व्यंग्य : राजनीति में नेता और अखबार दफ्तर में पत्रकार कब साथ छोड़ दे , पता नही चलता
आज का दौर एक ऐसा दौर है जब हर कोई जल्दी से जल्दी सफलता की सीढ़ियां चढ़ना चाहता है । मगर जल्दबाजी में सफलता की सीढ़ियां चढ़ना मतलब अपने आप को नुकसान पहुंचाना होता है । कुछ ऐसा ही हाल आजकल राजनीतिक पार्टियों के दफ्तर और तमाम बड़े-बड़े न्यूज़ चैनल और अखबारों के दफ्तरों में भी हो रहा है । आप सोच रहे हो कि आज ऐसी बात हम क्यों कह रहे हैं तो आप शांत मन से ठंडे दिमाग से इस पूरे आर्टिकल को पढ़े फिर आपको सच समझ में आएगा ऐसी बात क्यों कहीं जा रही है ।
पहले बात राजनीतिक गलियारों की
शुरुआत राजनीतिक दफ्तर से करते हैं । आजकल सभी राजनीतिक दल नेताओं के दल बादल से परेशान है । पार्टी के प्रमुख को यह नहीं पता होता है कि रात में जितने नेता उनके साथ थे उनमें से सुबह कितने कम हो जाएंगे इस बात की जानकारी भी उनको सुबह के अखबार से मिलती है । दरअसल सारा मामला अहम से जुड़ जाता है । जो नेता पार्टी छोड़कर जा रहा होता है उसको लगता है कि पार्टी मै ही चला रहा हूं मेरे बिना पार्टी नहीं चल सकती । मेरी जिस जगह पर या जिस पोस्ट पर पार्टी में जिम्मेदारी लगा रखी है उस पोस्ट पर मेरे से बेहतर कोई है ही नहीं । मगर वह नेता तो यह भूल जाता है कि उसको नेता बनने में भी पार्टी का कितना योगदान है । जब नेताजी नए नए थे , उसको कहीं पूछने वाला भी कोई नहीं था तब पार्टी में उसको एक जगह दी गई सम्मान दिया , दिलवाया । मगर धीरे-धीरे जैसे-जैसे नेताजी का कद बढ़ने लगा नेताजी में घमंड भी आने लगा और उन्हें लगने लगा कि मैं ही पार्टी हूं । मैंने जो कह दिया वही सही है । हाल ही में बहुत सारे नेताओं ने अपनी पार्टी बदली है जब वह पार्टी बदलते हैं तो उनके बयान अपनी पुरानी पार्टी के खिलाफ ही होते हैं । ऐसा अमूमन होता ही है लेकिन अगर उसके पीछे की तहकीकात की जाए तो सच्चाई कुछ और होती है । चुनाव का वक्त है नेताजी को टिकट नहीं मिली या उनको लगा की टिकट मिलने की संभावना नहीं है तो लगे हाथ दूसरी पार्टी में अपने पैर जमाने और जैसे ही दूसरी पार्टी से झंडी मिली यह वाली पार्टी बुरी लगने लगी । यह हाल किसी एक पार्टी का नहीं है सभी पार्टियों में है ।
कुछ यही हाल आजकल अखबार के दफ्तर में पत्रकारों का भी
आजकल लोग कहते हैं पत्रकारिता खत्म होती जा रही है पत्रकारों की लेखनी में वह बात नहीं है । ज्यादातर लोग सही कहते हैं । पत्रकारों के लेखनी में वह बात नहीं है उसकी वजह है कि आजकल ज्यादातर पत्रकार होमवर्क कम करते हैं और किसी भी खबर पर जाना हो तो सामने वाले ने जो बता दिया बस इतना ही उनको पता है इससे ज्यादा नहीं । और उसके बाद वह समझते हैं कि मैं ही पत्रकार हूं मेरे से बड़ा पत्रकार कोई नहीं । और मैने अगर दफ्तर में कोई खबर दे दी है उसे खबर में चाहे सिर पैर भी ना हो लेकिन अगर वह खबर नहीं छपी तो फिर डेस्क से लेकर संपादक तक के फोन बजा देना पत्रकारों की फितरत में शामिल हो जाता है । उनका लगता है कि जो खबर मै लेकर आया हूं यह पूरी तरीके से सही है । हाल ही में एक पत्रकार महोदय ने अपनी एक खबर के चलते एक अखबार का ऑफिस छोड़ दिया खबर क्या थी , मैं लिखकर बता रहा हूं , दरअसल खबर एक समान के रेट की बिलिंग को लेकर थी किसी कस्टमर ने किसी दुकान से कोई सामान लिया उसका बिल कस्टमर ने ऑनलाइन ₹100 का कर दिया । दुकानदार ने पहले बिल नहीं दिया , जब दुकानदार से बिल मिला तो डिस्काउंट काट करके मिल दिया 92 रुपए का । पत्रकार महोदय को यह खबर मिल गई उनको लगा कि ₹8 दुकानदार ने वापस नहीं किया तो यह खबर है । बिल्कुल ठीक बात है यह खबर है । पत्रकार महोदय ने कस्टमर का वर्जन लिया , कस्टमर से उन्होंने बिल की स्लिप ली , पेमेंट का स्क्रीनशॉट लिया और उन्हें लगा कि यह खबर पूरी हो गई है । खबर अखबार के दफ्तर पहुंची तो अखबार के दफ्तर से कहा गया कि इसमें दुकानदार का वर्जन लगाओ बिना दुकानदार के वर्जन के खबर नहीं लग सकती । पत्रकार महोदय ने डेस्क पर बैठे व्यक्ति से बहस शुरू कर दी कि उसने पैसे दिए है तो उसका प्रूफ है , उसने बिल दिया उसका प्रूफ है और क्या चाहिए जब डेस्क से उनको समझाया गया की दुकानदार का वर्जन इसमें नहीं है , क्या पता दुकानदार ने नगद पैसे वापस कर दिए हो इसकी जिम्मेदारी किसके पास है ? कौन लेगा ? अगर उसने नगद पैसे वापस कर दिए होंगे तो क्या उसका कोई प्रूफ है । आपके पास । मगर पत्रकार साहब को यह बात कैसे समझ में आए क्योंकि वह तो साहब है , पत्रकार थोड़े हैं कोई ।
ऐसी दुविधा पूर्ण स्थिति सिर्फ राजनीतिक दलों की हो या अखबार न्यूज़ चैनलों के दफ्तर में ऐसा नहीं है। ऊपर जो आर्टिकल लिखा गया है यह तो सिर्फ एक बानगी है और यह घटनाएं लगभग सभी क्षेत्र में आज के वक्त में देखने को मिल रही है । एक कहावत है थोथा चना , बाजे घना , पूरी तरीके से इस तरह के लोगों पर सटीक बैठती हैं ।
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