अगर सरकार उन्हें चौड़ा करने लगे, तो हर काटे गये पेड़ का नाम, पता और आधार नंबर लेकर, फोटो सहित श्रद्धांजलि देने का अभियान चलाया जाता है। जैसे ही एक अवैध निर्माण हटाया जाता है, वैसे ही ‘गरीबी हटाओ’ का नारा वापस आ जाता है, पर इस बार ‘गरीब को हटने से बचाओ’ के रूप में महिमा मंडन किया जाता है।
विपक्ष का काम ही है ‘हर हाल में विरोध’। जैसे कोई गृहिणी जो चाहे कितनी भी डिश बना ले, लेकिन पति को अचार की कमी जरूर महसूस होगी। सरकार चाहे बुलेट ट्रेन चला दे या मेट्रो में वाईफाई दे दे, विपक्ष को याद आएगा “अरे! जनरल बोगी में खड़े यात्रियों का क्या?” वो जनरल बोगी जिसे सत्ता में रहते हुए खुद कभी देखने की जहमत उसने ही नहीं उठाई थी।
विदेश की ट्रेनें देखी जाएं तो भारत की रेलवे धिक्कारने लायक हो जाती है और जैसे ही भारतीय रेलवे चमचमाती ट्रेन निकाल दे, तो विपक्ष को याद आता है कि इसमें गरीबों के लिए सीट क्यों नहीं?
विपक्ष को सीट नहीं, मुद्दा चाहिए और वह विकास दे रहा है, मुफ्त में, चिल्ला-चिल्लाकर विपक्ष लपकने को तैयार होता ही है।
विपक्ष की नजर में जब सरकार काम न करे तो वो निकम्मी, और जब काम करे तो तानाशाह! जैसे ही कोई नीति बनाई जाती है, विपक्ष उस पर “असंवैधानिक” की मोहर लगाता है। और जब वही नीति उसका अपना घोषणा-पत्र निकाल कर चिल्लाती है कि “मैं तो तेरी ही हूँ”, तब विपक्ष को याद आता है “वक़्त बदल गया है।”
असंतोष की परिभाषा विपक्ष के पास इतने रूपों में है कि रामलीला में रावण के दस सिर भी शर्मिंदा हो जाएं। महंगाई हो तो मारक, गिर जाए तो व्यापार चौपट। टैक्स बढ़े तो जनता पर अत्याचार, टैक्स घटे तो राजस्व हानि की चिंता। चीन सीमा पर गोली चले तो सरकार असफल, और गोली न चले तो सरकार डरपोक।
विपक्ष का असंतोष एक चिरंजीवी तत्व है, जो हर काल में जीवित रहता है। यह किसी पर निर्भर नहीं होता । न नीति पर, न नीयत पर। यह एक स्वतंत्र सत्ता है, जिसकी राजधानी मीडिया स्टूडियो में है, और संविधान “कथनों” का है। इसमें न तथ्य की जरूरत है, न तार्किकता की। बस भावना चाहिए । उत्तेजना, विरोध, और भरपूर बयान! बजट आते ही उसका पुरजोर विरोध करना विपक्ष को खूब आता है।
जैसे हर वाट्सएप ग्रुप में एक ऐसा सदस्य होता है जिसे हर तस्वीर में गलती दिखती है “अरे भाई, पीछे पंखा तो बंद है!” वैसे ही लोकतंत्र में विपक्ष होता है, जिसे हर निर्णय में साजिश दिखती है और जब साजिश न मिले, तो खुद ही साजिश की संभावना बना लेता है।
असल में विपक्ष एक दर्पण है , जब कोई सफल योजना सामने आती है, विपक्ष उसमें विफलता खोजने लगता है। जैसे डॉक्टर की सलाह के बाद भी मरीज मर्ज़ और इलाज गूगल पर भी ढूंढता ही है। विपक्ष भी हर सरकारी नीति का इलाज खुद ही खोजता है चाहे उसे होम्योपैथी से जोड़ दे या जड़ी-बूटी से।
राजनीति में विपक्ष का होना जरूरी है, यह लोकतंत्र की सेहत के लिए वही है जो कड़वा काढ़ा बीमारी के लिए होता है । गले से उतरता नहीं, पर काम का होता है।
विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत उसका हमेशा असंतुष्ट रहना है। उसे न सरकार से प्रेम होता है, न नफरत , उसे तो बस टिप्पणी करनी होती है। उसे चाहिए हर तस्वीर में धब्बा, हर लाइन में गलती, हर उपाय में साजिश। और जब कुछ न मिले, तो विपक्ष को खुद से शिकायत हो जाती है “हम तो विरोध करने धरने पर बैठे थे, सरकार ने कुछ किया ही नहीं!”
इस ‘असंतोष रूपी विपक्ष’ की जय हो , जिसकी वजह से लोकतंत्र हर दिन चटपटा बना रहता है। अखबार में सुर्खी बनी रहती है। न्यूज चैनल की टी आर पी बरकरार रहती है। देश का क्या है वो तो आचार संहिता में भी चलता रहता है, बिना पक्ष , बिना विपक्ष भी!
विवेक रंजन श्रीवास्तव-विनायक फीचर्स
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