वर्तमान पत्रकारिता की सबसे बड़ी चुनौती : निष्पक्ष दिखने का दबाव पर सच्चाई से दूरी
आजादी का 79वा जश्न मना लेने के बाद जब हम देश की संस्थाओं का मूल्यांकन करते हैं, तो पत्रकारिता की स्थिति सबसे चिंताजनक दिखती है। कहा जाता है कि प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, लेकिन आज वही स्तंभ खुद दरारों से भरा हुआ है। पत्रकारों पर इस समय सबसे बड़ा दबाव यही है कि वे खुद को निष्पक्ष साबित करें—चाहे असलियत कुछ भी क्यों न हो।
निष्पक्षता की इस मजबूरी के बीच कुछ पत्रकार जनता की आवाज़ उठाते हैं, सत्ता से सवाल पूछते हैं, और बदले में सत्ता, विपक्ष, कॉरपोरेट और आम नागरिक सभी ओर से गालियां सुनते हैं। विडंबना यह है कि जनता निष्पक्षता की उम्मीद उन्हीं पत्रकारों से करती है जो खुद एक तरह की गुलामी में जी रहे हैं।
छुट्टियां, त्यौहार और पत्रकारों की गुलामी
दिल्ली के एक बड़े संस्थान में काम करने वाले पत्रकार ने सोशल मीडिया पर लिखा पत्रकारिता में स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस का मतलब छुट्टी नहीं, बल्कि अतिरिक्त काम होता है। क्षेत्रीय पत्रकारिता में जब मैं था, तो 15 अगस्त और 26 जनवरी को अखबारों में अवकाश रहता था। पत्रकार देर रात तक खबरों से ज्यादा विज्ञापन जुटाने में लगे रहते थे। तब भी यह संतोष रहता कि साल में कुछ दिन सभी को एक साथ छुट्टी मिल जाती है।
लेकिन दिल्ली आने पर हकीकत साफ हो गई—यहां स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या अन्य राष्ट्रीय पर्वों पर भी छुट्टी की परंपरा नहीं। ईद ( उत्तरप्रदेश को लेकर ) जैसे त्योहारों पर तो अखबार दफ्तर कई जगहों पर तीन दिन तक बंद रहते हैं, लेकिन 15 अगस्त की छुट्टी एक भी दिन नहीं। सवाल यह है कि क्या अखबार एक दिन नहीं छपेंगे तो लोकतंत्र खतरे में आ जाएगा?
संपादक और मालिक: गुलामी का सिलसिला
समस्या सिर्फ छुट्टियों तक सीमित नहीं है। मीडिया संस्थानों में संपादक और वरिष्ठ पदों पर बैठे लोग भी मालिकों के हित साधने में लग जाते हैं। वे सलाहकार नहीं, बल्कि “गुलाम” बनकर काम करते हैं। यही कारण है कि पत्रकारिता आज एक अंधी दौड़ बन चुकी है—जहां हर कोई टीआरपी, विज्ञापन और मालिक की प्रसन्नता के लिए भाग रहा है।
क्यों घट रहा है पत्रकारिता का स्तर?
आज पत्रकारिता में आने वाले युवाओं की संख्या लगातार घट रही है। कारण साफ है—
- बेहद कम वेतन,
- असुरक्षित भविष्य,
- थकाने वाली दिनचर्या।
पत्रकारिता के डिप्लोमा कोर्स में वही छात्र दाखिला ले रहे हैं जिन्हें अन्य क्षेत्रों में अवसर नहीं मिलते। नतीजा यह है कि पेशे में अब योग्य और प्रतिभाशाली युवाओं की कमी दिख रही है।
40 वर्ष पार कर चुकी पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी धीरे-धीरे मंच से हट रही है। लेकिन नई पंक्ति लगभग खाली है। यही कारण है कि पत्रकारिता की गंभीर परंपरा टूटती नज़र आ रही है।
सोशल मीडिया: नया विकल्प या नई चुनौती?
जहां परंपरागत मीडिया संस्थान विश्वास खो रहे हैं, वहीं सोशल मीडिया नए अवसर दे रहा है। लल्लनटॉप जैसे मंचों ने दिखा दिया कि बिना बड़े मालिकों और पारंपरिक ढांचे के भी पत्रकारिता को नयी दिशा दी जा सकती है।
आज अनेक युवा पत्रकार सीधे यूट्यूब चैनल या स्वतंत्र ऑनलाइन प्लेटफॉर्म बना रहे हैं। उन्हें वहां आज़ादी और भविष्य की सुरक्षा दोनों नज़र आती है। लेकिन यह रास्ता भी चुनौतियों से मुक्त नहीं है—फंडिंग, विश्वसनीयता और ट्रोल कल्चर यहां बड़ी बाधाएं हैं।
पत्रकारिता की असली स्वतंत्रता अभी अधूरी
स्वतंत्रता दिवस हमें यह याद दिलाता है कि देश को राजनीतिक आज़ादी तो 1947 में मिल गई थी, लेकिन पत्रकारिता की सच्ची स्वतंत्रता अभी अधूरी है।
जब तक मीडिया संस्थान मालिकों की बंधक नीतियों और सत्ता के दबाव से बाहर नहीं निकलेंगे, तब तक पत्रकार निष्पक्ष होने का केवल दिखावा ही करते रहेंगे। और जब तक पत्रकारिता पेशा युवाओं के लिए आकर्षक और सुरक्षित नहीं बनेगा, तब तक अगली पीढ़ी का आना मुश्किल होगा।
पत्रकारों को चाहिए कि वे इस व्यवस्था को चुनौती दें, संपादक और प्रबंधन को चाहिए कि वे पत्रकारों को इंसान समझें, और पाठकों को चाहिए कि वे निष्पक्ष पत्रकारिता की मांग करें।
तभी सचमुच कहा जा सकेगा कि स्वतंत्रता दिवस केवल देश का नहीं, बल्कि पत्रकारिता का भी पर्व है।
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