राजनीतिक नायकों ने राजनीति के परिदृश्य से गायब कर रखा है असल खलनायकों को
दिल्ली चुनाव में नायक बनाम खलनायक का खेल
खरी-खरी
मौजूदा दौर में भारत के अंदर लोकतंत्र का मतलब चुनाव और चुनाव का मतलब लोकतंत्र बन गया है और चुनाव के जरिए लोग अपने नुमाइंदे को चुनकर देश और राज्य की सबसे बड़ी पंचायत में भेजते हैं। जहां कानून बनाये जाते हैं। जिससे लोकतंत्र के जिंदा होने का अह्सास होता है। चुनाव जीतने के लिए एक राजनीतिक चेहरे की जरूरत होती है जिसे नायक या खलनायक बताने की कोशिश लगातार होती रहती है। दिल्ली के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल को छोड़कर किसी दूसरी पार्टी के पास कोई राजनीतिक चेहरा नहीं है। इसीलिए जहां आप पार्टी उसे नायक की तरह पेश कर रही है वहीं दूसरी पार्टियां उसे खलनायक करार देने में लगी हुई हैं।
आम आदमी पार्टी का सफर आन्दोलन के दौरान महात्मा गाँधी और भगतसिंह की तस्वीर को मंच पर चस्पा करके एक क्रांतिकारी बदलाव लाने का आह्वान करते हुए शुरू हुआ था जो वोट की तर्ज पर देखे जाने वाले बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की तस्वीर के आसरे बढ़ते हुए 2025 के चुनाव में सनातनी सेवा समिति तक आ गया है। आम आदमी पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल सत्ता में आने से पहले आन्दोलन के दौरान जिस भाषा का इस्तेमाल करते थे 2025 में वह भाषा पूरी तरह से बदल चुकी है। अब वो कह रहे हैं कि “जो भी करता है ऊपर वाला करता है, ये तो मैं दिल से मानता हूँ, ऊपर वाला ही ये तय करता है कि किस काम के लिए उसने किसे चुना है, हम तो केवल निमित्त मात्र हैं। मतलब साफ है कि चौथे चुनाव में केजरीवाल ऊपर वाले के भरोसे हो चुके हैं और इसे चुनावी हार पर पर्दा डालने के तौर पर देखा जाने लगा है।
2013 का दिल्ली विधानसभा चुनाव हो या फिर 2014 का लोकसभा चुनाव हो जिसने अरविंद केजरीवाल और नरेन्द्र मोदी को सीएम – पीएम की कुर्सी तक पहुंचाया उसकी जड़ में भृष्टाचार, ब्लैक मनी और जनलोकपाल ही था। देशवासियों के जहन में भी यही था कि इनके सत्ता में आने से भृष्टाचार खत्म हो जायेगा, देश की ब्लैक मनी खत्म होने के साथ ही विदेशी बैंकों में जमा काला धन वापस आ जायेगा, जनलोकपाल की नियुक्ति हो जायेगी तो वह सब कुछ ठीक कर देगा। मगर सत्ता में आने के बाद न तो ब्लैक मनी खत्म हुई, विदेशी बैंकों में जमा काला धन वापस आना तो दूर बैंकों की माने तो ब्लैक मनी में इजाफा हो गया है। लोकपाल किस बिल में छुपा है किसी को खबर नहीं है।
2014 में मोदी सत्ता ने जिक्र तो डवलपमेंट का किया था मगर 2024 आते-आते वह अयोध्या में राम मंदिर और देश की सांस्कृतिक जड़ों को टटोलने में लग गई। 2013 में अरविंद केजरीवाल के चेहरे के पीछे आन्दोलन था तो 2014 में नरेन्द्र मोदी के चेहरे के पीछे गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए दंगों का जिक्र था और आरएसएस मोदी के पीछे खड़ी थी । तब सत्ता में कांग्रेस थी। उस समय के सीएजी विनोद राय (7 जनवरी 2008 – 22 मार्च 2013) ने एक रिपोर्ट दी थी कि टू जी स्पेक्ट्रम और कोयला गेट मामले में देश को 1 लाख 70 हजार करोड़ तथा 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपये के राजस्व का घाटा हुआ है। जिससे कांग्रेस को सत्ता खोनी पड़ी थी। उसी विनोद राय ने रिटायर्मेंट के बाद सार्वजनिक रूप से कहा कि जो भी कहा गया था पूरी तरह गलत था। नौकरशाही के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति अपनी कुर्सी और कलम के जरिए जिन झूठे मुद्दों को भी उछाल देता है उसे बिना देर किए चतुर – चालाक राजनीतिक पार्टियां लपक लेती हैं। अगर राजनीतिक दल ही उस कुर्सी को खाद पानी देने लग जाए तो मतलब बहुत साफ है कि जब कुर्सियों पर बैठे चेहरे राजनीतिक चेहरे हो नहीं सकते और लोकतंत्र राजनीतिक चेहरों के भरोसे जीता मरता है शायद इसीलिए विनोद राय की रिपोर्ट (झूठी रिपोर्ट) ने अन्ना आन्दोलन को जन्म दिया और बीजेपी को सत्ता तक पहुंचा दिया।
तब की ब्यूरोक्रेसी (विनोद राय) ने जिस तरह राजनीति (बीजेपी) के लिए पर्दे के पीछे रहकर कार्पेट बिछाई उससे मौजूदा वक्त की राजनीति (बीजेपी) ने समझ लिया कि न्यायालय, ब्यूरोक्रेसी, मीडिया तमाम जगह पर ऐसे लोगों को नियुक्त करो जो बिना बताये कार्पेट बिछाते रहें। यही कारण है कि विनोद राय के बाद किसी भी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (शशिकांत शर्मा 2013 – 2017 राजीव महर्षि 2017 – 2020, गिरीश चन्द्र मुर्मू 2020 – 2024) ने न तो कैबिनेट मिनिस्टर्स और न ही मंत्रालयों के कामकाज की आडिट रिपोर्ट विनोद राय की तर्ज पर देने की कोशिश नहीं की है। एक नाम संजय बारू का भी लिया जा सकता है जो एक समय पीएम मनमोहन सिंह के मीडिया एडवाइजर थे। उन्होंने मनमोहन सिंह पर एक किताब लिखी “एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर”। सवाल यह है कि संजय बारू को तो उस समय इस्तीफा दे देना चाहिए था जब उन्हें लगा हो कि मनमोहन सिंह सही व्यक्ति नहीं है या सही काम नहीं कर रहे हैं या मीडिया से उनके ताल्लुकात ठीक नहीं हैं। इन्हीं चेहरों में एक चेहरा है संजय कुमार मिश्रा का। जिनका तीन बार ईडी के मुखिया के तौर कार्यकाल बढ़ाया गया और एक्सटेंशन के कार्यकाल में उन्होंने कितने राजनीतिज्ञों और उनके करीबियों, बिजनेसमैंनों, बड़े कार्पोरेट से जुड़े लोगों पर छापे मारे। यह अलग बात है कि सजा एक हाथ की उंगलियों को भी नहीं हुई। इसी तरह सीबीआई के भीतर डायरेक्टर और स्पेशल डायरेक्टर ए के वर्मा एवं धीरेन्द्र अस्थाना के बीच हुए भृष्टाचारी वाक्य युध्द को याद किया जा सकता है जिसमें डोभाल की भी मौजूदगी थी लेकिन कुछ भी नहीं हुआ क्योंकि पीएमओ की नजरें अस्थाना के लिए इनायत थीं। चीफ इलेक्शन कमिश्नर राजीव कुमार के बिना तो सब अधूरा ही रह जायेगा। देश के तमाम राजनीतिक दलों को वोटिंग सिस्टम को लेकर आपत्ति है लेकिन राजीव कुमार लोकतंत्र को धत्ता बताते हुए शायराना अंदाज में शायरियों के जरिए सत्तानुकूल जबाव देते हैं।
सुप्रीम कोर्ट जिसकी अपनी साख ही नहीं वह न्याय का आखिरी दरवाजा भी है और कोई इस बात की कल्पना नहीं करता था कि सीजेआई और दूसरे जस्टिस के फैसले सत्तानुकूल होंगे मगर ऐसा भी हुआ चाहे वह सीजेआई रहते रंजन गोगोई का राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का फैसला हो या अन्य दूसरे फैसले हों। गोगोई के ऊपर तो सैक्स स्कैंडल का मामला भी चला था तो क्या सत्ता रंजन गोगोई को बार्गेनिंग की ताकत के जरिए फैसले करवा रही थी! सीजेआई रहते डीवाई चंद्रचूड के द्वारा दिये गये फैसले तो इस तर्ज पर सत्तानुकूल रहे हैं कि जहां से कोई भी रास्ता न्याय के लिए निकले ही नहीं। इसमें सीजेआई डीवाई चंद्रचूड द्वारा दिए गए उस फैसले को देखा जा सकता है जो उन्होंने जनता द्वारा चुनी गई दिल्ली विधानसभा की ताकत मुख्यमंत्री के पास रहनी चाहिए या फिर केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किए गए ब्यूरोक्रेट एलजी के पास। चंद्रचूड ने माना था कि दिल्ली सरकार की ताकत जनता द्वारा चुने गए विधायकों के नेता सीएम के पास होनी चाहिए न कि एलजी के पास। मगर फैसला लिखते हुए एक ऐसी लाइन लिख दी जो पूरा फैसला सत्तानुकूल हो गया। वह लकीर थी “अगर संसद चाहे तो वो जिसे चाहे उसे (एलजी) ताकत दे सकती है और मोदी सरकार ने सारी ताकत एलजी को सौंप दी कि पूरी सत्ता उसी के ईशारे पर चलेगी और यह कहने की जरूरत नहीं है कि एलजी किसके ईशारे पर चलेंगे।
यहां सवाल उठाना लाजिमी है कि जब बिजली पानी देने का काम म्युनिसिपलटी दे सकती है तो फिर दिल्ली विधानसभा के चुनाव का मतलब ही क्या है जहां जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के हाथ में कुछ भी अधिकार नहीं है। सवाल यह भी है कि क्या नख दंत विहीन सरकार का चुनाव इतना बड़ा है कि उसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक कूद पड़े अपने तमाम कैबिनेट मंत्रियों को लेकर। भारत के भीतर सांस्कृतिक जड़ों, राजनीतिक परिस्थितियों में धर्म या भाषा के आधार पर कभी भी विभाजन नहीं दिखा लेकिन आज वही परिस्थितियां सामने आकर खड़ी हो गई हैं। देश के भीतर अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग के हकों पर इस तर्ज पर सवाल उठाए जाने लगे हैं जो शायद अंग्रेजों के दौर में भी नहीं उठाए गए होंगे। राजनीति में जिस तरह की गिरावट नरेन्द्र मोदी के दौर में शुरू हुई है उसी का दुष्परिणाम है कि विधूड़ी सरीका शख्स नेहरू गांधी खानदान की बेटी की छबि से खिलवाड़ करने से नहीं चूकता।
जिस राजनीति के जरिए देश के भीतर जड़ों पर तेजाब डालने की कोशिश की जा रही है उससे तो यही लगता है कि उनका इरादा यही है कि देश में ऐसे ही लोग रह जायें और देश की असल सुंदरता मसलन धर्मनिरपेक्षता का भाव, सभी भाषाओं का सम्मान, सभी को साथ लेकर चलने की परम्परा खारिज हो जाय । जिसकी एक झलक तो संसद के भीतर ही देश के होम मिनिस्टर ने पेश कर दी है बाबा साहेब अम्बेडकर पर कमेंट करके। 2025 के चुनाव में केजरीवाल भी बीजेपी के रास्ते चल पड़े हैं और धर्म तथा साम्प्रदायिकता के बीच आकर खड़े हो गए हैं जो कल तक महात्मा गांधी और भगतसिंह का जिक्र कर रहे थे। दिल्ली के चुनाव में बीजेपी अरविंद केजरीवाल से लड़ तो रही है परंतु सच यह है कि कांग्रेस ऊपर न आने पाए इसलिए केजरीवाल बीजेपी की जरूरत बन गए हैं क्योंकि जहां जहां पर आप पार्टी की मौजूदगी होगी वहां वहां पर कांग्रेस संकट में होगी। बीजेपी को पता है कि अगर केजरीवाल परिदृश्य से बाहर हो गए तो कांग्रेस एक झटके में बड़ी ताकत के रूप में उभर आयेगी। असल में देश की राजनीति के जो सबसे बड़े खलनायक हैं उनसे हर किसी ने आंखें मूंद ली है तो फिर कहा जा सकता है कि वही कतार मौजूदा वक्त में लोकतंत्र की नई परिभाषा गढ़ने तथा उसी को कानून बनाने में जुट गई है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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