खरी खरी ; क्या मोदी सरकार की रीति-नीति को देखते हुए CEC राजीव कुमार भी देंगे इस्तीफा ?
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता स्वतंत्र पत्रकार
भारत निर्वाचन आयोग के आयुक्त अरुण गोयल के इस्तीफे से पैदा हुए लोकतांत्रिक – संवैधानिक संकट से देश को निकालने सुप्रीम कोर्ट – महामहिम राष्ट्रपति पर टिकी हुई है देश की नजर
क्या मोदी सरकार की रीति – नीति को देखते हुए मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार भी देंगे इस्तीफा ?
खरी-अखरी ने अपने आलेख में लिखा था कि घोषित आपातकाल से ज्यादा घातक अघोषित आपातकाल होता है। देखने यही आता है कि इस दौर में देश अघोषित आपातकालीन परिस्थिति से गुजर रहा है। देश की संवैधानिक स्वायत्त संस्थाओं पर सरकारी शिकंजा इस कदर कसा हुआ है कि वे अपनी मर्जी से सांस भी नहीं ले पा रही हैं। एक सुप्रीम कोर्ट ही है जो थोड़ा- बहुत अपने जिंदा होने का यदा-कदा अह्सास कराती रहती है वह भी सीजेआई डीवाई चंद्रचूड के रूप में ।
लोकतंत्र की दीवार के दरकने का ताजातरीन मामला भारतीय निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) में आयुक्त अरुण गोयल के इस्तीफे के रूप में सामने आया है। ये वही नौकरशाह अरुण गोयल हैं जिन्हें सेवानिवृत्ति से पूर्व पद त्याग कराकर चंद दिनों के भीतर चुनाव आयोग में आयुक्त की कुर्सी पर बैठा दिया गया था। जिस पर दूसरे राजनीतिक दलों ने तो आपत्ति जताई ही थी। सुप्रीम कोर्ट तक ने अरुण गोयल की पद नवासी पर कहा था कि “इतनी जल्दी क्या थी”।
उसी अरुण गोयल ने ऐसे समय अपना पद त्याग किया है जब देश आम चुनाव की दहलीज पर खड़े होकर चुनाव की तारीख घोषित होने का इंतजार कर रहा है। अरुण गोयल के इस्तीफा दे देने से त्रि-पदीय भारतीय निर्वाचन आयोग में अब एक मात्र आयुक्त राजीव कुमार बचे हुए हैं कारण एक चुनाव आयुक्त अनूप पांडेय का कार्यकाल पहले ही समाप्त हो चुका था और अब दूसरे आयुक्त गोयल ने भी आयोग से टा – टा कर लिया है ।
भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) एक स्वायत्त एवं अर्ध न्यायिक संस्थान है। जिसका गठन 25 जनवरी 1950 को भारत में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से प्रतिनिधिक संस्थाओं में प्रतिनिधि चुनने के लिए किया गया था। सुकुमार सेन (21 मार्च 1950 – 19 दिसम्बर 1958) से लेकर टी एन शेषन (12 दिसम्बर 1990 – 11 दिसम्बर 1996) तक निर्वाचन आयोग एक सदस्यीय हुआ करता था। ऐसा कहा जाता है कि टी एन शेषन ने ही पहली बार भारत निर्वाचन आयोग की शक्तियों का एहसास सरकार और आम जनता को कराया था वरना इसके पहले तक तो निर्वाचन आयोग के आयुक्तों पर सरकार की कठपुतली बने रहने के आरोप लगाए जाते थे ।
कहा जाता है कि सरकार और निर्वाचन आयोग आयुक्त टी एन शेषन के बीच चली रस्साकशी का ही परिणाम है कि सरकार ने संविधान संशोधन के जरिए त्रि – सदस्यीय निर्वाचन आयोग बनाया था। जिसमें वरिष्ठता के आधार पर एक को मुख्य निर्वाचन आयुक्त एवं बाकी दो को निर्वाचन आयुक्त बनाया जाता है। जिनके द्वारा विशेष परिस्थितियों में निर्णय भी बहुमत के आधार पर लिया जाता है ।
पंजाब कैडर से आने वाले 1985 बैच के आईएएस अरुण गोयल 18 नवम्बर 2022 को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेते हैं और 21 नवम्बर 2022 को उन्हें मोदी सरकार द्वारा भारत निर्वाचन आयोग में आयुक्त की कुर्सी पर बैठा दिया जाता है। बताया जाता है कि नौकरशाह अरुण गोयल को नौकरी के दौरान सदा मलाईदार पदों पर बैठाया जाता रहा है! अरुण गोयल को निर्वाचन आयुक्त बनाये जाने को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती दी गई थी जिस पर ही सुप्रीम कोर्ट ने “इतनी जल्दबाजी क्यों” जैसी तीखी टिप्पणी की थी ।
बहरहाल भारत निर्वाचन आयोग के आयुक्त अरुण गोयल ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और महामहिम राष्ट्रपति मुर्मू द्रोपदी ने स्वीकार भी कर लिया है। अरुण गोयल ने आम चुनाव के लिए चंद दिनों में घोषित होने वाली तारीखों के पहले इस्तीफा क्यों दिया इस पर भी तरह – तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। इस्तीफे का सच कभी देश के सामने आ भी पायेगा या नहीं कहा नहीं जा सकता। चर्चा तो यह भी है कि आम चुनावों को टालने के लिए अरुण गोयल से इस्तीफा कराया गया है !
चलिए निर्वाचन आयुक्त अरुण गोयल, जिनका कार्यकाल दिसम्बर 2027 तक था और मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार के 25 फरवरी 2025 को सेवा निवृत्त होने के पश्चात मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनने वाले थे, के इस्तीफे से देश में लोकतांत्रिक संकट तो खड़ा हो ही गया है! गलियारों में तो यह भी चर्चा है की मोदी सरकार की रीति – नीति से घुटन महसूस कर रही स्वायत्त संवैधानिक संस्थाओं के प्रमुखों में से एक भारत निर्वाचन आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार भी अरुण गोयल जैसा कदम उठा सकते हैं ।
मगर जब तक राजीव कुमार निर्वाचन आयोग की मुख्य निर्वाचन आयुक्त की कुर्सी पर बैठे हुए हैं तो सवाल उठना लाजिमी है कि क्या राजीव कुमार आम चुनाव कराने का फैसला अकेले कर सकते हैं ? अगर राजीव कुमार अकेले आम चुनाव कराने का निर्णय लेकर तारीखों की घोषणा करते हैं तो क्या यह असंवैधानिक – अलोकतांत्रिक नहीं होगा ? लोकतंत्र की दरक रही दीवार को गिरने से बचाने के लिए वर्तमान परिस्थिति में क्या सुप्रीम कोर्ट और महामहिम राष्ट्रपति को स्वमेव संज्ञान नहीं लेना चाहिए ?
देश की नजरें सुप्रीम कोर्ट और महामहिम राष्ट्रपति द्वारा उठाए जाने वाले कदमों पर टिकी हुई है। देखिए क्या होता है ।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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