खरी – अखरी : दस साल बाद संसद में मजबूत विपक्ष की एंट्री
18वीं लोकसभा परिणाम पर इस तरह से भी त्वरित प्रतिक्रिया दी जा सकती है। नरेन्द्र मोदी के 400 पार अतिआत्मविश्वासी नारे के हस्श्र ने 20 साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के शाइनिंग इंडिया के नतीजे की यादें ताजा कर दी। ढाई सैकड़ा से भी कम सीटों पर भाजपा को सिमटा देने के लिए भाजपाईयों द्वारा 400 पार के बाद संविधान बदलने का दिया गया स्टेटमेंट भाजपा को भारी पड़ा। देश के मतदाताओं ने किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत ना देकर बता दिया है कि फरेब, झूठ, मक्कारी, जुमलेबाजी, पाखंड के लिए कोई जगह नहीं है। पार्टी विस्तार और सत्ता हवस पूरी करने के लिए दूसरे दलों के भृष्टतम नेताओं की एंट्री के साथ ही पितृपुरुष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से परहेज, स्वयंसेवकों की बेरुखी तथा नरेन्द्र मोदी के अधिनायकवादी चेहरे ने भाजपा को अबकी बार नैया पार के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान लगातार “म” और “मैं” का उपयोग, ऊपर से स्तरहीन भाषा भाजपा को दूर करती गई मतदाताओं से। मोदी के रास्ते कांटे बिछाने में मंहगाई, बेरोजगारी, नारी शोषण, किसानों पर किये गये अत्याचार ने भरपूर योगदान दिया। रही सही कसर पूरी कर दी इलेक्टोरल बांड्स की आंख – मिचौली और उससे बाहर निकले स्टालर्स एवं दवा कंपनियों से लिए गए चंदे ने मोदी के ताबूत में आखिरी कील ठोंक कर । केंचुआ पर लगाये गये आक्षेप – ईवीएम में वोटों की गई लाख हेराफेरी, सत्तापक्ष के आगे घुटना टेकू आचरण के बावजूद देश के लिए सुखद पहलू यह है कि मोदी – शाह द्वारा पिछले दस सालों से विपक्ष विहीन का देखा जा रहा सपना ना केवल चकनाचूर हुआ बल्कि इस बार मजबूत विपक्ष सामने आया है जो स्वस्थ लोकतंत्र की पहली जरूरत है। इमर्जेंसी को कोसने वाले की अनडिक्लेयर्ड इमर्जेंसी का करारा जवाब दिया है जनता ने। जनता ने यह भी संदेश दे दिया है कि उसे किसी की भी तानाशाही मंजूर नहीं है चाहे वह अतीत में इंदिरा गांधी रही हो या वर्तमान में नरेन्द्र मोदी हो। जनता ने इन दोनों शासकों के दौरान करीब से देखा है कि जब संसद खामोश हो जाती है तो सड़कें आवारा हो जाती है।
जीत कर भी नैतिक रूप से चुनाव हार गये मोदी
अपने कद के मुताबिक ना खुद मोदी जीते ना ही भाजपा को दिला पाये जीत। एनडीए के जो घटक जीते वे अपने दम पर जीते। केंचुआ भी अपना दामन काला कराने के बाद भी भाजपा को उसके दम पर कुर्सी दिलाने में नाकाम रहा। यदि भाजपा सरकार बनाती है तो उसका गिरेबां पलटूरामों के हाथ में होगा और सरकार पूरे पांच साल यदि चल पाई तो हिचकोले खाती हुई ब्लेकमेलिंग की पटरी पर ही रेंगेगी।
18वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम से इतना तो तय हो गया है कि कोई भी दल अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। चुनाव परिणाम बताते हैं कि नरेन्द्र मोदी के छद्म मैजिक की हवा निकल गई है। कह सकते हैं कि नरेन्द्र मोदी और उसकी भाजपा का जनाजा खुद नरेन्द्र मोदी की करतूतों ने निकाला है। सिलसिलेवार नजर दौड़ाई जाय तो मोदी के ग्राफ गिरने की शुरुआत तो उसी दिन हो गई थी जिस दिन नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस के घोषणा पत्र में मुस्लिम लीग की छाप बताई थी। इतने पर ही मोदी की जुबान रुक गई होती तो भी कुछ भला होता मगर मोदी तो मीट, मछली, भैंस, मंगलसूत्र से होते हुए मुजरा तक का दरबारी राग अलापते चले गए, जिसे हिन्दू मतदाताओं तक ने खारिज कर दिया। जिसका सबसे बड़ा सबूत अयोध्या में भाजपा की करारी हार है, खुद मोदी का बनारस में चंद वोटों से जीत कर इज्ज़त का दही बनाना रहा।
भारी पड़ा अयोध्या में किया गया धार्मिक आस्था से खिलवाड़
कहा जा सकता है कि यदि केंचुआ और उसके सिपहसलार चुनाव अधिकारियों ने निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ काम किया होता और चुनाव लड़ने के इच्छुक लोगों को परचा भरने से बलात नहीं रोका गया होता तो नतीजा इसके उलट भी हो सकता था। भाजपा का अपने दम पर बहुमत तक नहीं पहुंचने के पीछे इसे भी एक कारण माना जा सकता है – अयोध्या के राम मंदिर में सुप्रीम कोर्ट से केस जीते विराजमान रामलला मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करने के बजाय अन्य राम मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा वह भी धर्म विरुद्ध अमुहूर्त और अधूरे मंदिर में, साथ ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को फोटो फेम से बाहर रखना। नतीजा सामने है अयोध्या में भाजपा की करारी हार।
मंहगा पड़ा संघ को दरकिनार करता नड्डा उवाच
देखा गया कि भाजपा मोदी के 400 पार वाले जुमलाई नारे पर सवार होकर सातवें आसमान पर उड़ रही थी और सातवें आसमान से भाजपा अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा को अपना ही पितृ पुरुष अदना, नाकारा, निकम्मा दिखाई दिया तो उसने स्टेटमेंट ही दे डाला कि अब भाजपा को आरएसएस की कोई जरूरत नहीं है। जिसने संघ के खांटी स्वयंसेवकों के आत्मसम्मान को झकझोर कर रख सकते में डालने का काम किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पूरे चुनाव प्रचार के दौरान दिये गये भाषणों को देखा जाय तो एक भी ऐसा भाषण नहीं रहा जिसे प्रधानमंत्री पद की गरिमा के नजदीक भी रखा जा सके। सारे भाषण सतही और निम्नस्तरीय रहे।
आजाद भारत का पहला बेमुद्दा और नीरस, ऊबाऊ चुनाव
पूरे चुनाव प्रचार के दौरान मंहगाई, बेरोजगारी, गिरती अर्थ व्यवस्था, इलेक्टोरल बांड्स स्कैम, भृष्टाचार का राजनीतिक शुध्दीकरण, ईडी, आईटी, सीबीआई की राजनीतिक ब्लेकमेलिंग पर सत्तापक्ष के किसी भी नेता ने मुंह नहीं खोला। मणिपुर में महिलाओं का यौन चीरहरण, दिल्ली में मोदी सरकार की नाक के नीचे महिला पहलवानों का अपनी अस्मिता के लिए किये गये आन्दोलन को अमानवीय तरीके से रौंदे जाने के बाद भी दिल्ली की सातों सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों की जीत बताती है कि दिल्लीवासियों के लिए महिला आबरू कोई मायने नहीं रखती है !
अपनी फूटी छोड़ दूसरे की फूली झांक लाज बचाने की कोशिश
राजनीति और राजनीतिज्ञ कितने निर्लज्ज होते हैं इसका नजारा भी भाजपा मुख्यालय में दिए गए नरेन्द्र मोदी के भाषण में देखने को मिला। जहां वे कह रहे थे कि विपक्ष मिलकर भी भाजपा के बराबर सीट नहीं जीत पाया। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान किसी भी एक पार्टी का ऐसा बयान सुनने को नहीं मिला जिसमें किसी ने भी इतनी – उतनी सीटें जीतने का दावा किया हो जैसा नरेन्द्र मोदी और भाजपा चुनाव की घोषणा के महीनों पहले से करते रहे हैं (अबकी बार 400 पार) ।
शहजादे के सामने बौने नजर आये शहंशाह
यह तो पहले से ही कहा जा रहा था कि चुनाव बाद सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ही रहेगी। देश की किसी भी पार्टी ने सबसे बड़े दल के रूप में उभरने का दावा नहीं किया। चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा की सबसे ज्यादा भद पिटवाने का श्रेय भी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को जाता है। 10 साल सत्ता और प्रधानमंत्री पद में रहने वाले ने मुकाबला एक ऐसे व्यक्ति के समकक्ष रख दिया जो अपनी पार्टी का अध्यक्ष तक नहीं है। कहा जा सकता है कि राजा भोज दो – दो हाथ कर रहा था गंगू तेली से। कांग्रेस जहां वर्षों तक सत्ता शिखर पर काबिज रही वहीं 10 साल सत्ता में रहने के बाद ही भाजपा का पतन शुरू हो जायेगा मोदी भक्तों ने कभी सोचा ना था। जीत भले ही जीत होती है मगर भाजपा की जीत को किसी भी ऐंग्लस से सम्मानजनक जीत नहीं कहा जा सकता। नरेन्द्र मोदी की जीत भी नैतिक रूप से पराजय ही कही जाएगी। कांग्रेस मुक्त भारत करने का सपना देखने वाले नरेन्द्र मोदी भारत को कांग्रेस मुक्त तो नहीं कर पाये हां पार्टी विस्तार और सत्ता हवस को पूरा करने के फेर में कांग्रेस की सारी गंदगी को समेट कर भाजपा को कांग्रेस युक्त जरूर कर बैठे।
ये तो जीत नहीं डकैती है ! मीडिया सहित केंचुआ – सुको ने भी खोई अपनी – अपनी विश्वसनीयता
वाराणसी से नरेन्द्र मोदी की जीत के साथ ही खजुराहो से विष्णुदत्त शर्मा, इंदौर से शंकर लालवानी और सूरत से मुकेश दलाल की जीत को डकैती के समानांतर रखा जा सकता है। अगर इन संसदीय क्षेत्र में उम्मीदवार के परचे खारिजी का घिनौना खेला नहीं खेला गया होता तो परिणाम विपरीत भी हो सकते थे। चुनाव परिणामों ने केंचुआ की कलई तो उतारी ही मोदी परस्त गोदी मीडिया को भी निर्वस्त्र कर दिया है। चुनाव के पहले से लेकर चुनाव के दौरान स्ट्रीम मीडिया ने अपनी रीढ़ विहीनता को सरेआम उजागर तो किया ही रही सही इज्ज़त के कचरे की कसर उसने एग्जिट पोल जारी करके कर दी। इन्हीं वजहों से ही भारत के मीडिया को दुनिया में निचले पायदान पर रखा गया है। कहीं न कहीं सोशल मीडिया भी अपनी विश्वसनीयता खोता नजर आया है। कहा जा सकता है कि संविधान की रक्षा का दायित्व सम्हाल रहे सुप्रीम कोर्ट की भूमिका भी जनापेक्षा के अनुकूल नहीं रही है। जब सांप को बिल के बाहर पकड़ा जा सकता था तो उसे डसने की छूट देकर बिल में यह कहते हुए जाने दिया गया कि चुनाव बाद देखेंगे !
कुर्सी के लिए विपरीत विचारधारा वालों के सामने किये जायेंगे मुजरे !
बहुमत से दूर रहने को इस लिहाज से भी देखा जाने लगा है कि पार्टी में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का वजूद कम हो गया है। पिछले 10 सालों में पार्टी को जिस तरह से एक व्यक्ति विशेष की परिक्रमा करने वाली पार्टी में तब्दील कर पार्टी जनकों की उपेक्षा की जाती रही है उसने भीतर ही भीतर एक सुप्त ज्वालामुखी को जन्म तो दिया ही है ! साथ ही 2015 के बाद से जिस तरह से पितृपुरुष आरएसएस प्रमुख को हासिये पर डालने की कोशिश की गई है उसका खामियाजा भी आज नहीं तो कल नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को उठाना पड़ सकता है ! मिंया मरते देर नहीं हुई और तरह-तरह की खबरें भी हवा में उड़ने लगी हैं जिसमें एक खबर यह है कि पिता कुपुत्र को अब गद्दी सौंपने तैयार नहीं है ! दूसरी और तीसरी खबर विपरीत विचारधारा वाले सहयोगियों के भितरखाने से निकल कर यह आ रही है कि भाजपा में नरेन्द्र मोदी मोदी को छोड़कर सब अच्छे हैं !, सरकार और खासतौर पर गृह मंत्रालय से अमित शाह को बाहर रखा जाय ! (खरी – अखरी इस खबर की पुष्टि नहीं करता है)
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता स्वतंत्र पत्रकार
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