98 लोगों को सुनाई गई एक साथ उम्र कैद की सजा, हिंसा करने का अंजाम अब होगा बुरा
एक तरफ जो देश में लगातार हिंसा फैल रही है, वहीं दूसरी तरफ अदालत में ऐसी सजा सुनाई की सब लोग हैरान हो गए। इस बात से हिंसा करने वालों के पैरों तरह जमीन खिसक गई। एक मामले के चलते 98 लोगों को उम्र कैद कोर्ट द्वारा दे दी गई है। इस फैसले के बाद लोगों के मन में एक खौफ देखने को मिल रहा है की कोई भी अपराध करने के बाद कानून से बच नहीं सकता।
इन दिनों पूरे देश में कई जगह पर दंगे देखने को मिलते हैं। छोटी-छोटी बात पर एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं लोग, पर अब ऐसा नहीं होगा। दरअसल, कर्नाटक की एक सत्र अदालत ने गुरुवार को गंगावती तालुक के मारकुंबी गांव में दलितों को निशाना बनाकर किए गए भेदभाव और जातिगत हिंसा 2014 के मामले में 98 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुना दी है और साथ ही तीन अन्य को पांच साल के लिए जेल भेज दिया है। डिस्क्रिमिनेशन एंड कास्ट वायलेंस के 10 साल पुराने इस मामले में दलितों को टारगेट करके हमला करने का और साथ भेदभाव करने का था। जिस पर अब अदालत ने अपना फैसला सुना दिया है और इस सजा से लोग हैरान और परेशान दोनों हैं। मानो ऐसा लगता है कि देंगे करने वालों को अब बक्शा नहीं जाएगा। सूत्रों का कहना है कि देश में ऐसा पहली बार है जब दलितों पर अत्याचार के मामले में इतने ज्यादा लोगों को एक साथ यानी सामूहिक रूप से सजा सुनाई गई है। इसमें से 3 को कम सजा दी गई क्योंकि उन तीनों के खिलाफ एससी-एसटी ऐक्ट 1989 (SC-ST Act 1989) नहीं लगाया जा सका।
जानिए क्या था पूरा मामला
जाति आधारित हिंसा से जुड़ा यह मामला 28 अगस्त 2014 को गंगावती तालुका के मारकुंबी गांव का है। कथित तौर पर घटना की शुरुआत कब हुई जब मारकुंबी निवासी मंजूनाथ ने यह दावा किया कि गंगावती में फिल्म देखने के बाद दलितों ने उस पर हमला किया। इसके बाद गांव वालों ने इस बात का जवाब हिंसा से दिया। उस दौरान दलितों की झोपड़ी में आग भी लगाई गई और कई लोगों पर हमला किया गया। दलितों को नाई की दुकान और ढाबों में प्रवेश से मना करने को लेकर झड़प शुरू हुई थी। पूरे गांव में छुआछूत जैसी बातें शुरू हो गई यानी दलित लोग बाकियों से अलग है और उन्हें ना साथ खाना खाना चाहिए और ना ही साथ बैठना चाहिए। जब दलितों ने आवाज उठाई तो आरोपियों ने उनके घर तक जला दिए। अभियोजन पक्ष के अनुसार, इस मामले में 117 लोगों को आरोपी बनाया गया था जिनमें से 16 की सुनवाई के दौरान मौत हो गई।
छुआछूत है एक बीमारी
हिंसा के तीन महीने बाद तक माराकुंबी गांव में पुलिस तैनात थी। 21 अक्टूबर को प्रतिवादियों को दोषी ठहराने वाले पीठासीन न्यायाधीश ने कहा कि “फैसले का मकसद इंसाफ को बनाए रखना और जाति आधारित हिंसा के खिलाफ एक मजबूत संदेश देना है।” दोषियों को बल्लारी जेल में बंद किया गया है और उनपर 5000 या फिर 2000 का जुर्माना भी लगाया गया है। सरकारी वकील अपर्णा बुंडी ने यह केस लड़ा है। भारत में छुआछूत एक ऐसी बीमारी है जिसका इतने दशकों बाद भी कोई इलाज़ नहीं ढूंढ पाया है। संविधान में स्पष्ट उल्लेख कर छुआछूत को खत्म करने के लिए प्रावधान किए गए है और इसके साथ ही एक आपराधिक कानून भी बनाया गया है जिसका नाम ‘सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955’ है। भारत में जाती के नाम पर भेदभाव को लेकर सख्त कानून है। हैरान करने वाली बात तो यह है कि आज भी लोगों के मन में अनटचेबिलिटी यानी छुआछूत जैसी बातें चलती है। भारत में आज भी ऐसे कई गांव है जहां छुआछूत जैसी बातें चलती आ रही है। जहां एक तरफ देश चांद पर पहुंच चुका है तो वहीं दूसरी तरफ लोग जाति पर अटके हुए हैं। ऐसे मामलों से एक सवाल खड़ा होता है कि कौन छोटा कौन बड़ा क्या जाति से पता चलता है? किसी का घर तोड़ देना एक दूसरे से इतनी दुश्मनी ले लेना इंसानियत तो नहीं कहलाती।
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