वोट बैंक को नये सिरे से एकजुट करने की कवायद मे संघ प्रमुख
हिन्दुत्व को नये तरीके से पारिभाषित करने की कवायद करते आरएसएस चीफ मोहन भागवत
खरी-खरी
गुजरात से आ रही खबरों पर विश्वास किया जाय तो भविष्य को देखते हुए भूपेंद्र भाई पटेल, सी आर पाटिल जैसे नेता संघ के पाले में शिप्ट होने लगे हैं। भागवत द्वारा नितिन गडकरी और प्रवीण तोगड़िया से भी कई दौर की बातचीत की गई है। भविष्य का रास्ता तलाशने में सबसे बड़ी रुकावट खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही हैं जो राजनीतिक समझौता करने को तैयार नहीं हो रहे हैं। अगर संघ को राजनीतिक समझौता करना है तो वह पीएम की कुर्सी के इर्द-गिर्द की चौहद्दी को छोड़कर होगा। संगठन के नये अध्यक्ष को लेकर भी संघ को दिल्ली से सहमति बनानी होगी। जिसका मनोनयन दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद होने की संभावना है। इन सारी परिस्थितियों के मद्देनजर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भविष्य को ध्यान में रखकर राजनैतिक चौसर बिछानी शुरू कर दी है और इस चौसर में जो खुद को प्यादा और वजीर मान रहा है वो ये समझ लें कि सत्ता पर आंच नहीं आनी चाहिए। वोट बैंक को बढाने के लिए महात्मा गांधी की चरण रज को माथे पर लगाने की जरूरत होगी तो वह भी लगाई जायेगी और सावरकर के खिलाफ़ बोलने वाले पर मुकदमा भी ठोंका जायेगा। नाथूराम गोडसे को भी याद किया जायेगा और गुरु गोलवरकर की राजनीति को भी समझा जायेगा और देवरस जैसे पालिटीशियन जिनने सरसंघचालक रहते हुए जयप्रकाश नारायण तक को अपने पाले में खड़ा कर लिया था वैसा ही साधने के लिए कुछ राजनीतिक प्रयोग दूसरे राजनीतिक दलों में सेंध लगा कर अपने पाले में लाने की कोशिश की जाएगी। इसके लिए दिल्ली से लेकर बंगाल और यूपी से लेकर महाराष्ट्र तक जो भी छत्रप जहन में आये वही निशाने और निगाह में होना चाहिए। क्योंकि देशभर में की गई मुलाकातों से आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को ये इनपुट तो मिल ही चुके हैं कि बीजेपी की सत्ता नहीं जानी चाहिए और पीएम मोदी अगर नहीं रहे तो फिर बीजेपी की सत्ता पर आंच आ जायेगी और बिना सत्ता संघ को भी कैसे स्वीकार कर किया जायेगा क्योंकि इस सत्ता का भविष्य फिलहाल बरसों-बरस तक सुरक्षित नजर आ रहा है। कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में अब आरएसएस प्रमुख कोई बयान नहीं देंगे। मोदी की राजनीति और मोदी – शाह की जोड़ी से असंतोष गुट भी कोई बयानबाजी नहीं करेगा। हां हिन्दूवादी संगठनों का संघ पर हमला जरूर तीखा होता चला जायेगा।
क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का राजनीतिक भविष्य खात्मे की ओर है ? क्या मोदी की अपनी राजनीतिक पारी में थक हार चुके हैं ? क्या आरएसएस यह महसूस करने लगा है कि मोदी के आसरे मिलने वाली जीत की लकीर को आगे बढ़ाया गया तो भविष्य में कुछ नहीं बचेगा ? क्या अब संघ को ऐसा लगने लगा है कि हिन्दुत्व के नाम पर मिलने वाले वोटों की आयु पूरी हो चुकी है ? शायद इसीलिए संघ के सामने चुनावी जीत और अपने भविष्य का सवाल खड़ हो गया है। तो क्या इसी कारण आरएसएस और मोदी की राजनीति के बीच टकराहट हो रही है। शायद ऐसा नहीं है। भारत की राजनीति में चाहे वह जनसंंघ रही हो या बीजेपी हो किसी में भी आरएसएस से ज्यादा राजनीति करने की ताकत न तो रही है न है। संघ के लिए चाहे जनसंघ रहा हो या बीजेपी सिर्फ एक मोहरा है। अक्टूबर 1951 में भारतीय जनसंघ को स्थापित करने के बाद संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवालकर ‘गुरुजी’ ने कहा था कि जनसंघ गज्जर की पुंगी है, जब तक बजेगी बजायेंगे और जब नहीं बजेगी तो खा जायेंगे।
देखा जाए तो आरएसएस अपने पाॅलिटिकल विंग से तब – तब टकराता है जब – जब उसके पाॅलिटिकल विंग के सामने संकट आता है क्योंकि उस संकट के आसरे भविष्य पर निगाहें आरएसएस की होती है। शायद इसीलिए जिस हिन्दुत्व की उंगली पकड़कर बीजेपी ने राजनीतिक राह पकड़ी थी उस पर बड़ा ब्रेक अयोध्या की चुनावी हार से लगा, यूपी जिसे पाॅलिटिकल प्रयोगशाला के तौर पर चलाया जा रहा है वहां पर बीजेपी की हार ने संघ को संदेश दे दिया कि जिस योगी आदित्यनाथ के पीछे वह खुद खड़ है और योगी दिल्ली से टकरा रहे हैं तो कमजोर कोई भी हो सत्ता हाथ से निकल जायेगी। जिससे यह संदेश तो निकलता है कि सरसंघचालक मोहन भागवत हों या स्वयंसेवक, पीएम नरेन्द्र मोदी हों या बीजेपी के एमपी एमएलए या कार्यकर्ता सबको हिन्दुत्व चाहिए वह भी सत्ता के साथ चाहिए। और सत्ता दिला पाने की ताकत ना आरएसएस के किसी चेहरे में है ना ही आरएसएस द्वारा खड़े किए गए किसी चेहरे में हो सकती है, खासतौर पर तब जब वह हिन्दुत्व को लेकर सनातन और देश के अलग – अलग हिस्सों में मंदिरों की खोज के भरोसे होने लगी है। अगर आरएसएस के राजनीतिक पन्नों को पलटायें (सत्ता में बने रहने के लिए सत्ता का विरोध करना क्यों जरूरी होता है और विपक्ष की भूमिका क्यों गायब होनी चाहिए) तो पता चलता है कि 1974 में तत्कालीन सरसंघचालक देवरस ने जयप्रकाश नारायण को समझाया था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ किस तरह से और कैसे राजनैतिक लड़ाई लड़नी चाहिए। संघ के सारे स्वयंसेवकों ने पूरी तन्मयता के साथ लगकर जेपी के आन्दोलन को सफल बनाना था। आरएसएस ने तिकड़ी (गोविंदाचार्य, दंत्तोपंत ठेंगड़ी, मदनदास देवी) के जरिए 2001-2002 में स्वदेशी का नारा लगाते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की आर्थिक नीतियों का विरोध किया था और उस वक़्त के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को कुर्सी छोड़ना पड़ी थी। आरएसएस का कहना था कि आर्थिक सुधार विदेशी पूंजी के जरिए नहीं होना चाहिए। लेकिन 2014 के बाद देश में विदेशी पूंजी के सहारे आर्थिक सुधार करने की कवायद की गई परंतु आरएसएस ने चुप्पी साध ली। तो क्या 10 साल के भीतर नरेन्द्र मोदी के दौर में आरएसएस की विचारधारा बदल गई जो अटल बिहारी वाजपेयी ने दौर में थी।
लगता है वर्तमान में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की जो राजनीति है उसके दायरे में बीजेपी का अगला अध्यक्ष कौन हो, हिन्दुत्व की कौन सी लकीर खींची जाय और आने वाले समय में कौन सा चेहरा सरकार को सम्हालेगा। वर्तमान में तीन ही चेहरे नजर आते हैं – मोहन भागवत (सरसंघचालक), नरेन्द्र मोदी (प्रधानमंत्री) और योगी आदित्यनाथ (उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री)। मोहन भागवत हिन्दुत्व के उस मर्म को सामने रखना चाहते हैं जिसमें मौजूदा वक्त में जो हिन्दू शब्द के नाम पर इस देश में सियासत हो रही है, उसे एक नये मोड़ पर खड़ा करने की जरूरत है। आज भले ही नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के सामने कोई चुनौती ना हो लेकिन यह भविष्य में उम्मीद, आस और सत्ता बचाये रखने का रास्ता है। 19 दिसम्बर को पुणे में आयोजित सहजीवन व्याख्यान माला में सिरकत करते हुए मोहन भागवत कहते हैं कि “हर दिन एक नया मामला उठाया जा रहा है इसकी अनुमति कैसे दी जा सकती है। हाल ही में मंदिरों का पता लगाने के लिए मस्जिदों के सर्वे की मांग अदालतों तक पहुंची है। हम आदिकाल से एक दूसरे के साथ सद्भाव से रहते आए हैं अगर दुनिया को ऐसे रहना है तो भारत को भी अपने अंदर सद्भाव रखना होगा और हिन्दुओं को अपने धार्मिक स्थलों से बहुत लगाव है लेकिन अगर हम उन भावनाओं के कारण प्रतिदिन एक नया मुद्दा सामने लाते हैं तो क्या होगा। ऐसे तो नहीं चलेगा। 22 दिसम्बर को अमरावती में वे कहते हैं कि “धर्म महत्वपूर्ण है और उसकी सही शिक्षा दी जानी चाहिए। धर्म का अनुचित और अधूरा ज्ञान अधर्म की ओर ले जाता है” । दिसम्बर में ही उन्होंने कहा कि “अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के बाद कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि वे ऐसे मुद्दे उठाकर हिन्दुओं के नेता बन जायेंगे” । 16 दिसम्बर को कहा गया कि “व्यक्ति को अहंकार से दूर रहना चाहिए नहीं तो वो गढ्ढे में गिर सकता है”। इस बयान को पीएम नरेन्द्र मोदी को दी गई नसीहत के रूप में देखा गया तथा बीजेपी के भीतर के असंतोष को अपने साथ खड़ा करने की कवायद माना गया। मोहन भागवत के बयान पर कथावाचक रामभद्राचार्य का कहना है कि “मैं तो यही मानता हूँ कि जो हमारी एतिहासिक वस्तुएं हैं वो हमें मिलनी ही चाहिए। साम, दाम, दंड, भेद चाहे जैसे। ये मोहन भागवत का व्यक्तिगत बयान हो सकता है, ये सबका बयान नहीं है। वो किसी एक संगठन के प्रमुख हो सकते हैं, हिन्दू धर्म के प्रमुख नहीं हैं। वो हिन्दू धर्म की व्यवस्था के ठेकेदार नहीं हैं। हिन्दू धर्म की व्यवस्था हिन्दू धर्म के आचार्यों के हाथ में है उनके हाथ में नहीं। देखने में ऐसा लगता है कि मोहन भागवत (आरएसएस) नरेन्द्र मोदी का विरोध कर रहे हैं और रामभद्राचार्य मोहन भागवत (आरएसएस) का विरोध कर रहे हैं। मगर ऐसा कतई नहीं है। यह केवल विपक्ष द्वारा उठाए जाने वाले देश और जनता से जुड़े मुद्दों से ध्यान भटकाने और देश के 14 फीसदी मुस्लिम तबके के खिलाफ हिन्दुओं को एकजुट करने की परिस्थितियों को पैदा करने की नूरा कुश्ती से ज्यादा कुछ नहीं है।
गृहमंत्री अमित शाह ने जिस तरह से राज्य सभा में संविधान की 75 वर्षीय यात्रा में हुए डिबेट का उत्तर देते हुए संविधान निर्माता डॉ भीमराव अम्बेडकर को अपमानित किया और उसको लेकर देशभर में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं उसकी तपन भी नागपुर हेडक्वार्टर को झुलसाने लगी है। फिलहाल बात दिल्ली और बिहार की, जहां 2025 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। कहा जा रहा है कि शाह ने जहां दिल्ली में केजरीवाल को आक्सीजन दे दी है वहीं बिहार में नितीश कुमार के सामने जहरीली गैस का चैम्बर खड़ा कर दिया है। बिहार में 19.65 फीसदी दलित, 1.68 फीसदी आदिवासी, 27.12 फीसदी ओबीसी, 36.01 फीसदी अतिपिछड़ा वोटर है। नितीश बाबू की सियासत की संजीवनी दलित और अतिपिछड़ा वर्ग है (JDU’S GOLDEN COMBINATION) । और अमित शाह ने नितीश बाबू के गोल्डन कांबिनेशन पर हथौड़ा चला दिया है, जिससे वे असहज हो चले हैं। नितीश कुमार इस बात को लेकर भी असमंजस में हैं कि अम्बेडकर की नीतियों पर चलने वाली उनकी पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा और केन्द्र में मंत्री ललन सिंह पार्टी से नमक हरामी करते हुए बीजेपी की नमक हलाली करते हुए दिखाई दे रहे हैं, अमित शाह के बयान का बचाव करते हुए। जेडीयू के खांटी नेताओं का मानना है कि यदि अमित शाह माफी मांग लें तो मामला रफा-दफा हो सकता है। इतना ही नहीं मुश्किल में तो चिराग पासवान और जीतनराम मांझी की राजनीति भी आ गई है। सवाल है कि क्या नितीश कुमार, चिराग पासवान और जीतनराम मांझी की इतनी हैसियत है कि वे अमित शाह पर माफी मांगने के लिए दबाव डाल सकें। यही हाल खुद को अम्बेडकरवादी कहने वाले दारासिंह चौहान, ओमप्रकाश राजभर, अनुप्रिया पटैल, संजय निषाद का भी है जो ओंठ सिले बैठे हैं। क्या इनका डीएनए बदल गया है (भगवाकरण)? अम्बेडकर को अपना आईकान मानने वालों में शामिल प्रकाश अम्बेडकर, मायावती, चंद्रशेखर आजाद ने अपनी राजनीतिक जमीन बचाये रखने के लिए अमित शाह के बयान की निंदा करने का साहस किया है। बिहार और नितीश कुमार की राजनीति पर बारीक नजर रखने वालों का मानना है कि अम्बेडकर बिहार के दलित वोटर के लिए आईकान है। नितीश दलित वोट बैंक का जोखिम नहीं उठा सकते। राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ियों में शामिल पलटूराम सही समय पर पलटेंगे जरूर। चौथे खम्बे का मानना है कि यदि इंडिया गठबंधन 24 घंटे के लिए ही सही प्रधानमंत्री तो छोडिए उप प्रधानमंत्री का आफर दे दे तो बाबू को पलटने में दो सेकंड भी नहीं लगेंगे। भारत में गांधी और नेहरू को सुबह शाम गाली देना फैशन सा बन गया है लेकिन अम्बेडकर के बारे में उल्टा-सीधा बोलने की हैसियत किसी में नहीं है। मगर अमित शाह ने जो दुस्साहस किया है उसका खामियाजा बिहार चुनाव में बीजेपी को उठाना पड़ सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार सावरकर की विचारधारा वालों को माफी मांगने में कोई लाज शर्म तो होती नहीं मगर ना जाने क्यों वो गांधी – नेहरू की तरह अड़े हुए हैं।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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