खरी-अखरी: डरपोक सदैव जल्दी में होता है सेफ बने रहने के लिए…
आखिर चुनाव आयोग के कमिश्नरों की नियुक्ति वाले पैनल में चीफ जस्टिस आफ इंडिया के शामिल होने से प्रधानमंत्री नरेन्द्र इतने भयभीत क्यों हैं ? सीबीआई चीफ की चयन समिति में भी तो सीजेआई होते हैं। क्या कभी सीजेआई ने सरकार द्वारा सुझाये गए नाम पर आपत्ति की – शायद आज तक नहीं। तो फिर चुनाव आयोग के कमिश्नरों की नियुक्ति के लिए बनाई गई चयन समिति में चीफ जस्टिस आफ इंडिया के शामिल होने से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आखिर इतने भयभीत क्यों रहे कि आनन-फानन में सीजेआई को हटा दिया। अगर पीएम मोदी लोकतांत्रिक तरीके से पारदर्शिता और ईमानदारी के चुनाव कराने के लिए प्रतिबद्ध हैं तो उन्हें विश्व गुरु के गुरु के देश से सीख लेकर भारत में भी आयुक्तों की चयन प्रक्रिया उसी तरह से कर देते। अमेरिका में संवैधानिक और सार्वजनिक महत्व की संस्थाओं पर होने वाली नियुक्ति पर बाकायदा संसद में सबके सामने इंटरव्यू होता है।*
मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार का भी कवर पेज में फोटो छपने का समय आ गया है। संभवतः जल्द ही “THE CARAVAN” के मुख पृष्ठ पर छपे दिखेंगे जैसे सीजेआई डीवाई चंद्रचूड छपे हुए नजर आये थे विस्तृत रिपोर्ट के साथ। राजीव कुमार ने सीईसी की कुर्सी पर बैठ कर खुद को मीर और गालिब साबित करने की कोशिश की मगर वे उसी तरह असफल रहे जैसे चौबे जी चले थे छब्बे जी बनने लेकिन वे दुबे जी भी न बन पाये और अपनी नाक कटा बैठे। मसलन अपने दौर पूछे गये सैकडों सवालों में से एक भी सवाल का सटीक और संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए। और वे मोदी सरकार के पेंडुलम का तमगा लिए हुए घर चले गए। भारत के इतिहास में एक भी मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार जैसा नहीं जिसने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के लोकतंत्र और चुनाव आयोग की नककटाई की हो। राजीव कुमार ने तीन ऊंगलियों को अपनी ओर करते हुए ठीक ही कहा था “पकड़ भी लोगे तो क्या हासिल होगा सिवाय धोखे के” ।
जून 1949 में संविधान सभा में स्वतंत्र चुनाव आयोग के गठन पर बात करते हुए डाक्टर अम्बेडकर ने भारत के लोकतंत्र और चुनाव आयोग के काम में कार्यपालिका की दखल के बारे में चेताया था। कार्यपालिका की दखलंदाजी से आजाद एक स्वतंत्र चुनाव का मूलभूत पहलू है उसके आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया। 02 मार्च 2023 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान बैंच ने फैसला दिया कि इन सभी की नियुक्ति एक ऐसी समिति द्वारा की जानी चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और भारत के चीफ जस्टिस शामिल हों। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में करोड़ों मतदाताओं की बेचैनी देखी जा सकती थी जो भारत की चुनावी प्रक्रिया की अखंडता को लेकर चिंतित हैं। पब्लिक सर्वेक्षणों में भी पाया गया है कि भारत की चुनावी प्रक्रियाओं और संरचनाओं में मतदाता का विश्वास कम होता जा रहा है। अफसोस सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कुछ समय बाद ही अगस्त 2023 में भारत सरकार ने एक विधेयक की अधिसूचना जारी की जिससे सुप्रीम कोर्ट के आदेश और उसकी भावना को किनारे कर दिया गया। सरकार ने नियुक्ति के लिए बनाई जाने वाली समिति का पुनर्गठन किया और चीफ जस्टिस को हटाकर एक केन्द्रीय मंत्री को शामिल कर लिया। यह सुप्रीम कोर्ट के आदेश और भावना का घोर उल्लंघन है। इस सरकारी आदेश को एक पीआईएल द्वारा चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वे इस मामले पर 19 फरवरी 25 को सुनवाई करना चाहते हैं। यह सुनवाई 48 घंटे से कम समय में होने वाली है। इसलिए कांग्रेस पार्टी का मानना है कि अगले मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई तक टाला जाय और यह मीटिंग बाद में रखी जाय। जिस समय इस समिति की संरचना और अगले मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की प्रक्रिया के साथ आगे बढ़ना इस देश के संस्थानों और निर्माताओं के प्रति अपमानजनक और अभद्र होगा। _
यह उस मजमून का हिन्दी रूपांतरण है जिस डिसेंट नोट को राहुल गांधी ने बतौर नेता प्रतिपक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त और एक चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर साउथ ब्लॉक में हुई बैठक में बाकी दो सदस्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को दिया है। वैसे तो राहुल गांधी ने इसके संकेत लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान दे दिए थे कुछ ही दिनों में मैं (चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की) मीटिंग में जाने वाला हूं। उसमें होंगे नरेन्द्र मोदी, अमित शाह और मैं। मतलब दो के सामने एक। मैं जा ही क्यों रहा हूं। जाने का मतलब क्या है। मैं सिर्फ उस पर मुहर लगाने जा रहा हूं जो मोदी और शाह कहने वाले हैं। अगर सीजेआई होते तो इस पर बहस हो सकती थी। सीजेआई और नेता प्रतिपक्ष कह सकते थे कि नहीं हम इससे सहमत नहीं हैं तो एक ऐसी सोची समझी रणनीति दिखाई देती है। जब एकल चुनाव आयुक्त हुआ करता था तब राष्ट्रपति के द्वारा प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद की सलाह पर चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की जाती थी। उस दौर में ही चुनाव आयुक्त की स्वतंत्रता और स्वायत्तता को देशवासियों के सामने जीवंत रखने वाले जे एम लिंडो और टी एन शेषन मिले थे।
2014 में जब मोदी सरकार ने दिल्ली की सत्ता पर कब्जा किया और जिस सिस्टम को बनाया उसमें सरकार के सामने चुनाव आयोग और उसके खेवनहार अर्दली बनकर रह गये । मोदी सरकार ने जब रातोंरात अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त बनाया तो उसकी नियुक्ति को लेकर एडीआर ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर चुनौती दी थी तब सुनवाई के दौरान जस्टिस ने सवाल किया था कि ये सरकार इन संस्थाओं को अपने नियंत्रण में रखना चाहती है या इन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने की छूट देना चाहती है। याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण ने कोर्ट में कहा था कि सरकार को इतनी जल्दी क्यों थी। तब कोर्ट ने सरकार से 24 घंटे के भीतर जवाब दाखिल करने को कहा था। सुनवाई करते हुए जस्टिस अनिरुद्ध घोष ने टिप्पणी की थी कि चयन को लेकर कोई नियम नहीं है लेकिन हम देखना चाहते हैं कि क्या आपकी प्रक्रिया से ऐसे व्यक्ति का चयन हो सकता है जो स्वतंत्र हो। हमें ऐसे चुनाव आयुक्त चाहिए जो यस मैन ना बने, घुटने पर रेंगे नहीं बल्कि जरूरत पड़ तो प्रधानमंत्री पर भी कार्रवाई करे।
2015 – 2022 के बीच सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग द्वारा की जा रही धांधलियों को लेकर बहुत सारी याचिकाए दाखिल की गई जिसमें से कुछ में कहा गया कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में केन्द्र सरकार के पास जो विशेषाधिकार हैं वे नहीं होने चाहिए। 2023 में कोर्ट ने कहा था कि संविधान निर्माता कभी नहीं चाहते थे कि कार्यपालिका को नियुक्ति करने के विशेषाधिकार मिले। कोर्ट को इस बात की चिंता थी अगर नियुक्ति की प्रक्रिया पूरी तरह से सिर्फ कार्यपालिका याने सरकार पर छोड़ दी जायेगी तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहुत नुकसान होगा। इसी के मद्देनजर कोर्ट ने 2 मार्च 2023 को आदेश दिया था कि जब तक संसद इस संबंध में कानून नहीं बनाती है तब तक प्रधानमंत्री, लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की समिति चुनाव आयुक्तों का चयन करेगी। मगर मोदी सरकार ने सीजेआई को हटाकर नया कानून पीठासीन के जरिए उस समय पास करा डाला जब सदन में विपक्ष के एक सैकड़ा से ज्यादा सांसद निलंबित थे।
गौतम भाटिया ने अपनी पुस्तक “THE INDIAN CONSTITUTION A CONVERSATION में लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए संविधान सभा के व्यक्तव्यों को भी देखा। उस दौरान सबकी राय थी कि चुनाव आयोग को स्वतंत्र होना चाहिए लेकिन नियुक्ति कैसे की जाय इस पर एकमत राय नहीं थी। नियुक्ति का काम संसद पर छोड़ दिया गया। संविधान सभा ने जब आर्टिकल 324 का ड्राफ़्ट तैयार किया तो उसमें यह उम्मीद शामिल की गई कि संसद ऐसा कानून बनायेगी जिससे चुनाव आयोग कार्यपालिका यानी सरकार से स्वतंत्र रहे । मोदी सरकार के बनाये कानून को दी गई चुनौती की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही है। जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने 12 फरवरी 2025 के आर्डर में लिखा है कि “DIRECTION THE MATTER NOT BE DELETED FROM THE LIST” ।
राजीव कुमार पर चुनाव के दौरान जितने भी धांधली के आरोप लगाये गये उसकी गवाही वे आरोप ही देते हुए दिखाई देते हैं। मसलन किस तरह गैर भाजपा प्रत्याशियों के नामांकन पर्चे खारिज किये गए, किस तरीके से मतदाता सूची में नाम काटे और जोड़े गए, किस तरह से ईवीएम ने मतगणना में वोटों को उगला। सब कुछ आईने की तरह साफ है। नमूने के तौर पर महाराष्ट्र की विधानसभा वाली मतदाता सूची में 5 साल में 40 लाख नये मतदाताओं के नाम जुड़ते हैं और चुनाव के 5 महीने पहले 40 लाख और नये मतदाताओं के नाम जोड़ दिये जाते हैं। ठीक इसकी पुनरावृति दिल्ली विधानसभा चुनाव में होती है। दिल्ली में 4 साल में 4 लाख नये मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में जुड़ते हैं और चुनाव के 7 महीने पहले 4 लाख और नये मतदाताओं के नाम जोड़ दिये जाते हैं। गजब का संयोजन हैं 40 लाख, 4 लाख पहले और बाद में। न एक कम न एक ज्यादा।
अंगूठा छाप भी जानता है कि इलेक्ट्रॉनिक मशीन में जितने वोट डालेंगे उतने ही निकलेंगे न एक ज्यादा न एक कम। मगर राजीव कुमार की इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) ने डाले गए वोटों से या तो ज्यादा वोट उगले या कम। चुनाव आयोग के ही आंकड़े चुगली करते हुए राजीव कुमार को आईना दिखाते हैं कि 362 सीटों पर डाले गये वोट से 5 लाख 50 हज़ार वोट कम गिने गये इसी तरह 176 सीटों पर 35093 वोट ज्यादा गिने गए। मगर राजीव कुमार ने इन फर्जीवाड़ों पर अंतिम समय तक अपने होठों को सिले रखा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने राहुल गांधी की असहमति को दरकिनार कर ज्ञानेश कुमार को मुख्य चुनाव आयुक्त और विवेक जोशी को चुनाव आयुक्त की कुर्सी पर बैठा दिया है। भले ही मोदी – शाह बहुमत के बल पर ज्ञानेश कुमार को सीईसी चुन लिया है मगर सारी तिकडमों पर राहुल गांधी का डिसेंट नोट भारी पड़ गया है। अब देखना होगा कि ज्ञानेश कुमार राजीव कुमार की रीढ़ विहीन विरासत को आगे बढ़ाते हैं या फिर अपने जमीर को जिंदा रखकर अपना रास्ता अलग बनाते हैं। सवाल है कि क्या सीईसी ज्ञानेश कुमार आयोग के पास राजीव कुमार के कार्यकाल की जितनी भी शिकायतें रद्दी की टोकनी और फाईलों में कैद हैं उनका साहसिक जवाब देंगे ? ज्ञानेश कुमार की विश्वसनीयता का पहला इम्तिहान भी इसी के भीतर समाया हुआ है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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