पितरों की आत्मा की तृप्ति के लिए पितरों को समर्पित -अंत्येष्टि नृत्य
पृथ्वी लोक में बस रहे हर एक प्राणी की सांस जैसे ही रुक जाती है उसे मृत घोषित कर दिया जाता है। प्रश्न उठा कि ऐसी कौन सी शक्ति है जिसके कारण साँस चलती है, इसी प्रश्न ने आत्मा के सिद्धांत को जन्म दिया I आत्मा को शरीर से अलग करने के रूप में मृत्यु को देखना सार्वभौमिक है और यह अवधारणा सभी मुख्यधारा के धर्मों मे मान्य है। भारत के आध्यात्मिक पुराण श्रीमद् भगवद्गीता मैं भगवान् श्री कृष्ण कहते है
न जायते म्रियते वा कदाचि. न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे
अर्थात यह आत्मा न कभी जन्मता है, न कभी मरता है ,आत्मा अजन्मा नित्य शाश्वत और पुरातन है I शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता I यदि आत्मा अमर है तो जाती कहाँ है ?
भारत ही नहीं विश्व मैं जितनी भी सभ्यताए हुई है , उनका मान्यता है कि मृत्यु के बाद आत्मा कुछ समय के लिए कहीं चली जाती है I मृत्यूपरान्त जीवात्मा का अस्तित्व मानने वाले लोग मृत लोक , स्वर्ग एवं नरक , आवागमन एवं पुनर्जन्म , मोक्ष की अवधारणा में विश्वास रखते हैं I
अंत्येष्टि के विचित्र नियम ….
हर धर्म में व्यक्ति का अंतिम संस्कार किया जाता है। हिन्दू धर्म में सामान्यजनों के पार्थिव शरीर को दाह संस्कार एवं साधु को समाधि का नियम है I पुराने चीनी राजवंश में मृतकों के शरीर को ताबूतों में रखकर किसी उंचे पहाड़ के चोटी से लटका देते थे। पारसी समुदाय के लोग मृत शरीर अपने धर्म स्थल के उचाई वाले खुले स्थान पर रख देते हैं। ब्राजील के कुछ भागों में लोग अपने परिजनों के मृत शरीर के मांस को खा जाते हैं।
डर से प्रेरित नहीं सम्मान प्रकट करने के लिए श्राद्ध की अवधारणा
आदिम समाज का मानना था कि दिवंगत आत्मा के वापस लौटने से परिवार के अन्य सदस्यों या समुदाय के लिए परेशानी और अशांति की संभावना थी। ऐसा होने से रोकने के लिएए आदिम समाजों ने विभिन्न संस्कारों एवं विस्तृत कर्मकाण्डो का निर्माण किया I सभी मृतक अनुष्ठान मृतक की भूत आत्मा के डर से प्रेरित थे। परन्तु भारत मे पितर की आत्मा की तृप्ति के लिए , उनके प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए , उनके तर्पण के निमित्त श्राद्ध किया जाता है। गरुड़ पुराण मै मृत्यु के बाद के रीति और नियम के बारे विस्तार से वर्णन है I हिंदू धर्म में श्राद्ध , पितृपक्ष का विशेष महत्व होता है। जो परिजन अपना देह त्यागकर चले गए हैं , उन्हें पितर कहा जाता है। पितृपक्ष पितरों को समर्पित होता है। शास्त्रों अनुसार श्राद्ध पक्ष भाद्रपक्ष की पूर्णिणा से आरम्भ होकर आश्विन मास की अमावस्या तक 15 दिन चलते हैं। शास्त्रों के अनुसार यदि किसी को अपने पितरों के देहावसान की तिथि मालूम नहीं है तो ऐसी स्थिति में आश्विन अमावस्या को तर्पण किया जा सकता है।
अंत्येष्टि नृत्यों का विकास ..
नृत्य का जीवन के हर पहलू सेए हर भाव से सीधे संबद्ध है। शायद यही वजह है कि अंत्येष्टि के लिए विस्तृत नृत्यों का विकास किया I अंत्येष्टि नृत्यों का उद्देश्य था , दिवंगत आत्मा को परिवार या समाज को परेशान करने के लिए लौटने से रोकना , साथ ही एक सुरक्षित यात्रा सुनिश्चित करना। मेरा मानना है कि दुःख की अभिव्यक्ति के लिए भी इन नृत्यों का विकास हुआ
- गढ़वाल. धुरंग नृत्य…धुरंग या धुरिंग नृत्य गढ़वाल क्षेत्र का एक लोक नृत्य है I डोम और भोटिया जनजातियों के लोग मृत्यु के एक वर्ष के भीतर किये जाने वाले मृत्यु से संबंधित कार्यकर्मो मे यह नृत्य करते है । धुरंग नर्तक तलवारें पकड़ते हैं और एक सर्कल में मृत लोगों की आत्माओं को मुक्त करने के लिए है यह नृत्य करते है उनका विश्वास है कि लोगों की आत्माएं बकरियों या अन्य जानवरों में बसती हैं। उन्हें मुक्त करने को बलि भी दी जाती है
- गढ़वाल मौत का नृत्य पंसारा…गढ़वाल की पहाड़ियों में उत्तरकाशी जिले में खासकर रवाईं यमुनाघाटी मे बुजुर्ग व्यक्ति के निधन पर लगभग 2000 साल पुराना मौत का नृत्य पंसारा या पेंसारा अंतिम संस्कार परंपरा के रूप में किया जाता है I शव यात्रा को मोक्षघाट तक गाजे बाजों व पारंपरिक ढोल नगाड़ों रणसिंघो के साथ नृत्य करते हुए ले जाया जाता है I शवयात्रा के दौरान , पुरोहित एक और अनोखी रस्म करते हैं ,शव के सिर पर पगड़ी और हाथों में भगवद गीता को रखा जाता है और आंखों पर चश्मा चढ़ा दिया जाता है ताकि मृत व्यक्ति अंतिम यात्रा पर धार्मिक पाठ पढ़ सके।
- मध्यप्रदेश. लीहगी नृत्य…मध्यप्रदेश दमोह जिले मे रहने वाले बंजारा समुदाय के लोग मृत्यु के तेरह दिन बाद तेहरवी का आयोजन करते है , जिसमे लीहगी नृत्य के साथ भोज एवं गाने का आयोजन भी किया जाता है परन्तु इसमें सिर्फ पुरुष ही हिस्सा लेते है
- मिजोरम. च्वंग्लाइज़न नृत्य…च्वंग्लाइज़नरू –पावी समुदाय का लोक नृत्य है। पावी समुदाय – मिजो समुदाय का हिस्सा है I यह नृत्य एक पति द्वारा अपनी पत्नी की मृत्यु पर शोक व्यक्त करने के लिए किया जाता है I पति तब तक नृत्य करता है जब तक वो थक नहीं जाता .फिर उसके सम्बंदि यह नृत्य उसको सांत्वना देने के लिए करते है .और भरोसा दिलाते है की वो सब उसके साथ हैI
- संथाल समाज में कराम नृत्य..संथाल समाज में कराम नाम का एक शोक नृत्य है इसे किसी की मृत्यु के पश्चात मात्र स्त्रियों के द्वारा किया जाता है। संताल परिवार मृत व्यक्ति के नाम कराम पूजा भी करता है कराम पुजा मे किये जाने के कारण इसे कराम नृत्य के रूप में जाना जाता है
- तमिलनाडु का संस्कार नृत्य….भारत में नीलगिरि पहाड़ियों तमिलनाडु पर रहने वाले टोडा जनजाति भी मृत्यु के अंतिम संस्कार पर नृत्य करती है I वे अंतिम संस्कार के लिए एक शानदार पालकी बनाते है , कई अनुष्ठानों में शव दहन से पहले भैंस की बलि दी जाती है एवं उसके सींग मृतक के हाथो मे दिए जाते है Iएक बार जब अनुष्ठान पूरा हो जाता है तो शरीर का अंतिम संस्कार कर दिया जाता है I शव दहन स्थल के चारो तरफ एक गोले के भीतर धीमे चरणों में नृत्य करते हैं। केवल मर्द नाचते हैं। नृत्य में एक लंबे डंडे का उपयोग किया जाता है। वे एक सर्कल बनाते हैं कुछ समय बाद पुरुषों में से एक, लंबा पोल लेता है और वे एक समान तरीके से नृत्य करते हैं
- कर्नाटक अंगकली नृत्य…कोड़वा जाती मे जब घर का मुखिया मर जाता है तो केम्बाती जाती को अंगकली नृत्य करने को बुलाया जाता है I एक जलते दीपक को चावल से भरे टोकरी के केंद्र में रखा जाता है घर के सदस्य नृतक को एक सफ़ेद रंग का कपडा देते है जिसे वो कमर पर बाँध लेता है कलाकार 3 बार मृतकों के पैर छूते हैं और प्रदर्शन करते हैं I नृतक को चावल, नमक , तेल , साल भर दिया जाता है यदि मृतक एक स्त्री है तो साड़ी दी जाती है I
- मेघालय का होको डांस…कोचे नॉर्थ ईस्ट इंडिया के मेघालय प्रान्त की जनजाति है। जब उनके राजा या सम्मानित व्यक्ति की उनके गाँव में मृत्यु हो जाती है तो वे अनुष्ठान नृत्य होको का प्रदर्शन करते । होको नृत्य दिवंगत आत्मा के लिए गार्ड ऑफ ऑनर का प्रतीक है और साथ ही यह विधवाओं बच्चों मृत व्यक्ति के परिजनों को एक नया जीवन जीने और सभी संघर्षों को दूर करने के लिए एक प्रेरणा है। इसका आयोजन आदिश्राद समारोह मे व्यक्ति के निधन के 13 वें दिन किया जाता है I
- चोमागकन .असम और अरुणाचल …कार्बी जनजाति -असम और अरुणाचल प्रदेश में कार्बी आंगलोंग पहाड़ी में रहती है। कार्बी जनजातियों के मृत्यु समारोह पर किया जाने वाला नृत्य चोमागकन है।
- त्रिपुरा लुशाई जनजातिय नृत्य…लुशाई उत्तरी त्रिपुरा जिले के कुकी.चिन समूह के तहत एक और जनजाति जिनकी संख्या लगभग 5000 है। लुशाई मृतकों के लिए नृत्य करते है। वे लगभग 5 फीट गहरे शव का चेहरा पश्चिम दिशा की ओर और पैर उत्तर की ओर रख कर मृतकों को दफनाते हैं । वे शव के साथ हथियारों ,जानवरों की खोपड़ी को भी दफनाते हैं। वे मिट्टी से बने मुखौटे पहनते हैं और नृत्य करते हैं।
ऑस्ट्रेलिया ए अफ्रीका देशों में प्रचलित अंतिम संस्कार नृत्य
बर्मा, अफ्रीका, कोरिया, युगांडा ,उत्तरी नाइजीरिया, मेक्सिको, न्यू गिनी में आत्माओं को वापस भेजने के लिए नृत्य शामिल हैं I दक्षिण अमेरिका के लोग सत्रह प्रकार के विभिन्न मौत से संबंधित नृत्य करते है I अफ्रीका में केंगा ट्राइब के लोग दोडी नृत्य या मुटू नृत्य (शोक नृत्य) शव को दफनाने के दिन करते हैं। मृतक की पसंद के कपडे पहन कर एक नृत्य किया जाता है जिसे योरूबा नृत्य कहते हैं। मौत का सामना करने के लिए मुखौटा नृत्य करते हैं। मेक्सिको में कंकाल की वेशभूषा पहने ऑल सोल्स डे मनाते है I न्यू गिनी के द्वीपों मैं सगरी नृत्य पुण्यतिथि पर किए गए धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा है। एक मादा तांत्रिक द्वारा नृत्य करना मृतक आत्मा को शुद्ध करने के लिए कोरियाई समारोहों का एक महत्वपूर्ण तत्व है I ऑस्ट्रेलिया के आदिवासी लोग मृत व्यक्ति के कबीले कुलदेवता को जगाने के लिए गाते और नाचते हैं Iऑस्ट्रेलिया के अरंटास आदिवासी समाज का प्रत्येक सदस्य शव यात्रा मे एक ढाल और भाला फेंकने वाला व्यक्ति होता है। वो मृतक के घर जाते है ,शव के चारो तरफ घूम घूम कर भाले हवा मे लहराते है कुछ समय के लिए चिता के ऊपर नाचते है I
आधुनिक समय के साथ हमारे अन्य रीतिरिवाजों की तरह यह नृत्य भी शव यात्रा पर निकल पड़े है तथा अपनी अंत्येष्टि का इंतजार कर रहे है I समय के साथ यह पुनर्जन्म लेते है या भूत बन जायेगे यह कोई नहीं कह सकता परन्तु यह नृत्य हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है I
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